वायु प्रदूषण के कारण भारत में साल 2019 में दस लाख से अधिक लोगों की अकाल मौत हुई। उसी साल सरकार ने नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम यानी राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) शुरू किया। तीन साल बाद, यह साफ़ हो चुका है कि एनसीएपी बिल्कुल कारगर साबित नहीं हुई और भारत, दुनिया के पांच सबसे ज्यादा प्रदूषित देशों में शामिल है। अब वैज्ञानिक देश की ज़हरीली हवा से निपटने के लिए एक अलग उपाय की तलाश कर रहे हैं। ये उपाय इस मान्यता पर आधारित है कि प्रदूषण, राष्ट्रीय और राज्य की सीमाओं को नहीं देखता। यानी सीमाओं से परे सोचने की ज़रूरत है।
एनसीएपी को शहरों में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए ख़ास तौर से 2017 के स्तर से पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5) प्रदूषण को 2024 तक 20 से 30 फीसदी तक कम करने के लिए तैयार किया गया था। ये प्लान सिर्फ़ शहरी क्षेत्रों पर ध्यान देता है इसलिए इसकी कुछ चुनौतियाँ है।
पार्टिकुलेट मैटर यानी पीएम 2.5 का संदर्भ ऐसे बेहद सूक्ष्म कणों से है जिनका व्यास 2.5 माइक्रोमीटर है और जो बेहद आसानी से सांस के साथ शरीर के अंदर प्रवेश कर जाते हैं। ये कण सॉलिड और एरोसोल रसायनों का मिश्रण होते हैं, जो ज्यादातर पेट्रोल, डीज़ल, तेल या लकड़ी जैसे ईंधन को जलाने से उत्पन्न होते हैं।
पीएम 2.5 प्रदूषक मनुष्य के बाल के व्यास से बहुत छोटे होते हैं। इसलिए ये फेफड़ों में गहराई तक प्रवेश कर सकते हैं और लोगों के स्वास्थ्य के नुकसान का कारण बनते हैं।
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) कानपुर में सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर और एनसीएपी संचालन समिति के सदस्य एसएन त्रिपाठी बताते हैं, “वायु प्रदूषण, भू-राजनीतिक सीमाओं तक ही सीमित नहीं है।” दक्षिण एशिया के भूगोल और मौसम के पैटर्न का मतलब है कि प्रदूषक लंबी दूरी की यात्रा कर सकते हैं: 2020 में 22 क्षेत्रों के एक अध्ययन से पता चला है कि 46 फीसदी वायु प्रदूषण (जनसंख्या वितरण के लिए समायोजित) दूसरे भारतीय राज्य से उत्पन्न होते हैं।
नई दिल्ली स्थित एक थिंक टैंक, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की कार्यक्रम अधिकारी, कल्याणी तेम्बे कहती हैं, “वायु प्रदूषण के किसी भी सीमा को पार करके फैल जाने के कारण, छोटे शहर, जहां प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग नहीं हैं, बड़े शहरों से आने वाले प्रदूषण के उच्च स्तर का सामना करते हैं।”
त्रिपाठी इस पर सहमति के साथ कहते हैं, “वायु प्रदूषण, मौसम विज्ञान, स्थलाकृति और भूमि उपयोग पैटर्न पर निर्भर करता है।”
इस वजह से, संकट से निपटने के लिए, भारतीय राज्य, नए तरीके तलाश रहे हैं। कई एयरशेड प्रबंधन को अपनाने की योजना बना रहे हैं। विश्व बैंक, एक एयरशेड को एक जैसे भौगोलिक क्षेत्र के रूप में परिभाषित करता है जहां प्रदूषक फंस जाते हैं, जिससे सभी के लिए समान वायु गुणवत्ता पैदा होती है।
त्रिपाठी कहते हैं, “हम पुनर्गठित कर सकते हैं … प्राकृतिक प्रक्रियाएं जो हवा को नियंत्रित करती हैं, और एयरशेड की पहचान करती हैं।”
इस अवधारणा को 2019 के एक अध्ययन द्वारा प्रदर्शित किया गया है जिसमें पाया गया है कि दिल्ली में जनसंख्या-भारित पीएम 2.5 का लगभग आधा, क्षेत्र के बाहर से आता है, जिसमें से 50% हरियाणा और उत्तर प्रदेश से है। पंजाब में, पीएम 2.5 का लगभग 60% राज्य के भीतर उत्पन्न नहीं होता है, इसमें लगभग आधा भारत के बाहर से और आधा अन्य भारतीय राज्यों से आता है। उत्तर प्रदेश में, पीएम 2.5 का केवल आधा राज्य के भीतर उत्पन्न होता है।
आईआईटी दिल्ली में सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंसेज के प्रोफेसर साग्निक डे ने पीएम 2.5 के उपग्रह डेटा के आधार पर भारत को प्रभावित करने वाले प्रमुख क्षेत्रीय एयरशेड की पहचान की है।
वह कहते हैं, “पूरा आईडिया यह है कि, एक एयरशेड के भीतर, मौसम से मौसम तक हवा की क्वालिटी के समग्र पैटर्न लंबी अवधि में समान होते हैं। भारत में 9 से 11 एयरशेड हैं। इनमें से कुछ, जैसे सिंधु-गंगा का मैदान एयरशेड, जिसके भीतर दो या दो से अधिक क्षेत्रीय एयरशेड हैं, बहुत विशाल हैं।”सिंधु-गंगा का मैदान राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, बिहार और पश्चिम बंगाल राज्यों को कवर करता है, और नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान तक फैला हुआ है।
भारत में एयरशेड प्रबंधन कैसे काम करेगा?
एयरशेड का विचार नया नहीं है। ब्रिटिश कोलंबिया कनाडा प्रांत और अमेरिका में कैलिफोर्निया दोनों ने वायु प्रदूषण से निपटने के लिए एक एयरशेड दृष्टिकोण का उपयोग किया है। 1967 के वायु गुणवत्ता अधिनियम ने कैलिफोर्निया को समान भौगोलिक, स्थलाकृतिक और मौसम संबंधी स्थितियों वाले 35 ज़िलों में विभाजित किया, जहां प्रदूषण को कैलिफोर्निया वायु संसाधन बोर्ड द्वारा नियंत्रित किया जाता है। 2019 तक, इस तरीके ने 2010 के स्तर की तुलना में “हैवी-ड्यूटी इंजन” से उत्सर्जन में 98% की कमी हासिल की थी।
दक्षिण एशिया में, गंभीर रूप से उच्च पीएम 2.5 कंसंट्रेशन वाले क्षेत्र, जो एक एयरशेड दृष्टिकोण से लाभान्वित होंगे, उनमें पश्चिमी और मध्य सिंधु-गंगा का मैदान ब्रह्मपुत्र बेसिन (भारत और बांग्लादेश); मध्य भारत (पूर्वी गुजरात/पश्चिम महाराष्ट्र और ओडिशा/छत्तीसगढ़); उत्तरी और मध्य उप-महाद्वीप (पाकिस्तानी और भारतीय पंजाब और अफगानिस्तान का हिस्सा); और दक्षिणी उप- महाद्वीप (दक्षिणी पाकिस्तान और पश्चिम अफगानिस्तान) शामिल हैं।
सिंधु-गंगा के मैदान में, गांवों और छोटे शहरों में, पीएम 2.5 की कंसंट्रेशन अक्सर, निकटतम बड़े शहर के समान या उससे अधिक होती है, इससे यह पता चलता है कि वायु गुणवत्ता प्रबंधन को केवल शहरों तक सीमित नहीं किया जा सकता है।
तेम्बे कहती हैं, “इन कस्बों का अपने अधिकार क्षेत्र में प्रदूषण पर कोई नियंत्रण नहीं है। इसलिए हमें वायु गुणवत्ता प्रबंधन के रूप में एक एयरशेड दृष्टिकोण की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि शहर जिम्मेदारी लें, एक कानूनी नीति की आवश्यकता है।”
डे कहते हैं, “विचार यह है कि एक एयरशेड के भीतर आने वाले सभी शहरों को एक प्रभावी समाधान के लिए एक-दूसरे के साथ समन्वय करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, लखनऊ और कानपुर (उत्तर प्रदेश) के 80% एयरशेड ओवरलैप करते हैं। इसी तरह, धनबाद (झारखंड) और आसनसोल (पश्चिम बंगाल) के एयरशेड में एक बहुत बड़ा ओवरलैप है। इसलिए उन्हें अपने संसाधनों और डेटा को साझा करने से लाभ होगा।”
विश्व बैंक, सात केंद्र शासित प्रदेशों और राज्यों में सिंधु-गंगा के मैदान के लिए, देश की पहली बड़ी एयरशेड कार्य योजना विकसित कर रहा है। सिंधु-गंगा का मैदान, देश के सबसे प्रदूषित क्षेत्रों में से एक है। समय से पहले होने वाली कुल मौतों में इसकी हिस्सेदारी 46% है।
सिंधु-गंगा के मैदान के शहरों का अपने अधिकार क्षेत्र में प्रदूषण पर कोई नियंत्रण नहीं है… यह सुनिश्चित करने के लिए कि शहर जिम्मेदारी लें, हमें एक कानूनी नीति की आवश्यकता है ।कल्याणी तेम्बे, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट
विश्व बैंक के प्रमुख पर्यावरण विशेषज्ञ कैरिन शेपर्डसन कहते हैं, “विश्व बैंक, भारतीय विशेषज्ञों की एक टीम का सहयोग कर रहा है, जिन्होंने यूरोप में गेन्स (जीएआईएनएस), उत्तरी अमेरिका और चीन सहित कई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनाए गए मॉडल लागू किए हैं।” वह कहते हैं, “अब हम भारतीय भागीदारों को सिंधु-गंगा के मैदान में, राज्यों में, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार में एक एयरशेड प्रबंधन दृष्टिकोण का उपयोग करके वायु कार्य योजना को विकसित करने, स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल बनाने में मदद कर रहे हैं।”
गेन्स का मतलब ग्रीनहाउस गैस एंड एयर पोलूशन इंटरैक्शंस और सिनर्जिस है, और एक मॉडल को संदर्भित करता है जो एक ही समय में वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने वाली रणनीतियों का आकलन करने के लिए उपयोग किया जाता है। शेपर्डसन का कहना है कि प्रबंधन उद्देश्यों के लिए तकनीकी मॉडल को आखिरकार कैसे एयरशेड में बदला जाता है, यह सरकार को तय करना है। सरकार ने अभी तक भारत के लिए एयरशेड को परिभाषित नहीं किया है; प्रक्रिया पर अभी विचार किया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश ने एयरशेड प्रबंधन पर पहला कदम उठाया
हालांकि, कुछ राज्यों को लगता है कि इससे पहले, तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। उत्तर प्रदेश एयरशेड कार्य योजना अपनाने वाला पहला राज्य है। अगस्त में बेंगलुरु में इंडिया क्लीन एयर समिट में बोलते हुए, उत्तर प्रदेश के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन विभाग के सचिव आशीष तिवारी ने घोषणा की कि विश्व बैंक की मदद से राज्य ने सबसे किफायती हस्तक्षेप के रूप में गेन्स मॉडल पर आधारित क्लीन कुकिंग की पहचान की है। राज्य ने रेस्तरां और भोजनालयों को 100,000 मुफ्त स्टोव और इलेक्ट्रिक तंदूर्स वितरित करने की योजना बनाई है।
तेम्बे कहती हैं, “स्वच्छ ईंधन को लाने से निश्चित रूप से बहुत बड़ा प्रभाव पड़ेगा।” लेकिन वह सावधानी के एक शब्द जोड़ती हैं, “यह एक अच्छा समाधान है, हालांकि यह स्थायी समाधान नहीं है,” क्योंकि प्रदूषण के स्रोतों को एयरशेड स्तर पर पहचानने की आवश्यकता है।
ऑस्टिन में एनर्जी इंस्टीट्यूट ऑफ यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के एक सीनियर रिसर्च फेलो एलन लॉयड कहते हैं, “पूरे सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्र के लिए एक एयरशेड प्रबंधन योजना विकसित करना अधिक समझ में आता है, क्योंकि प्रदूषक, राज्य की सीमाओं पर नहीं रुकते हैं।” उन्होंने सिंधु-गंगा के मैदान के लिए एक वायु संसाधन बोर्ड के गठन की सिफारिश की, जो कैलिफोर्निया के समान है, जो एक ही भौगोलिक क्षेत्र के भीतर समृद्ध और निम्न-आय वाले क्षेत्रों को जोड़ता है।
सिंधु-गंगा के मैदान जैसे बड़े एयरशेड में, हमें प्रत्येक राज्य के उत्सर्जन भार को समझने की आवश्यकता है।प्रतिमा सिंह, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी
वह आगे कहते हैं, “हालांकि, इस अच्छे काम के रास्ते में परफेक्शन को नहीं आना चाहिए। मॉडल में रखने के लिए अच्छे आंकड़े प्राप्त करना महत्वपूर्ण है। इसलिए, यदि उत्तर प्रदेश आंकड़ों के संग्रह में आगे है, तो बहुत कुछ सीखा जा सकता है जबकि अन्य राज्य अधिक और बेहतर आंकड़े प्राप्त करते हैं।”
बेंगलुरु के एक थिंक टैंक, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी (सीएसटीईपी) में एक वायु-प्रदूषण वैज्ञानिक प्रतिमा सिंह कहती हैं, “सिंधु-गंगा के मैदान जैसे बड़े एयरशेड में, हमें प्रत्येक राज्य के उत्सर्जन भार को समझने की आवश्यकता है, ताकि वे शासन और बुनियादी ढांचे के संदर्भ में एक-दूसरे के साथ मिल कर काम कर सकें जिससे प्रदूषण के इन प्रमुख स्रोतों को कम करना सुनिश्चित किया जा सके।”
2019 के एक अध्ययन में पाया गया कि सेकेंडरी पीएम 2.5 (जो सीधे उत्सर्जित होने वाले कणों की परस्पर क्रिया से बनता है) सिंधु-गंगा के मैदानी राज्यों में प्रदूषण का प्रमुख स्रोत है। इसके बाद, खाना पकाने के घरेलू तरीकों का स्थान है। दिल्ली के पीएम 2.5 में 20 फीसदी भागीदारी कारों, बसों, हवाई जहाजों और निर्माण उपकरणों जैसे मोबाइल स्रोतों की है।
सिंह यह भी कहती हैं कि मौसम में बदलाव भी महत्वपूर्ण है। सर्दियों में, पराली जलाने से पूरा सिंधु-गंगा का मैदान प्रभावित होता है। गर्मियों में, नदी पट्टी में जलोढ़ मिट्टी से होने वाला धूल का प्रदूषण, वायु प्रदूषण में एक बड़ा योगदान देता है।
नासा के सेटेलाइट द्वारा नवंबर 2017 में पराली जलाने से उत्पन्न धुंध के एक स्नैपशॉट से पता चला कि भारत और पाकिस्तान दोनों समान रूप से प्रभावित हुए थे। धुंध, स्वास्थ्य आपातकाल का कारण बना। दोनों देशों में स्कूल, उद्योग और हवाई अड्डे बंद हो गए।
एयरशेड प्रबंधन को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है
तेम्बे कहती हैं, माले घोषणा, 1998 में बांग्लादेश, भूटान, भारत, ईरान, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका द्वारा हस्ताक्षरित एक समझौता, को पुनर्जीवित करने के कई प्रयासों के बावजूद, “जहां तक मुझे पता है, कुछ भी नहीं हो पाया है।”
त्रिपाठी कहते हैं कि इससे पता चलता है कि सिंधु-गंगा के मैदान में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग क्यों महत्वपूर्ण है। वह बताते हैं, “पंजाब, विशेष रूप से अमृतसर और जालंधर, पाकिस्तान से आने वाले प्रदूषण से काफी प्रभावित हैं। सिंधु-गंगा के मैदान से प्रदूषण का एक बड़ा हिस्सा बांग्लादेश में जाता है और साल के कुछ निश्चित समय में, प्रदूषण, बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल और झारखंड में आता है।”
लॉयड कहते हैं कि आखिरकार, भारत में एयरशेड प्रबंधन के काम को करने के लिए, इसको लागू करने को गंभीरता से लेना होगा। कैलिफोर्निया में इसकी सफलता का यह एक प्रमुख तत्व था। उनका यह भी कहना है कि धरातल पर लागू करने संबंधी गंभीर कमियों के कारण, भारत में पिछली योजनाएं विफल रहीं। जुर्माना, उल्लंघन के अनुरूप होना चाहिए और सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति जल्द से जल्द गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए।”