जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। मॉनसून की बारिश का अनुमान लगाना भी मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में, हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में जलविद्युत परियोजनाएं कितनी व्यावहारिक रह पाएंगी, इस बारे में अनिश्चितता बढ़ रही है। दक्षिण पूर्वी तिब्बती पठार पर, एक ग्लेशियर की स्थिति को लेकर हाल में एक अध्ययन हुआ है। इस अध्ययन में यह भी इशारा किया गया है कि आने वाले समय में, इस क्षेत्र में पानी को लेकर समस्याएं बढ़ सकती हैं।
इसके अलावा, अध्ययन में यह भी बताया गया है कि चूंकि ग्लेशियरों के अधिक पिघलने की वजह से पानी का बहाव बढ़ जाता है, जिससे बाढ़ का जोखिम है। साथ ही, इस अध्ययन में, यारलुंग सांगपो-ब्रह्मपुत्र नदी घाटी में कई बांधों के निर्माण की योजना को देखते हुए इसके प्रभावों पर भी प्रकाश डाला गया है।
हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र वैश्विक औसत दर की तुलना में लगभग दोगुनी गति से गर्म हो रहा है: प्रति दशक 0.32 डिग्री सेल्सियस बनाम 0.16 डिग्री सेल्सियस। सितंबर में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि पिछले 20 वर्षों के दौरान इस वार्मिंग की वजह से पारलुंग नंबर 4 ग्लेशियर में पिघलाव बढ़ा है। पारलुंग नंबर 4 ग्लेशियर एक मध्यम आकार का ग्लेशियर है, जिसे बर्फ और बारिश के पैटर्न में बदलाव को ट्रैक करने के लिए एक बेंचमार्क के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस वजह से क्षेत्र में ग्लेशियरों का सिकुड़ना जारी है।
1990 के बाद से, प्रति दशक, पारलुंग नंबर 4 में, तापमान में 0.39 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। अध्ययन के प्रमुख लेखकों में से एक, अकिल जौबर्टन कहते हैं, “यहां बर्फ कम पड़ रही है और बारिश अधिक हो रही है।” यह अध्ययन चीन और यूरोप के शोधकर्ताओं की एक टीम की तरफ से किया गया।
जौबर्टन ने द् थर्ड पोल को बताया कि 1975 और 2019 के बीच, ग्लेशियर का अगला हिस्सा, या टर्मिनस, लगभग आधा किलोमीटर पीछे खिसक चुका है। शोधकर्ताओं ने पाया कि इस अवधि के दौरान, ग्लेशियर औसतन, एक साल में 0.32 मीटर पानी के बराबर सिकुड़ गया। 2000 के बाद से, ग्लेशियर पर मानसून के दौरान हिमपात में 26 फीसदी की गिरावट आई।
ग्लेशियर मास बैलेंस, एक निश्चित समय अवधि के दौरान ग्लेशियर या बर्फ पिंड के मास में परिवर्तन है। यह उन सबका कुल योग है जो हिम, बर्फ और बर्फीली बारिश में जमा होता है। और यह पिघलने से खत्म हो जाता है।
एक ग्लेशियर का मास बैलेंस, मीटर्स वाटर इक्विवलन्ट में मापा जाता है। यह ग्लेशियर की सभी हिम और बर्फ के पिघलने से पानी की मात्रा का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी गणना ग्लेशियर के आयतन को उसके सतह क्षेत्र से विभाजित करके की जाती है।
जौबर्टन ने बताया, “इस अध्ययन में ग्लेशियर की सतह से डाटा का उपयोग किया गया। यह प्रक्रिया कई अध्ययनों द्वारा उपयोग किए जाने वाले उपग्रह डाटा सेट से अधिक सटीक है। भूतल डाटा, उस घटना के बारे में जानकारी देता है जो इन ग्लेशियरों को सिकोड़ रही है। चीन में यारलुंग सांगपो नदी और भारत में ब्रह्मपुत्र नदी पर इससे सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ने की आशंका है।”
जलविद्युत पर प्रभाव
हिंदू कुश हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियां चीन, भारत, पाकिस्तान और नेपाल सहित 10 देशों में पानी और ऊर्जा का महत्वपूर्ण स्रोत हैं। कई देश कार्बन न्यूट्रल होने की महत्वाकांक्षी योजनाओं पर काम कर रहे हैं। इन नदियों के पानी से पैदा होने वाली बिजली इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
तिब्बती पठार के ग्लेशियर्स 2,880 किमी नदी प्रणाली का प्रमुख रूप से पोषण करते हैं। यारलुंग सांगपो मूल रूप से यहां से निकलती है। यह बेहद ऊंचाई से निकलकर आगे बढ़ती है। यह अपने साथ उपजाऊ मिट्टी लेकर ब्रह्मपुत्र के रूप में भारत में और फिर जमुना के रूप में बांग्लादेश में बहती है।
चीन और भारत, एशिया में सबसे बड़े जलविद्युत उत्पादक हैं। चीन हालांकि इस मामले में भारत से बहुत आगे है। 2021 में, चीन ने जलविद्युत से लगभग 1,300 टेरावॉट घंटे बिजली का उत्पादन किया। वहीं, भारत का उत्पादन इसका दसवां हिस्सा ही रहा है।
जब जलविद्युत परियोजनाओं की बात आती है तो हाई माउंटेन एशिया में बहुत कुछ बदलने की ज़रूरत है।ली डोंगफेंग, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर
भारत और चीन दोनों देश कार्बन न्यूट्रल होने की योजना बना रहे हैं। चीन ने 2060 तक का और भारत ने 2070 तक का लक्ष्य तय किया है। यह अलग बात है कि जलविद्युत की लो-कार्बन साख पर सवाल उठते रहे हैं, इसके बावजूद दोनों देशों के नवीकरणीय ऊर्जा मिश्रण के लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण घटक है।
चीन के नेशनल डेवलपमेंट एंड रिफॉर्म कमीशन द्वारा विकसित एक मॉडल के अनुसार, कार्बन तटस्थता प्राप्त करने के लिए देश का बिजली उत्पादन 2050 तक दोगुना होकर 14,800 टेरावॉट घंटे हो जाएगा। इसमें 14 फीसदी योगदान जलविद्युत का होगा।
वहीं, भारत भी दुनिया की सबसे बड़ी पनबिजली परियोजना पर काम कर रहा है। भारत की योजना, 91 गीगावाट की संयुक्त क्षमता वाली परियोजनाओं को जोड़ने के साथ, अपनी मौजूदा 52 गीगावाट जलविद्युत क्षमता को लगभग 200 फीसदी तक बढ़ाने की है।
ऐसे में, यारलुंग सांगपो-ब्रह्मपुत्र की ऊर्जा का दोहन करना दोनों देशों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। चीन में 7.9 अरब युआन (1.2 अरब डॉलर) की लागत वाले जांगमू हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर स्टेशन का निर्माण 2010 में शुरू हुआ। 510 मेगावाट क्षमता वाला यह पावर स्टेशन 2015 में चालू हो गया।
चीन ने अपनी 12वीं पंचवर्षीय योजना (2011-2015) के तहत तीन और जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दी। इनमें दागू (640 मेगावाट), जियाछे (320 मेगावाट) और जिएक्सू (560 मेगावाट) शामिल हैं। चीन की सरकार ने 2020 में, यारलुंग सांगपो पर 60 गीगावाट जलविद्युत क्षमता निर्माण के योजना की घोषणा की।
मतभेद की वजहें
चीन द्वारा यारलुंग सांगपो के ऊपरी हिस्से को नुकसान पहुंचाने से, भारत के निचले हिस्से में प्रतिक्रिया शुरू हो गई है। भारत को डर है कि इससे उसके पूर्वोत्तर वाले राज्यों में पानी की उपलब्धता प्रभावित हो सकती है। दागू का निर्माण पूरा होने के बाद, दुनिया के सबसे ऊंचे पनबिजली स्टेशनों में से एक ज़ांगमू की अहमियत कम हो जाएगी।
भारत ने यिंगकिओंग में 10 अरब क्यूबिक मीटर पानी की भंडारण क्षमता के साथ, देश का दूसरा सबसे बड़ा बांध बनाने की योजना की घोषणा मई में की। भारत के जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने कहा कि प्रस्तावित बांध का उद्देश्य सूखे मौसम में संभावित पानी की कमी को दूर करना और मानसून के महीनों में बाढ़ को नियंत्रित करना है।
यह बांध, सिंचाई और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए ब्रह्मपुत्र नदी और उसकी सहायक नदियों पर प्रस्तावित या निर्माणाधीन 170 बांधों में से एक है। अकेले अरुणाचल प्रदेश में, 1,115 मेगावाट की क्षमता वाली जलविद्युत परियोजनाएं चालू हैं। अक्टूबर 2021 तक 2,000 मेगावाट क्षमता की परियोजनाएं निर्माणाधीन रही हैं। इन प्रस्तावित बांधों में से एक एटालिन बांध, अगर इसका निर्माण होता है, तो यह भारत में सबसे बड़ा बांध होगा।
इसका विरोध करने वालों का तर्क है कि यह बांध पारिस्थितिक रूप से नाजुक और भूकंप के लिहाज से सक्रिय क्षेत्र में बनाया जाएगा। इस बांध का विरोध करने वालों ने सरकार से इसके निर्माण को मंजूरी न देने का आग्रह किया है।
भारत और चीन दोनों ने कहा है कि रन-ऑफ-द-रिवर योजनाओं के कारण, नीचे की ओर का जल प्रवाह प्रभावित नहीं होगा।
इसमें टरबाइनों को चलाने के लिए नदी के प्रवाह को मोड़ दिया जाता है। और फिर पानी को पावर स्टेशन के दूसरी तरफ नदी में वापस छोड़ दिया जाता है। यह पारंपरिक हाइड्रोपावर से अलग है। पारंपरिक हाइड्रोपावर में या तो भंडारण नहीें होता है या बहुत सीमित (तालाबों के रूप में) होता है। जबकि इसमें विशाल जलाशय में भंडारण किया जाता है जो नीचे की तरफ नदी के बहाव को प्रभावित करता है।
हालांकि, रन-ऑफ-द-रिवर परियोजना की परिभाषा अलग-अलग है। इस तरह की परियोजना से पानी के प्रवाह में भारी अवरोध पैदा होता है। एक सुरंग के माध्यम से, नदी को मोड़ने से 10 किमी तक की दूरी तक, मूल नदी का तल लगभग सूख जाता है। इसका मतलब है कि मछलियां और अन्य जलीय जीव नदी के किनारे नहीं जा सकते।
शोधकर्ताओं द्वारा तिब्बती पठार पर ग्लेशियरों के पिघलने से भूकंप, हिमस्खलन, भूस्खलन और बाढ़ की चेतावनियां दी हैं। इसके बावजूद बांधों का निर्माण तेजी से जारी है। जलविद्युत परियोजनाओं की वल्नरबिलिटी पर जून में प्रकाशित एक अध्ययन के प्रमुख लेखकों में से एक, ली डोंगफेंग बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने पहले ही हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में लोगों के जीवन और जलविद्युत संयंत्रों पर कहर बरपाया हुआ है।
पेपर 2013 में भारतीय राज्य उत्तराखंड में आए विनाशकारी बाढ़ का हवाला देता है। इस आपदा में 6,000 से अधिक लोग मारे गए थे और कम से कम 10 जलविद्युत परियोजनाओं को नुकसान पहुंचा था। 2021 में, उसी राज्य के चमोली जिले में एक हिमस्खलन की वजह से बाढ़ आई थी। उससे दो जलविद्युत परियोजनाओं को नुकसान पहुंचा और 200 से अधिक लोग मारे गए या लापता हो गए।
ली कहते हैं, “जब पनबिजली परियोजनाओं की बात आती है, तो बढ़ते तापमान के कारण होने वाली भयावह आपदाओं से निपटने के लिए हाई माउंटेन एशिया में बहुत कुछ बदलने की जरूरत है।”
वह जलविद्युत परियोजनाओं के डिजाइन को बदलने की सिफारिश करते हैं ताकि बादल फटने और सूखे की चरम सीमा से निपटा जा सके। साथ ही, ली यह भी कहते हैं कि जंगलों और घास के मैदानों को संरक्षित किए जाने की आवश्यकता है क्योंकि ये प्राकृतिक बफर के रूप में कार्य करते हैं। ली का यह भी कहना है कि देशों के बीच सहयोग भी महत्वपूर्ण है
ग्लेशियर और क्षेत्रीय राजनीति
ब्रह्मपुत्र पर भारत और चीन के बीच सहयोग हालांकि सीमित है। चीन से हाइड्रोलॉजिकल डाटा शेयरिंग केवल मई से अक्टूबर तक मानसून की अवधि को कवर करता है। और यह भी कथित तौर पर हाइड्रोलॉजिकल स्टेशन की समस्याओं के कारण 2017 में बंद हो गया।
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बैठक से कुछ हफ्ते पहले, डेटा शेयरिंग 2018 में फिर से शुरू हुआ। नदी को लेकर दोनों देशों के बीच अविश्वास का अंदाजा 2017 में हुई एक घटना से लगाया जा सकता है, जब ब्रह्मपुत्र का पानी काला पड़ गया था और कई मछलियां और जलीय जीव मर गए थे। इस घटना के बाद भारतीय राजनेताओं की तरफ से आरोप लगाया गया कि चीन की अपस्ट्रीम की इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं द्वारा फैलाए गए प्रदूषण के कारण ऐसा हुआ है।
उपग्रह से प्राप्त चित्रों की एक श्रृंखला का उपयोग करते हुए, नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज के एक रिसर्च फेलो, चिंतन शेठ के विश्लेषण, और उस समय के एक डॉक्टरेट स्टूडेंट अनिर्बन दत्ता-रॉय, जो अब फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी में एक सीनियर प्रोग्राम मैनेजर हैं, के अध्ययन में पाया गया कि तिब्बती पठार पर भूकंप के कारण भूस्खलन हुए थे, जिससे नदी, तलछट (सेडिमेंट) से भर गई थी, जो नीचे की ओर बहती है और इस वजह से पानी काला हो गया।
इस क्षेत्र में आपदाओं की आशंका बनी हुई है, जिनको रोकने और कार्बन न्यूट्रल जैसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य कोअनामिका बरुआ, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गुवाहाटी
प्राप्त करने के लिहाज से …यह संवाद जारी रखने का समय है।
असम में स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), गुवाहाटी की एक प्रोफेसर, अनामिका बरुआ कहती हैं, “इस तरह की घटनाएं दोनों देशों की सीमाओं से होकर गुजरने वाली ब्रह्मपुत्र नदी को लेकर डाटा, अध्ययन और सहयोग की कमी को उजागर करती हैं।” वह कहती हैं, “यह दोनों देशों के शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं के बीच मौजूद विरोधाभास को भी रेखांकित करती है।”
कूटनीति और संवाद
बरुआ कहती हैं कि चीन और भारत के शोधकर्ताओं ने तिब्बती पठार पर ग्लेशियरों के पिघलने और उनके परिणामों के बारे में लगातार चेतावनी देते आ रहे हैं। इसके बावजूद ब्रह्मपुत्र नदी पर ग्लेशियरों के पिघलने के दीर्घकालिक और अल्पकालिक प्रभावों के बारे में पर्याप्त अध्ययन नहीं हैं।
वैसे तो, दोनों देशों के बीच कूटनीतिक बातचीत, गतिरोध को तोड़ने की कोशिश कर रही है, लेकिन बरुआ का यह भी कहना है कि ब्रह्मपुत्र डायलॉग एक और विकल्प है। यह भारत, चीन, बांग्लादेश और भूटान के बीच एक बहुपक्षीय पहल है। इसने 2013 से 2019 तक काम भी किया। इसमें नौकरशाहों, वैज्ञानिकों, समुदायों और गैर-लाभकारी संस्थाओं को एक साथ लाया गया था।
बरुआ कहती हैं कि यह बातचीत जारी रखने या ब्रह्मपुत्र डायलॉग 2.0 शुरू करने का समय है ताकि कार्बन न्यूट्रल बनने के एक जैसे लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद मिल सके। साथ ही, इस क्षेत्र में आपदाओं को लेकर जो आशंकाएं बनी हुई हैं, उनसे भी निपटने की तैयारी की जा सके।