मोहन नेगी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि उत्तराखंड के चमोली जिले में सांस की समस्या आम होती जा रही है। ईरानी गांव की जिला ग्राम समिति के अध्यक्ष नेगी कहते हैं, “हमारे गांव ईरानी में कम से कम 50 फीसदी बुजुर्ग सांस की समस्या से पीड़ित हैं। अब छोटे बच्चों में भी अस्थमा के मामले सामने आ रहे हैं।” वह कहते हैं कि “इतिहास में पहली बार” सर्दियों में जंगलों की आग की घटना के साथ पिछले दो वर्षों में हालात और भी बदतर हो गये हैं।
महज चार वर्षों में, जंगलों की आग से उत्तराखंड में तीन गुना से भी अधिक की क्षति हुई है। 2017 में, इस उत्तर भारतीय राज्य में 1,244 हेक्टेयर जंगल जल गये थे। पिछले साल यह आंकड़ा 3,927 हेक्टेयर तक पहुंच गया। इस साल 3,152 हेक्टेयर भूमि अब तक जल चुकी है। 18 मई तक, 6,153 पेड़ खत्म हो चुके हैं। इन घटनाओं में एक व्यक्ति की मौत हुई है जबकि छह लोग घायल हुए हैं। भले ही इस साल मानसून जल्दी आ जाए, लेकिन पिछले किसी भी साल की तुलना में अधिक तबाही की आशंका है।
उत्तराखंड में जंगल की आग के कारण स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव से संबंधित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि स्टेट डिपार्टमेंट अलग से जानकारी को वर्गीकृत नहीं करता है। लेकिन क्षेत्र के स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि सांस संबंधी दिक्कतों के हालात में कई गुना वृद्धि हुई है।
राज्य की राजधानी देहरादून के सरकारी दून मेडिकल कॉलेज में रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर और प्रमुख अनुराग अग्रवाल ने द् थर्ड पोल से पुष्टि की है कि मरीजों की संख्या बढ़ रही है।
वह कहते हैं, “सीने में दर्द, सूखी खांसी और यहां तक कि तपेदिक के मामलों में भी तेज वृद्धि हुई है। पहले हमें सर्दियों में अधिक मरीज मिलते थे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह पूरे साल ही मरीज आते रहते हैं। मेरा मानना है कि आग और औद्योगीकरण की वजह से बढ़ने वाला प्रदूषण इसके पीछे एक बड़ा कारण है।”
उत्तराखंड की स्थिति होती जा रही है गंभीर
हिमालय में मार्च के अंत से 12 सप्ताह की सूखे मौसम की अवधि होती है, जिसे मानसून-पूर्व गर्मी भी कहा जाता है। इस अवधि के दौरान, बढ़ते तापमान की वजह से पत्तियां और लकड़ियां सूख जाती है। यह स्थिति जंगलों को एक ऐसी खतरनाक जगह में बदल देती है जहां आग लगने के लिए केवल एक छोटी सी चिंगारी की आवश्यकता होती है।
इस साल, भारत और पाकिस्तान में सामान्य से पहले भीषण गर्मी का मौसम शुरू हो गया। प्रचंड लू चल रही है जिसका मतलब है कि इस मौसम का समय भी लंबा हो गया है। इसका मतलब यह है कि जंगलों को लंबे समय तक सूखना पड़ा है, जिससे जंगल में आग का खतरा बढ़ गया है।
हिमालयी राज्यों में जंगल की आग की आवृत्ति और गंभीरता, हाल के वर्षों में रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई है।
उत्तराखंड विशेष रूप से इस समस्या की चपेट में है। राज्य का लगभग 45 फीसदी भाग वनों से ढका हुआ है और यह हिमालय के दक्षिणी ढलान पर स्थित है, जहां इस राज्य को बड़ी मात्रा में सूर्य का प्रकाश प्राप्त होता है, जिससे अधिक ताप होता है। लेकिन उत्तराखंड को अपने प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन, पर्यटन और इसके जंगलों की बनावट में बदलाव का भी सामना करना पड़ा है।
ईरानी गांव के अध्यक्ष नेगी, कम समय के भीतर जंगलों में आग लगने की घटनाओं की तेज वृद्धि को लेकर चिंतित हैं। वह कहते हैं, “लोग चोट या मौत के डर से अपने खेतों में नहीं जा सकते या जानवरों को चराने के लिए नहीं ले जा सकते हैं।”
नेगी बताते हैं कि इससे ग्रामीणों को भारी आर्थिक नुकसान हुआ है। कई लोगों को अपने गेहूं के खेतों को छोड़ना पड़ा है, जो अप्रैल में मुख्य फसल है। परिवारों के पास खुद का भरण-पोषण करने के लिए एक से तीन नाली के बीच (एक नाली लगभग 200 वर्ग मीटर होती है) पर्याप्त भूमि होती है। अगर फसल में आग लग जाती है, तो सरकार की ओर से मुआवजा, एक डॉलर प्रति नाली से भी कम होता है, जो इस नुकसान के बदले में भोजन खरीदने के लिहाज से अपर्याप्त है।
नेगी कहते हैं, “हमने जिला प्रशासन को कई पत्र लिखे हैं, लेकिन कुछ होने के बाद ही वे कार्रवाई करते हैं।”
पिछले दो दशकों में जंगल की आग में क्या बदल गया है?
2002 और 2021 के बीच, उत्तराखंड ने 17,900 हेक्टेयर वृक्षों के क्षेत्र खो दिये। अकेले 2021 में, राज्य ने 820 हेक्टेयर प्राकृतिक वन खो दिये, जो 428 किलोटन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के बराबर है।
उत्तराखंड के पूर्व वरिष्ठ वन अधिकारी एसटीएस लेपचा का कहना है कि राज्य के जंगलों की तबाही ने आग की ऐसी घटनाओं को बढ़ा दिया है। लेप्चा बताते हैं, “ऐसी भूमि जिनका कोई उपयोग नहीं है, उन पर देवदार के पेड़ों का एक तरह से कब्जा हो गया है, जो आग और सूखे के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। पेड़ का तना आग का सामना कर सकता है और देवदार, जिसमें राल होता है, प्रज्वलन के संपर्क में आते ही डीजल की तरह जल जाता है। इस प्रकार, एक छोटी सी चिंगारी पूरे जंगल को जला सकती है”।
वह एक सामाजिक आयाम की बात करते हुए कहते हैं कि गांव निर्जन होते जा रहे हैं। इसका मतलब साफ है कि आग की सूचना जल्दी नहीं मिल पाती है।
उत्तराखंड के वन एवं आपदा प्रबंधन के मुख्य संरक्षक निशांत वर्मा ने द् थर्ड पोल को बताया कि आग पर काबू पाने के लिए हर संभव कदम उठाए जा रहे हैं। उनका कहना है कि आग का मौसम शुरू होने से पहले उनके विभाग ने नियंत्रण संबंधी उपायों के साथ-साथ लोगों को प्रशिक्षण भी दिया। उनका कहना है कि इससे ग्रामीणों को सहयोग मिला और त्वरित प्रतिक्रिया की दिशा में आगे बढ़ा जा सका।
वह कहते हैं, “हमारे पास सोशल मीडिया ग्रुप्स और क्रू स्टेशन हैं और ग्रामीणों को इन 3-4 महीनों के लिए आग की घटनाओं पर नजर रखने के रूप में तैनात किया गया है। ये सभी वास्तविक समय की जानकारी साझा करने का प्रयास करते हैं। जैसे ही हमें किसी घटना के बारे में जानकारी प्राप्त होती है, टीम इसे ठीक करने के लिए हर संभव प्रयास करती है।”
हालांकि, विशेषज्ञों ने द् थर्ड पोल को बताया कि आग की घटनाओं में वृद्धि सिर्फ जलवायु परिवर्तन का मुद्दा नहीं, बल्कि प्रबंधन का मुद्दा है।
लेप्चा जोर देकर कहते हैं, “परिपक्व देवदार के जंगलों में आग बुझाने की कोशिश में समय बिताने का कोई मतलब नहीं है। इसके बजाय, सारा ध्यान पुनरुत्पादक क्षेत्रों को बचाने पर केंद्रित होना चाहिए।”
देहरादून के एक सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद् अनूप नौटियाल कहते हैं, “एक ऐसे वक्त में जब दुनिया जलवायु-चुनौती का सामना कर रही है और हमारा राज्य उत्तराखंड पारिस्थितिकी के लिहाज से नाजुक है, ऐसे में एकमात्र उम्मीद की किरण यह है कि कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है। जब जंगल की आग और अन्य प्राकृतिक आपदाओं की बात आती है, तो हमारे पास बहुत सारा इतिहास होता है। इनका उपयोग प्रभाव को कम करने के लिए, हमारे लाभ के लिए किया जाना चाहिए।”
उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के भूविज्ञानी और पर्यावरण वैज्ञानिक एसपी सती कहते हैं, एक अन्य कारक दूरदराज के इलाकों में लोगों की साल भर की आवाजाही है।
2000 में, जब राज्य का गठन हुआ था, तब यहां केवल 8,000 किलोमीटर सड़क थी, लेकिन पिछले 21 वर्षों में यह बढ़कर 45,000 किलोमीटर से अधिक हो गई है। जैसे-जैसे अधिक लोग दूर-दराज के इलाकों तक पहुंचने में सक्षम होते हैं, मानव द्वारा शुरू की जाने वाली आग की आशंका बढ़ जाती है।
सती का कहना है कि राज्य के वन विभाग को वार्षिक जंगल की आग को कम करने की योजना को लागू करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। इस मुद्दे से निपटने के लिए जनशक्ति, संसाधनों और नागरिक जुड़ाव की आवश्यकता होती है, क्योंकि हिमालय में कई स्थानों पर दमकल की पहुंच नहीं है।
वह दो गांवों, शीतलाखेत और स्याही देवी का उदाहरण देते हैं, जहां स्थानीय लोगों ने जंगल में आग लगने से रोकने के लिए काम किया है।
एक दुष्चक्र का हिस्सा
जंगल की आग का पर्यावरणीय प्रभाव, वैश्विक तापन में उसकी भूमिका के अलावा कई अन्य मामलों में भी अधिक गंभीर है। जब जंगल जलते हैं, तो वे पार्टिकुलेट मैटर छोड़ते हैं।
भूविज्ञानी और पर्यावरण वैज्ञानिक एसपी सती बताते हैं कि हवा में पार्टिकुलेट मैटर या एरोसोल बढ़ने से बारिश की बूंदों के आकार में वृद्धि होती है – जिससे बादल फटते हैं। वह कहते हैं, “जितना अधिक पार्टिकुलेट मैटर होता है, बारिश की गड़बड़ी की संभावना उतनी ही अधिक होती है, जिससे बादल फटते हैं, जिससे राज्य प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है।”
वह कहते हैं कि बादलों में पार्टिकुलेट मैटर की उपस्थिति काफी लंबे समय तक शुष्क काल को बढ़ाती हैं। इस प्रकार हीटवेव और जंगल की आग का एक दुष्चक्र पैदा होता है।
अध्ययनों में इस बात की पुष्टि हुई है कि पार्टिकुलेट मैटर, ग्लेशियर के पिघलने के प्रमुख कारणों में से एक है। सती बताते हैं, “आग से जले हुए कार्बन के टुकड़े, जिन्हें ब्लैक कार्बन भी कहा जाता है, ग्लेशियरों की ओर उड़ते हैं, जिससे एक काला आवरण बन जाता है। जैसा कि हम जानते हैं कि काला, अधिक गर्मी को अवशोषित करता है, यही एक कारण है कि ग्लेशियर उच्च दर से पिघल रहे हैं।”
सर्दियों की आग एक विशेष चुनौती पेश करती है। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में गर्मियों के दौरान आग पर काबू पाना मुश्किल हो जाता है लेकिन सर्दियों के दौरान बर्फ और शून्य से नीचे के तापमान के कारण आग दुर्गम हो जाती है। चूंकि जंगल की आग साल भर चलने वाली घटना बन गई है, इसलिए राज्य ने रोकथाम और शमन दोनों के मामले में अपना काम तकरीबन खत्म कर दिया है।