जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में, भारत ने दुनिया के लिए, 2015 की अपनी पांच प्रतिबद्धताओं में से दो को अपडेट किया है। इसमें पहला यह है कि 2005 के स्तर की तुलना में 2030 तक, अपने जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 45 फीसदी तक कम किया जाएगा। साल 2015 में, 33-35 फीसदी की कमी का लक्ष्य तय किया गया था। इसमें दूसरा अपडेट 2030 तक अपनी बिजली का लगभग 50 फीसदी नॉन-फॉसिल फ्यूल यानी गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से प्राप्त करना है। साल 2015 मे ये लक्ष्य 40 फीसदी का था।
दूसरी प्रतिबद्धता के साथ एक और अंश जुड़ा हुआ है: इसे “प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण और ग्रीन क्लाइमेट फंड सहित कम लागत वाले अंतर्राष्ट्रीय वित्त की मदद से” हासिल किया जाएगा। सरकार की तरफ से जारी किए गए एक बयान में ऐसी घोषणा की गई है।
2015 की तीसरी बड़ी प्रतिबद्धता में कोई बदलाव नहीं है। इस प्रतिबद्धता में 2.5-3 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर, कार्बन अवशोषण लायक अतिरिक्त वन और वृक्षों का आवरण, 2030 तक विकसित करने की बात थी।
सस्टेनेबल लाइफस्टाइल, एक क्लाइमेट फ्रेंडली विकास के रास्ते पर चलना, अनुकूलन, वित्त, प्रौद्योगिकी एवं क्षमता निर्माण जैसी कई अन्य प्रतिबद्धताएं भी हैं लेकिन उनका मात्रात्मक निर्धारण नहीं किया गया है।
भारत अब, इस नवंबर इजिप्ट में होने वाले अगले वैश्विक जलवायु शिखर सम्मेलन, कॉप 27 से पहले जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) में अपना अपडेट, नेशनली डिटरमाइंड कॉन्ट्रीब्यूशन (एनडीसी) प्रस्तुत करेगा। यह अपडेट, निश्चित रूप से पिछले साल ग्लासगो में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई प्रतिबद्धताओं का पालन करते हैं। लेकिन इस अपडेट में पहले किए गए कुछ वादों को भुला दिया गया है।
भारत के अपडेटेड एनडीसी में कुछ वादों को पीछे छोड़ दिया गया
ग्लासगो में नरेंद्र मोदी द्वारा की गई प्रतिबद्धताएं में से दो प्रतिबद्धताएं नए लक्ष्यों में नज़र नहीं आ रहे। पहला: 2030 तक भारत की स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता का कम से कम 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से होना, दूसरा: 2020 के दशक में कम से कम 1 बिलियन टन के बराबर कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन से बचना।
बिजली मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में, वर्तमान में स्थापित 403 गीगावाट बिजली उत्पादन क्षमता में से 236 गीगावाट (58.5 फीसदी) कोयला, तेल और गैस से आता है। शेष 41.5 फीसदी (167 गीगावाट) में से, 28 फीसदी पवन, सौर और अन्य नवीकरणीय ऊर्जा से है। 11 फीसदी जल विद्युत से और शेष परमाणु ऊर्जा से आता है। अगर 2030 तक नॉन-फोसिल फ्यूल यानी गैर-जीवाश्म स्रोतों से अतिरिक्त क्षमता को 500 गीगावाट तक ले जाना है तो गैर-जीवाश्म स्रोतों से अतिरिक्त क्षमता को आठ साल से भी कम समय के भीतर तीन गुना तक करना होगा।
दस साल पहले, भारत की कुल स्थापित उत्पादन क्षमता 199 गीगावाट थी, जो आज की तुलना में आधे से भी कम है। यह वृद्धि सिर्फ नवीकरणीय ऊर्जा से नहीं हुई है: इस अवधि के दौरान कोयला, तेल और गैस से होने वाली उत्पादन क्षमता भी दोगुनी हो गई है।
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत ने ट्रैक बदलने की जगह, गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से 500 गीगावाट की ग्लासगो प्रतिज्ञा को छोड़ दिया है।
अगर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे वादे की बात करें तो पता चलता है कि ग्लासगो कॉप में पहली बार ऐसा हुआ जब भारत ने जीडीपी की प्रति यूनिट उत्सर्जन की तीव्रता के बजाय वास्तव में उत्सर्जन को कम करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी। लेकिन प्रधानमंत्री के भाषण में उस आधार वर्ष का जिक्र नहीं था, जिससे उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी को मापा जाएगा।
इसके अलावा भारत के पास ऐसा कोई आधिकारिक अनुमान भी नहीं है कि 2030 में कितने टन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होगा।
एक स्वतंत्र थिंक टैंक के एक शोधकर्ता ने नाम न छापने की शर्त पर द् थर्ड पोल से बात करते हुए 2030 में 4 बिलियन टन उत्सर्जन का अनुमान लगाया, जो 2018 के 3.3 बिलियन टन की तुलना में अधिक है। किसी आधिकारिक अनुमान के न होने के कारण कॉप 26 में किया गया वादा अस्पष्ट है और किसी भी मामले में अपडेटेड एनडीसी में शामिल नहीं किया गया है।
सरकार की योजना
सरकार के बयान में कहा गया है: “अपडेटेड फ्रेमवर्क में सरकार की कई अन्य पहलों को शामिल किया गया है। इनमें टैक्स में रियायत और प्रोत्साहन, जैसे निर्माण प्रोत्साहन और नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाने के लिए प्रोत्साहन योजना शामिल है। यह भारत की विनिर्माण क्षमताओं को बढ़ाने का अवसर प्रदान करेगी और निर्यात भी बढ़ेगा। इससे ग्रीन जॉब्स में बढ़ोतरी होगी। मसलन, ऑटोमोटिव्स में अक्षय ऊर्जा, स्वच्छ ऊर्जा उद्योग बढ़ेंगे। कम उत्सर्जन वाले उत्पाद जैसे इलेक्ट्रिक वाहनों और सुपर-इफीशियंट उपकरणों का निर्माण बढ़ेगा। ग्रीन हाइड्रोजन जैसी नवीन तकनीकों को बढ़ावा मिलेगा।”
बयान के अनुसार, “अकेले भारतीय रेलवे द्वारा 2030 तक नेट-जीरो लक्ष्य से सालाना 6 करोड़ टन उत्सर्जन में कमी आएगी। इसी तरह, भारत का एलईडी बल्ब का विशाल अभियान सालाना 4 करोड़ टन उत्सर्जन को कम कर रहा है।”
भारत के नए जलवायु लक्ष्यों में से एक ऑटोपायलट मोड पर है
भारत के सकल घरेलू उत्पाद का प्रति यूनिट ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 1990 के दशक से घट रहा है, क्योंकि कारखाने अपने बिजली बिलों को कम करने के लिए अधिक कुशल हो गए हैं।
थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर के फेलो वैभव चतुर्वेदी का कहना है कि 2005 और 2016 के बीच उत्सर्जन की तीव्रता में 24 फीसदी की गिरावट आई है। यह आंकड़े उस समय के हैं जब इन्हें अंतिम बार आधिकारिक रूप से संकलित किया गया था। नाम न छापने की शर्त पर कई अन्य स्वतंत्र विशेषज्ञों का कहना है कि उस दर पर, 2030 तक 45 फीसदी के लक्ष्य तक पहुंचना, ऑटोपायलट मोड पर होगा और नीति निर्माताओं के किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
अक्षय ऊर्जा लक्ष्य तक पहुंचने में बाधाएं
भारत की स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता को गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों (ज्यादातर सौर ऊर्जा) से वर्तमान के 41.5 फीसदी से 50 फीसदी तक ले जाने की योजना कुछ प्रमुख बाधाओं से घिरी हुई है।
सबसे पहला, सरकारी बिजली वितरण कंपनियों को सौर और पवन ऊर्जा उत्पादन करने वाली कंपनियों को करोड़ों डॉलर का भुगतान करना है। सरकार की स्वामित्व वाली बिजली वितरण कंपनियों पर यह रकम बकाया है।
दूसरा, ग्रिड-स्तरीय सौर और पवन उत्पादन परियोजनाओं को स्थापित करने के लिए भूमि के बड़े हिस्सों का अधिग्रहण, नौकरशाही बाधाओं के साथ-साथ राजनीतिक बाधाओं और कानूनी चुनौतियों से भरा हुआ है।
तीसरा, रूफटॉप सोलर की स्थापना, लक्ष्य से काफी पीछे है। अगर किसी अपार्टमेंट की छत पर रूफटॉप सोलर लगाना है तो मालिकाना हक को लेकर बहुत सारे और पुराने म्युनिसिपल नियम-कानून हैं। इन नियमों-कानूनों के पचड़े बहुत बड़ी बाधा हैं।
चौथा, यदि कोई उद्यमी अक्षय ऊर्जा सुविधा स्थापित करने के लिए बैंक ऋण चाहता है, तो ब्याज की दर अधिक पारंपरिक उद्यम- जैसे कि जूता कारखाना स्थापित करने- की तुलना में अधिक है।
पांचवां, बिजली ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क के आधुनिकीकरण में बहुत कम प्रगति हुई है जिससे यह विकेंद्रीकृत बिजली उत्पादन स्रोतों को संभाल सके।
अगर वास्तव में 2070 के नेट-जीरो लक्ष्य की तरफ बढ़ना है, जिसका वादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कॉप 26 में किया था, तो इन मुद्दों सुलझाने की जरूरत है।
थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस में भारत के प्रमुख ऊर्जा अर्थशास्त्री विभूति गर्ग ने एक बयान में कहा: “2070 नेट-जीरो लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, भारत को 2030 तक कार्रवाई योग्य अल्पकालिक लक्ष्यों की आवश्यकता है जो देश को अपने दीर्घकालिक लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद कर सकें।
भारत को मांग पक्ष और आपूर्ति पक्ष पर अधिक जोर देने की आवश्यकता है। अक्षय ऊर्जा खरीद दायित्व बढ़ने से मांग को बढ़ावा मिलेगा और 2030 अक्षय ऊर्जा लक्ष्य होने से आपूर्ति पक्ष को बढ़ावा मिलेगा।”
एक अन्य थिंक टैंक इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट के पॉलिसी एडवाइजर बालासुब्रमण्यम विश्वनाथन ने एक बयान में कहा: “हमें उम्मीद है कि एनडीसी कार्यान्वयन संबंधी अपने रास्तों पर अधिक विवरण प्रदान करेगा – विशेष रूप से,ऊर्जा परिवर्तन के घोषित लक्ष्यों के साथ निजी वित्त का लाभ उठाने के लिए सार्वजनिक वित्तीय प्रवाह को श्रेणीबद्ध करने संबंधी लक्ष्य।
इसमें सब्सिडी को स्वच्छ ऊर्जा में स्थानांतरित करना, स्वच्छ ऊर्जा में सरकार के स्वामित्व वाले उद्यमों द्वारा निवेश अनिवार्य करना और स्वच्छ ऊर्जा के लिए सार्वजनिक वित्त लक्ष्य को बढ़ाना शामिल है।”
अगर ये एक्शन लिए जाते हैं तो अगले साल भारत में होने वाले जी 20 शिखर सम्मेलन के साथ ही आगामी कॉप में भारत की नेगोशिएशन पावर मजबूत हो सकती है। यह पावर ग्लोबल नॉर्थ देशों से जलवायु वित्त के इर्द-गिर्द विशेष रूप से मजबूत हो सकती है। भारत के पास 2023 में जी 20 की अध्यक्षता होगी और वह उस वर्ष अपने वार्षिक शिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा।
पैसों की उपलब्धता सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है
भारत ग्रीनहाउस गैसों का दुनिया का तीसरा (अगर यूरोपीय संघ के देशों के संयुक्त उत्सर्जन पर बात करें, तो वह चौथा है) सबसे बड़ा उत्सर्जक है। साथ ही, यह एक विकासशील देश है जिसने अब तक अपने क्लाइमेट एक्शंस को बड़े पैमाने पर घरेलू संसाधनों से वित्त पोषित किया है। इनमें कई, जलवायु परिवर्तन पर इसकी राष्ट्रीय कार्य योजना के माध्यम से वित्त पोषित हैं।”
सरकार के बयान में कहा गया है, “नए और अतिरिक्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने के साथ-साथ वैश्विक जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण यूएनएफसीसीसी और पेरिस समझौते के तहत विकसित देशों की प्रतिबद्धताओं और जिम्मेदारियों में से एक है। भारत को भी ऐसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संसाधनों और तकनीकी सहायता से अपने उचित हिस्से की आवश्यकता होगी।”