भूटान, बांग्लादेश, भारत और नेपाल पिछले कुछ वर्षों से धीरे-धीरे क्रॉस-बॉर्डर यानी सीमा-पार बिजली व्यापार की दिशा में काम कर रहे हैं। इस आपसी सहयोग ने 3 अक्टूबर को एक बड़ी उपलब्धि हासिल की।
बांग्लादेश की नई सरकार ने भारतीय क्षेत्र के माध्यम से, नेपाल से 40 मेगावाट जलविद्युत आयात करने के लिए एक त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए।
नेपाल और भूटान की जलविद्युत क्षमता 100 गीगावाट से अधिक होने का अनुमान है। इस कदम से ऊर्जा सहयोग को मजबूत मिलेगी।
हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि जलविद्युत के लिए यह होड़ हिमालयी क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को नजरअंदाज करती है।
दशकों से नेपाल और भूटान के लिए एकमात्र बिजली व्यापार भागीदार भारत ही रहा है।
यह समझौता जमीन से घिरे यानी लैंडलॉक्ड देशों को पहली बार भारत से परे अपने अधिशेष, मानसून-जनित जलविद्युत, को बेचने का अवसर देता है।
भूटान में ड्रक ग्रीन पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड के प्रबंध निदेशक दाशो छेवांग रिनजिन ने 2022 में विश्व बैंक के एक वर्चुअल कार्यक्रम में इस स्थिति पर टिप्पणी की: “कई बार, हमसे अपने सभी अंडे [जलविद्युत] एक टोकरी [भारत] में रखने के बारे में पूछा जाता है, और मैं यह कहकर पलटवार करता हूं कि हमारे पास केवल एक अंडा और एक टोकरी है।”
इसका आशय यह है कि भारत ही एकमात्र बिजली खरीदार है।
उन्होंने कहा कि क्षेत्रीय बिजली व्यापार के लिए एक समझौता भूटान को अपने विकल्प में विविधता लाने में मदद करेगा।
नेपाल और भूटान से आयातित बिजली भारत के लिए, गर्मियों के दौरान मांग में भारी उछाल को पूरा करने और अपने ग्रिड स्थिरता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण रही है।
इसका एक उदाहरण 17 जून का है। उस दिन उत्तरी भारत में 15 वर्षों में सबसे भयानक गर्मी पड़ी थी। इस दिन की मांग रिकॉर्ड 89 गीगावाट की थी।
राष्ट्रीय बिजली मंत्रालय के अनुसार, भारत ने उस दिन अपनी जरूरत का 25-30 फीसदी बिजली आयात किया।
बांग्लादेश में इस साल उसकी अब तक की सबसे लंबी हीटवेव दर्ज की गई। साथ ही, पिछले पांच दशकों में सबसे अधिक तापमान भी दर्ज किया। 29 अप्रैल को, देश को 3,196 मेगावाट की बिजली की कमी का सामना करना पड़ा। उसके पास भूटान या नेपाल से बिजली आयात करने का कोई उपाय नहीं था।
नवीकरणीय जलविद्युत आयात करने से बांग्लादेश को जीवाश्म ईंधन से खुद को दूर करने में भी मदद मिल सकती है। वर्तमान में, देश की 68 फीसदी ऊर्जा प्राकृतिक गैस का उपयोग करके, 31 फीसदी कोयले और तेल का उपयोग करके पैदा की जाती है।
यह सस्ता भी हो सकता है। इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस के बांग्लादेश के प्रमुख ऊर्जा विश्लेषक शफीकुल आलम के अनुसार, देश में औसत बिजली उत्पादन लागत 2020-2021 में 0.055 डॉलर प्रति किलोवाट घंटे से बढ़कर अगले वर्ष 0.095 डॉलर हो गई। आलम कहते हैं, “हम अक्सर देखते हैं कि बांग्लादेश में औसत बिजली उत्पादन लागत से आईईएस्स [भारतीय ऊर्जा विनिमय] ऊर्जा बाजार सस्ता है।”
जलविद्युत पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
भूटान, बांग्लादेश, भारत और नेपाल के बीच ऊर्जा व्यापार में जलवायु प्रभाव एक जटिल कारक बन सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, हिमालयी क्षेत्र (भूटान और नेपाल) में 2020 और 2059 के बीच “जलवायु परिस्थितियों में बदलाव के कारण” पनबिजली उत्पादन क्षमता में 3.9-5.2 फीसदी की गिरावट आने का अनुमान है।
इसके कारणों में “प्रवाह में बढ़ते बदलाव की स्थिति, मौसमी प्रवाह में बदलाव और जलाशयों से वाष्पीकरण के कारण होने वाले नुकसान में वृद्धि” शामिल हैं। साथ ही “भारी वर्षा और उससे जुड़ी भूस्खलन जैसी आपदाएं पनबिजली परियोजनाओं के विकास में बाधा बन सकती हैं”।
इनमें से कुछ को वास्तविक समय में पहले ही देखा जा चुका है। इस साल मानसून के दौरान, नेपाल के पनबिजली क्षेत्र ने बाढ़ और भूस्खलन के कारण लगभग 2.45 अरब नेपाली रुपये (1.8 करोड़ डॉलर) की ऊर्जा उत्पादन हानि का सामना किया।
नेपाल के ऊर्जा, जल संसाधन और सिंचाई मंत्री दीपक खड़का ने कहा कि बाढ़ से हुए नुकसान के कारण लगभग 1,100 मेगावाट पनबिजली उत्पादन रुका हुआ है।
ग्लेशियरों के पिघलने का भी असर होगा। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के वरिष्ठ जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ अरुण भक्त श्रेष्ठ कहते हैं कि अल्प अवधि में यह अस्थायी रूप से जल प्रवाह को बढ़ा सकता है। इससे बिजली उत्पादन में वृद्धि हो सकती है। यह वृद्धि खासकर बेसिन के ऊपरी हिस्से में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए हो सकती है।
श्रेष्ठ कहते हैं कि इससे ग्लेशियल झील के फटने से बाढ़ (जीएलओएफ) और अचानक बाढ़ का खतरा भी बढ़ जाता है, जिससे जलविद्युत से जुड़े बुनियादी ढांचे को नुकसान हो सकता है। इनका संचालन बाधित हो सकता है। बेसिन के ऊपरी हिस्से में जलविद्युत परियोजनाएं [जलवायु] प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील होंगी, क्योंकि वहां पानी का प्रमुख स्रोत पिघला हुआ पानी है।
उनका यह भी कहा है कि वर्षा के पैटर्न में बदलाव और पूर्वानुमानित बर्फ पिघलने में कमी के कारण होने वाली मौसमी बदलाव की स्थिति संभवतः एक सुसंगत ऊर्जा स्रोत के रूप में जलविद्युत की विश्वसनीयता को कम कर देगी।
बेहतर बांध बनाना
डायलॉग अर्थ ने ध्रुब पुरकायस्थ से बातचीत की। ध्रुव एक भारतीय थिंक टैंक, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर में विकास और संस्थागत उन्नति को दिशा देने का काम करते हैं।
वह इस बात पर सहमत हैं कि जोखिम मौजूद हैं: “इस बढ़ते जलवायु जोखिम को आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) देशों द्वारा सब्सिडी दी जानी चाहिए, क्योंकि इस क्षेत्र में जलविद्युत संसाधनों का विकास किए बिना, दक्षिण एशिया में कार्बन-गहन आर्थिक विकास जारी रहने की संभावना है।”
श्रेष्ठ कहते हैं कि इस समस्या से निपटने का एक तरीका इंजीनियरिंग, गैर-इंजीनियरिंग और प्रकृति-आधारित समाधान है, जिससे जलविद्युत अवसंरचना को जलवायु के लिहाज से लचीला व अनुकूल बनाया जा सके।
उन्होंने कहा, “नई जलविद्युत परियोजनाओं में डिजाइन संशोधनों को शामिल किया जाना चाहिए, जो बाढ़ के बढ़ते जोखिमों को ध्यान में रखते हों। इनमें बांध का डिजाइन, बाढ़ नियंत्रण तंत्र, बिजलीघर विन्यास आदि शामिल हैं, ताकि चरम मौसम की घटनाओं का सामना किया जा सके।”
मई 2023 तक नेपाल में 1 मेगावाट से अधिक क्षमता की 228 जलविद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन थीं; भूटान में 10 से अधिक मेगा प्रोजेक्ट स्थापित किए जा रहे हैं। लेकिन इस बात के बहुत कम सबूत हैं कि इनमें जलवायु से लिहाज से लचीली नीतियों को शामिल किया जा रहा है।
वास्तव में, नेपाल के जलविद्युत उछाल ने पर्यावरणीय मुद्दों, जैसे जैव विविधता पर बांधों के प्रभाव को काफी हद तक नजरअंदाज किया है।
यह हालात और भी जटिल हैं। इसकी वजह निवेशकों का एक छोटा सा समूह ही होना है। न तो चीन और न ही विकसित देश, नेपाल या भूटान में जलविद्युत में निवेश कर रहे हैं।
नेपाल और चीन के बीच कोई मौजूदा बिजली ट्रांसमिशन लाइन भी नहीं है। हालांकि संभावना है कि यह बदल सकता है क्योंकि चीन और नेपाल जलविद्युत व्यापार के बारे में बात करना जारी रखे हुए हैं।
विलियम एंड मैरी ग्लोबल रिसर्च इंस्टीट्यूटस लैब, ऐडडाटा में सहायक शोध प्रोफेसर नारायणी श्रीथरन कहती हैं, “नेपाल के बाजार से भारत, चीन को बाहर कर रहा है।”
विकसित देशों के लिए कारण अलग हैं। कई देश सक्रिय रूप से पुराने जलविद्युत बुनियादी ढांचे को नष्ट कर रहे हैं क्योंकि इनको बांधों के सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों के कारण प्रतिकूल माना जाता है।
श्रीथरन कहती हैं, “अमेरिका और पश्चिमी डोनर जलविद्युत विकास में निवेश करने में कम रुचि रखते हैं क्योंकि वे पर्यावरण और स्थानीय समुदायों के लिए सुरक्षित नहीं हैं।” “हालांकि, वे भारत और चीन के बीच जलविद्युत को लेकर झगड़े पर कड़ी नजर रख रहे हैं।”