जलवायु

भारतीय बैंक जलवायु जोखिम के लिए तैयार नहीं

बड़े ऋणदाता और सरकार द्वारा संचालित ऊर्जा क्षेत्र के दिग्गज, अपने बढ़ते जलवायु जोखिम को कम करने के लिए बहुत कम प्रयास कर रहे हैं।
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<p>जलवायु संबंधी आपदाओं की लागत, जैसे कि 2020 का चक्रवात अम्फान, भारत के लिए बहुत तेजी से महंगा हो रहा है (फोटो : Majority World CIC / Alamy)</p>

जलवायु संबंधी आपदाओं की लागत, जैसे कि 2020 का चक्रवात अम्फान, भारत के लिए बहुत तेजी से महंगा हो रहा है (फोटो : Majority World CIC / Alamy)

भारत हमेशा से क्रूर मौसम की धरती रही है। वैसे, इसके पूर्वानुमान भी किये जाते रहे हैं। लेकिन अब जलवायु संकट में बदलाव आशंका है क्योंकि न केवल गर्मी बढ़ रही है बल्कि यह अनिश्चित भी है। यही हाल पानी से जुड़ी स्थितियों की भी है।

वैसे तो, अतीत में आपदाओं की तैयारियों को लेकर काफी काम हुए हैं लेकिन अब अत्यधिक विघटनकारी मौसमी घटनाओं की आशंका बढ़ती जा रही है जिनको ‘ब्लैक स्वान इवेंट्स’ (एक ऐसी घटना, जो आश्चर्य के रूप में आती है और इसका एक बड़ा प्रभाव होता है।) के तौर पर संदर्भित किया जा रहा है। इसमें अर्थव्यवस्था पर अभूतपूर्व खतरे की स्थिति आ सकती है। विशेषज्ञों की बढ़ती चेतावनियों के बावजूद, भारत के बड़े बैंक इस संभावित खतरे के प्रति अभी तक अपनी आंखें मूंदते दिख रहे हैं।

भारतीय बाँकों का जलवायु स्कोरकार्ड 

हाल के एक विश्लेषण में, इस बारे में एक दुर्लभ झलक मिलती है कि भारत के सबसे बड़े भारतीय वाणिज्यिक बैंक, जलवायु परिवर्तन के बारे में कैसे सोचते हैं। विश्लेषण से पता चलता है कि वे न केवल अपने निवेशकों के लिए जोखिम को कम करके आंक रहे हैं बल्कि खुद के उत्सर्जन में कटौती की तात्कालिकता की भी उपेक्षा कर रहे हैं।

एक थिंक टैंक, क्लाइमेट रिस्क हॉरीजन्स (सीआरएच) के शोधकर्ताओं ने बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के 34 सबसे बड़े बैंकों पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारियों का परीक्षण किया। ये सभी बैंक मार्च 2021 तक 354 बिलियन डॉलर (26.81 ट्रिलियन रुपये) का प्रतिनिधित्व करते हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि सभी प्रकार के उत्सर्जन को लक्ष्यित करते हुए किसी के पास भी व्यापक नेट जीरो योजना नहीं है। उत्सर्जन के मामले में वे इकाई जो सीधे उत्पादन करती है, उसे ‘स्कोप 1’ के रूप में जाना जाता है। अप्रत्यक्ष रूप से उदाहरण के लिए जो ऊर्जा खपत से संबंधित हैं, उनको ‘स्कोप 2’ के रूप में जाना जाता है। और जो मूल्य श्रृंखला को ऊपर और नीचे करते हैं उनको ‘स्कोप 3’ में रखा जाता है। केवल दो के पास दशक के अंत तक स्कोप 1 और 2 उत्सर्जन को दुरुस्त करने की योजना है।

सीआरएच के सीईओ और अध्ययन के लेखक आशीष फर्नांडीस कहते हैं, “अध्ययन में मूल्यांकन किए गए 10 मानदंडों में से अधिकांश पर, विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन बहिष्करण नीतियों, नेट जीरो लक्ष्य और उनके पोर्टफोलियो के लिए दीर्घकालिक परिदृश्य विश्लेषण जैसी चीजों पर, “बहुत कम प्रगति” हुई है।”

विश्लेषण से पता चलता है कि बैंकों में से केवल दो, सूर्योदय स्मॉल फाइनेंस बैंक ने तय किया कि वे नए कोयला बिजली संयंत्रों के निर्माण या मौजूदा के विस्तार के लिए वित्त नहीं उपलब्ध कराएंगे जबकि फेडरल बैंक ने वादा किया है कि वह तेल और गैस की खोज के क्षेत्र में सहायता करना बंद कर देगा। किसी भी बैंक ने यह समझने के लिए आकलन नहीं किया है कि जलवायु परिवर्तन उनके पोर्टफोलियोज और उनके निवेशकों को कैसे प्रभावित कर सकता है।

“ब्लैक स्वान इवेंट्स”

फर्नांडीस कहते हैं, “ये मुद्दे बेहद जटिल हैं, लेकिन बैंकों को इन पर ध्यान देना शुरू करना चाहिए क्योंकि इनका अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। ये बहुत बड़े बैंकों के बारे में है। भगवान न करे, लेकिन भारत में एक ब्लैक स्वान इवेंट है। ये दो या तीन बहुत छोटे ब्लैक स्वान इवेंट्स भी हो सकते हैं जो लगातार विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं जैसे कि जब फसलें बढ़ रही हों उस समय कमजोर मानसून के साथ भीषण गर्मी जैसी स्थितियां पैदा हो जाएं। इसका न केवल कृषि पर, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अगले वर्षों में बड़े पैमाने पर प्रभाव है।”

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दुनिया के 100 सबसे अधिक जलवायु संवेदनशील शहरों में से 43 भारत में हैं

‘ब्लैक स्वान’ कम-संभाव्यता, उच्च प्रभाव वाली घटनाएं हैं, जो जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के वैज्ञानिकों के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने के साथ अधिक बार होने जा रही हैं। ये भीषण गर्मी, कृषि सूखा या अभूतपूर्व तीव्रता की भारी वर्षा हो सकती हैं। आईपीसीसी का कहना है कि विशेष रूप से दक्षिण एशिया को 21 वीं सदी में अधिक गर्मी और आर्द्रता के तनाव का सामना करना पड़ेगा। साथ ही, यहां मानसून के मौसम में अधिक गंभीर बारिश होगी।

अर्थव्यवस्था पर व्यापक खतरे

फर्नांडीस कहते हैं, ”अगर आप भारत के लिए जलवायु संबंधी अनुमानों को देखें, तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि अगले कुछ दशकों में कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहने वाला है। ऊर्जा लें या बड़े बुनियादी ढांचे, सब पर प्रभाव होने जा रहे हैं।” वह कहते हैं कि यह इस पर निर्भर है कि जलवायु संबंधी घटनाओं की गंभीरता कितनी है, यह प्रत्येक बैंक के

विशिष्ट निवेशों पर निर्भर करेगा। उदाहरण के लिए यदि किसी बैंक का पोर्टफोलियो कोयले पर, या हिमालय में बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट्स पर अत्यधिक निर्भर है तो उसके प्रभाव होंगे। निर्माण क्षेत्र निश्चित रूप से प्रभावित होगा और कृषि से जुड़े व्यवसायों पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने वाले हैं।

इन कंपनियों ने जलवायु कार्रवाई को उस पैमाने और उस गति से नहीं अपनाया है जिसकी दुनिया को जरूरत है
बालासुब्रमण्यन विश्वनाथन, आईआईएसडी

जलवायु जोखिमों की पहचान करने में विफलता, इसकी उच्च संवेदनशीलता को देखते हुए, विशेष रूप से भारत और दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए एक बड़ी समस्या है। यूके कंसल्टेंसी वेरिस्क मैपलक्रॉफ्ट ने अपने पर्यावरण और जलवायु जोखिम पर 576 सबसे बड़े शहरों को स्थान दिया, और पाया कि 100 सबसे कमजोर शहरों में से 99 एशिया के हैं। इनमें से 43 भारत में हैं। जकार्ता सूची में सबसे ऊपर है। दिल्ली दूसरे स्थान पर है। उसके बाद क्रमश: चेन्नई, आगरा और कानपुर तीसरे, छठे और दसवें स्थान पर हैं।

वेरिस्क मेपलक्रॉफ्ट के एक वरिष्ठ विश्लेषक रोरी क्लिस्बी कहते हैं, “भारत सरकार, जलवायु कार्रवाई के मामले में काफी पीछे है। ग्रीनहाउस गैस में कमी करने के राष्ट्रीय लक्ष्य, ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक तापमान की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर प्रतिबंधित करने के लिहाज से अनुरूप नहीं हैं।”

वह कहते हैं कि इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि निजी और सरकार के स्वामित्व वाले भारतीय बैंक जलवायु जोखिम रिपोर्टिंग पर भी अपने पैर पीछे खींच रहे हैं। भले ही, नियामक इस तरफ ध्यान न दे लेकिन निवेशक और ग्राहक इन सवालों को तेजी से पूछेंगे और अगर उन्हें सही जवाब नहीं मिलता है तो वे व्यापार को अधिक मजबूत विनियमन के साथ अधिकार क्षेत्र में ले जाएंगे।

भारत के सार्वजनिक ऊर्जा दिग्गजों के लिए सबक

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट (आईआईएसडी) के पॉलिसी एडवाइजर बालासुब्रमण्यन विश्वनाथन कहते हैं कि अधिक निर्णायक जलवायु कार्रवाई और उसको लोगों के सामने लाने की आवश्यकता, न केवल बैंकों पर बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकांश ऊर्जा दिग्गजों पर भी लागू होती है। वह कहते हैं, “भारत में सरकार के स्वामित्व वाले उद्यम, बहुत बड़ी संस्थाएं हैं, और वे कुछ सबसे बड़े फाइनेंसर हैं। वे एक-दूसरे में निवेश भी करते हैं, उदाहरण के लिए, भारतीय स्टेट बैंक, कोल इंडिया लिमिटेड का एक प्रमुख शेयरधारक है, जो सरकार के स्वामित्व वाली कोयला खनन और रिफाइनिंग कंपनी है। मेरे विचार से, इन कंपनियों ने, जलवायु कार्रवाई को उस पैमाने और उस गति से नहीं अपनाया है जिसकी दुनिया को जरूरत है और बाकी दुनिया जिस ओर बढ़ रही है। वे इस समय स्वच्छ ऊर्जा पोर्टफोलियो का विस्तार कर रहे हैं लेकिन जब उनकी जीवाश्म संपत्ति को डिकार्बोनाइज करने की बात आती है तो उनके पास कोयले से परे सोचने की कोई योजना नहीं है।”

विश्वनाथन कहते हैं कि रिलायंस और अडानी जैसे भारत के सबसे बड़े निजी समूहों ने ऐसी योजनाएं तैयार की हैं। इनकी योजनाओं के मुताबिक रिलायंस 2035 तक नेट जीरो लक्ष्य हासिल कर लेगा और अडानी 2030 तक 70 बिलियन डॉलर के निवेश के साथ दुनिया का सबसे बड़ा नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादक बन जाएगा। ये हाइड्रोजन, बैट्रीज और अन्य क्षेत्रों में क्षमता निर्माण और लंबी अवधि की योजना बनाकर ऐसा कर रहे हैं।

वह यह भी कहते हैं कि दूसरी ओर, सार्वजनिक वित्तीय संस्थान और ऊर्जा दिग्गज अभी भी ऊर्जा के झटके से बचने और सुरक्षा को मजबूत करने जैसे अल्पकालिक लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, और जीवाश्म ईंधन इन मुद्दों का त्वरित समाधान है। लेकिन यह समय समाप्त होता जा रहा है। उन्हें अभी यह कार्य करना चाहिए इसका एक प्रमुख कारण यह है कि इस समय उनके पास बहुत मजबूत बैलेंस शीट है, और वे अनुकूल ब्याज दरों पर बहुत अधिक पूंजी जुटाने में सक्षम हैं। लेकिन जैसे-जैसे इन कंपनियों के बारे में निवेशकों का दृष्टिकोण, उनकी जीवाश्म-सघन संपत्तियों के कारण बदलेगा, वे उतनी आसानी से पूंजी नहीं जुटा पाएंगे, और उनके लिए ऊर्जा रूपांतरण की योजना बनाना बहुत कठिन हो जाएगा।

यह लेख सबसे पहले Lights On द्वारा प्रकाशित किया गया था

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