हबीदुल इस्लाम की योजना है कि वह फिर कभी उस जगह से दूर न जाएं, जहां वह बड़े हुए। वह असम के रूपाकुची गांव से हैं। हबीदुल, ब्रह्मपुत्र की एक सहायक नदी, चौलखोवा के किनारे अस्थायी टिन शेड में पैदा हुए थे। यह असम के चार-चपोरी के केंद्र में है: ब्रह्मपुत्र का एक खंड है, तैरते द्वीप और निचले इलाके, बाढ़-प्रवण नदी किनारे इसकी पहचान हैं। पूर्वोत्तर भारतीय यह राज्य, जलवायु से संबंधित आपदाओं, विशेष रूप से बाढ़ की चपेट में रहता है, जो जीवन को बर्बाद कर देता है और पलायन को गति प्रदान करता है। लेकिन मौसमी बाढ़ के प्रकोप से हमेशा के लिए बचने के बजाय, अपने मूल निवास स्थान पर ही कुछ अच्छा करने के उद्देश्य से हबीदुल 2020 में लौट आए।
हबीदुल ने घर लौटने की योजना नहीं बनाई थी, लेकिन जब भारत ने कोविड-19 महामारी को देखते हुए दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन को लागू किया तो उनके पास कोई विकल्प नहीं था। उस समय, वह पड़ोसी राज्य मेघालय में 167 किलोमीटर दूर कार मैकेनिक के रूप में काम कर रहे थे। वह हर महीने 15,000 रुपये कमा रहे थे। गांव में अपने परिवार के लिए इसमें से बचत भी कर रहे थे।
जुलाई 2020 में, भारत सरकार द्वारा देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के तीन महीने बाद, हबीदुल को मेघालय में मैकेनिक की दुकान से निकाल दिया गया था। घर वापस आकर उन्होंने फैसला किया कि केवल जीवित रहने भर का कमाने की जगह कुछ और प्रयास करने होंगे। फिर उन्होंने यूट्यूब पर मछली पालन से जुड़े वीडियो देखने शुरू किये। इस पर शोध करने में घंटों बिताए और बायोफ्लॉक में रुचि रखने लगे।
बायोफ्लॉक, मछली पालन की एक विधि है जो 1990 के दशक में विकसित हुई। इसमें जलीय जंतुओं और सूक्ष्मजीवी प्रजातियों की सहजीविता होती है। जीवाणु वृद्धि (फ्लॉक) मछली के अपशिष्ट को खा जाती है और बदले में यह मछली द्वारा खा ली जाती है। संतुलन बनाए रखने के लिए निरंतर प्रबंधन की आवश्यकता होती है।
उन्होंने वायु-संचारण प्रणाली के साथ नौ मीटर लंबा एक कंक्रीट टैंक बनाया। फिर सूक्ष्मजीवों और कार्प, टाइलैपिया व कैटफिश को इसमें डाला। इसके बाद मछलियों के तैयार होने का इंतजार किया।
तीन से चार महीने के बाद, उन्होंने 500-600 किलोग्राम मछली एक लाख रुपये में बेची। वह कहते हैं, “फ़ीड और मछली के खर्च को निकालकर मुझे 60,000 रुपये का लाभ हुआ। मानसून की बाढ़ के दौरान भी मछली पालन का काम जारी रहता है। लागत 30,000-40,000 रुपये तक रही, जिससे मुनाफे में कटौती हुई, लेकिन चूंकि कुछ लागत एकमुश्त वाली थी, इसलिए हमें पूरा भरोसा है कि समय बीतने के साथ मुनाफा बढ़ेगा।“
जब कुछ महीने बाद लॉकडाउन में ढील दी गई, तो उन्हें एक मैकेनिक के रूप में काम मिला, जिसकी रोजाना की कमाई 2,000 से 5,000 रुपये थी।
फिर से पलायन इच्छा नहीं
यह पूछे जाने पर कि क्या बाढ़ उन्हें पलायन करने के लिए प्रेरित कर सकती है, इस पर हबीदुल कहते हैं, “यहां तक कि अगर मैं किसी शहर में बस जाता हूं, तो भी मैं खुद को उच्च वेतन अर्जित करते नहीं देखता। जबकि घर पर, मेरे मछली पालन व्यवसाय के शुरू होने के बाद आज आय की संभावनाएं अधिक दिखती हैं।”
बाढ़ पर चिंता व्यक्त करते हुए वह कहते हैं कि 30 से अधिक वर्षों के बाद यह आदत हो गई है। चौलखोवा नदी के तेज बहाव के कारण गांव को कटाव का सामना करना पड़ता है लेकिन उन्होंने अपनी टिन-शीट झोपड़ियों को और अधिक ऊंचाई तक बढ़ा दिया है।
यदि गर्मियों के दौरान पानी का स्तर अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाता है, तो अतिरिक्त टिन शीट्स, तिरपाल और बुनियादी सामान रेतीली ऊंची सड़क पर ले जाया जाता है, जहां बाढ़ का पानी कभी नहीं बढ़ा। वह कहते हैं, ”मुझे अपने गांव और यहां के माहौल से प्यार है, जो बाहर कहीं मिलना मुश्किल है।”
हबीदुल के गांव में कई लोग प्रवास के प्रति अपना दृष्टिकोण साझा करते हैं। कई परिवारों ने द् थर्ड पोल से फरवरी 2020 में कहा कि वे शहरों में जाकर बसने और भोजन पर अतिरिक्त रकम खर्च करने की जगह नदी के गाद द्वारा पोषित खेतों में उगाए गए भोजन को खाएंगे। बिना खेत वाले लोग, सब्जी बेचने, मछली पालन करने, पोल्ट्री फॉर्म खोलने जैसे अन्य उपक्रमों पर विचार कर रहे हैं। ये लोग दूसरों के लिए काम करने के विकल्प को नहीं अपनाना चाहते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, रूपाकुची में 358 परिवार रहते थे। यहां के लोगों ने द् थर्ड पोल के साथ बातचीत में इस बात से इनकार नहीं किया कि बाढ़ के कारण लोगों के दिमाग में प्रवास की बात है, लेकिन अधिकांश लोग गांव नहीं छोड़ना नहीं चाहते हैं।
इसी गांव के निवासी रकीबुल इस्लाम कहते हैं, “कुछ लोगों को डर हो सकता है कि नदी उनके जीवन को खत्म कर देगी और वे शहरों में बेहतर जीवन के लिए अपनी जमीनें बेचने के लिए सोच सकते हैं। लेकिन यह संख्या बहुत कम, मसलन 10 परिवारों में से एक की ही हो सकती है।”
भारत में इस प्रकार का आंकड़ा मौजूद नहीं है कितने लोग जलवायु परिवर्तन से संबंधित व्यवधानों और आपदाओं की स्थिति में भी प्रवास नहीं चुनते हैं। लेकिन जो आंकड़े मौजूद हैं उससे पता चलता है कि यहां तक कि बार-बार आने वाली कठिनाई के बावजूद लोग प्रवास का विकल्प नहीं चुनना चाहते हैं। तटीय बांग्लादेशी घरों के 2021 के एक अध्ययन में पाया गया कि 88 फीसदी ने “जलवायु के खतरे वाले क्षेत्रों” में रहने के बावजूद प्रवास नहीं चुना। इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन और सेंटर फॉर रिसर्च ऑन द् एपिडेमियोलॉजी ऑफ डिजास्टर्स के आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक स्तर पर, 2008 और 2016 के बीच, प्राकृतिक आपदाओं से खतरे में पड़े लगभग 85 फीसदी लोगों ने पलायन नहीं किया। (इनमें वे लोग भी शामिल हैं जिनके पास प्रवास करने के साधन नहीं हैं और साथ ही वे भी शामिल हैं जिन्होंने इसे नहीं चुना)
जर्मनी के टीयू ड्रेसडेन यूनिवर्सिटी में चेयर ऑफ एनवायरनमेंटल डेवलपमेंट एंड रिस्क मैनेजमेंट के एक शोधकर्ता बिश्वजीत मल्लिक कहते हैं कि आपदा प्रभावित क्षेत्रों में लोगों के लिए प्रवास कोई मजबूरी नहीं है। मल्लिक कहते हैं, “अगर जलवायु संबंधी आपदाओं की स्थिति में, वे अपनी आजीविका रणनीतियों में विविधता लाने और अपनी भलाई सुनिश्चित करने में कामयाब रहे हैं, तो वे लंबे समय तक स्वैच्छिक गैर-प्रवासी होंगे।” किसी आपदा के मद्देनजर प्रवास न करने वालों को वह दो समूहों में विभाजित करते हैं। ये समूह उनकी व्यक्तिगत आकांक्षाओं पर है: स्वैच्छिक और गैर-स्वैच्छिक। यदि उनके पास प्रवास करने के लिए संसाधन हैं, लेकिन उनका इरादा नहीं है, तो वे पहली श्रेणी में आते हैं। यदि वे प्रवास करने की इच्छा रखते हैं लेकिन ऐसा करने के लिए साधनों (संसाधनों और सामाजिक नेटवर्क) की कमी है, तो वे “फंसे हैं” या “अनैच्छिक” प्रवास न करने वाले लोग हैं।
मल्लिक का अनुमान है कि स्वेच्छा से प्रवास न करने वालों की तुलना में अनिच्छा से प्रवास न करने वालों की वैश्विक संख्या बहुत कम है। उनका कहना है कि कोरोना महामारी ने प्रवास संबंधी निर्णयों में बदलाव के लिए प्रेरित किया है। इससे लोगों को अपने मूल निवास स्थान पर रहते हुए अपनी आय में विविधता लाने के लिए प्रोत्साहन मिल रहा है।
लोग जलवायु आपदाओं का सामना क्यों करते हैं?
जब हबीदुल के पड़ोसी, सोइदुल इस्लाम ने दिसंबर, 2020 में दिल्ली में एक सूचना प्रौद्योगिकी पाठ्यक्रम पूरा किया, तो उन्हें 10,000-15,000 रुपये के मासिक वेतन के साथ एक सॉफ्टवेयर प्रशिक्षु के रूप में नौकरी की पेशकश की गई। अपेक्षित करियर का रास्ता चुनने की जगह उन्होंने लॉकडाउन के दौरान दो बार नौकरी बदलने के बाद, असम लौटने और थोक पोल्ट्री व्यवसाय शुरू करने का विकल्प चुना। वह भूटान और पड़ोसी भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल में उत्पादकों से मुर्गियां खरीदते हैं और उन्हें स्थानीय खरीदारों को बेचते हैं।
फरवरी 2022 में द् थर्ड पोल ने सोइदुल के साथ बात की। यह बातचीत उनके व्यवसाय शुरू करने के कुछ ही हफ्ते बाद हुई। उन्होंने बताया कि वह पहले से ही एक दिन में 1,000-1,500 रुपये कमा रहे हैं। वह अपने गांव के बाहर खरीदारों के साथ बातचीत कर रहे हैं। उनको कमाई में अच्छी वृद्धि का भरोसा है। वह दूर-दराज के शहरों में नौकरी करने वाले ग्रामीणों से कहते हैं कि वहां कभी भी स्थायी रूप से न बसें। उनका कहना है कि बाढ़ उनके लिए चिंता का विषय नहीं है या भविष्य में पलायन के लिए संभावित कारण नहीं है क्योंकि वह नदी के किनारे बड़े हुए हैं और अपनी प्रवृत्ति पर भरोसा करते हैं।
वह बताते हैं कि उनके घर के सामने की सड़क को ऊंचा किया गया है इससे घरों में पानी के घुसने की आशंका कम हो गई है। वह नदी के गाद से समृद्ध एक खेत का मालिक हैं, जो उनकी जरूरत का तकरीबन 75 फीसदी अनाज उपजा देता है। अगर वह अपने गांव को छोड़कर कहीं और काम करते हैं तो वहां यह खर्च उन्हें वहन करना होगा।
जापान के कीयो यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएट स्कूल ऑफ मीडिया एंड गवर्नेंस के प्रोफेसर और जलवायु अनुकूलन और आपदा जोखिम प्रबंधन के विशेषज्ञ राजीव शॉ के अनुसार, स्वेच्छा से प्रवास न चुनने के प्रमुख कारणों में से एक स्थानीय संसाधनों पर निर्भर होने में सक्षम होना है। प्रवास न करने का सचेत विकल्प के कारण स्थानांतरित करने के लिए स्थानों की कमी, किसी क्षेत्र के लिए पुश्तैनी लगाव, सकारात्मक आजीविका विकल्प और सामुदायिक सामंजस्य भी हो सकते हैं।
शॉ कहते हैं, “प्रवास न करने का विकल्प एक जोखिम-सूचित विकल्प है। यदि व्यक्ति या समुदाय एक उच्च जोखिम वाले क्षेत्र में रहने का फैसला करता है [और वे] मौजूदा जोखिम से अच्छी तरह वाकिफ हैं, और उनके पास इसके लिए कोई योजना है, तो यह ठीक ही होना चाहिए।”
महिलाओं के बने रहने की सबसे अधिक संभावना
हबीदुल की पत्नी इनवारा खातून एक कारीगर हैं। वह साड़ी, स्टोल, कपड़े और बैग इत्यादि की सजावट का काम करती हैं। वह हर महीने 3,000-4,000 रुपये कमाती हैं, जिसका इस्तेमाल वह अपनी बेटी की शिक्षा के लिए करती हैं।
सामाजिक संबंध और नेटवर्क, इनवारा को बाढ़ और महामारी जैसी घटनाओं से उत्पन्न वित्तीय कठिनाई और भावनात्मक संकट से लड़ने में मदद करते हैं। प्रवास का मतलब उसे खोना होगा। वह कहती हैं, “गांवों में, हम बाढ़ के दौरान भी सहयोग करते हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कोई भूखा न रहे। उदाहरण के लिए, एक किसान परिवार अपनी उपज का एक हिस्सा हमें आवंटित करता है। अगर किसी परिवार को पैसे की जरूरत है, तो हमारे पड़ोसी हमें बिना सोचे-समझे कर्ज दे देते हैं, ऐसा अक्सर होता है जब कोई बीमार पड़ता है। ”
इनवारा कहती हैं कि उन्हें यह समुदाय शहर में नहीं मिलेगा। सोइदुल इस्लाम की तरह उनका भी मानना है कि परिवार के भोजन की खपत के कारण शहर में उनकी कमाई से कोई बचत नहीं होगी। तटीय बांग्लादेश पर 2021 का शोध पत्र प्रवास न करने के निर्णयों में प्रमुख कारकों के रूप में लैंगिक और अंतर-घरेलू संरचनाओं का हवाला देता है।
इसके प्रमुख लेखक राजीव शॉ द् थर्ड पोल को बताते हैं कि असुरक्षा की भावना, पारिवारिक लगाव, बुनियादी शिक्षा और शहरी क्षेत्रों में आवश्यक कौशल की कमी जैसे कारकों का एक संयोजन महिलाओं के प्रवास न करने के निर्णय में योगदान देता है। माइक्रो-क्रेडिट और माइक्रो-फाइनेंस सहित एक बेहतर सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान और इंटरनेट तक पहुंच उनके सशक्तिकरण की कुंजी है।
स्वेच्छा से प्रवास न करने वालों की जरूरत है जलवायु अनुकूलन
दिल्ली स्थित थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) द्वारा 2021 के एक अध्ययन में असम को उन पांच राज्यों में से एक के रूप में स्थान दिया गया जो बाढ़ और सूखे जैसी चरम जलवायु घटनाओं के लिए अत्यधिक संवेदनशील हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में बाढ़ के प्रति उच्च संवेदनशीलता के कारण अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की तुलना में कम अनुकूलन क्षमता है।
इसके बावजूद, जलवायु परिवर्तन से प्रेरित समस्याओं के कई पीड़ित दुनिया भर में आपदाओं पर ध्यान केंद्रित करने वाले प्रवास संबंधी सिद्धांतों या अध्ययनों में छूट जाते हैं।
मल्लिक बताते हैं कि द् इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर का अनुमान है कि 5.5 करोड़ विस्थापितों में से 70 लाख लोगों को 31 दिसंबर 2020 तक आपदाओं के परिणामस्वरूप पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। आईडीएमसी का अध्ययन यह रिकॉर्ड करने में विफल रहता है कि उनमें से कितने विस्थापित लौट आए हैं। इससे प्रवासन का वास्तविक प्रभाव अस्पष्ट रहता है। साथ ही, उन कदमों की अनदेखी होती है जो उन लोगों की मदद करने के लिए उठाए जा सकते हैं जो आपदाओं के कारण पलायन कर चुके हैं या अधिक लोचशील बन गए हैं।
मल्लिक, स्वेच्छा से प्रवास न करने वालों के लिए प्रवासियों के समान प्राथमिकता के साथ व्यवहार करने और भविष्य में अनुकूलन पहल में शामिल होने का आग्रह करते हैं। उनका यह भी कहना है कि नागरिक समाज संगठनों और सरकार को बेहतर जीवन स्तर प्रदान करने व आपदाओं के बाद अपने मूल स्थान पर रहने वाले लोगों के लिए आय रणनीतियों में विविधता लाने पर ध्यान देना चाहिए।