उत्तर प्रदेश में मेरठ के बाहरी इलाके में पिछले कुछ महीनों से बड़ी-बड़ी चिमनियां लगातार धुंआ उगल रही हैं। अक्टूबर से अप्रैल गन्ना-पेराई का मौसम होता है। गन्ने की मदद से भी इथेनॉल बनता है। इस दौरान यहां की चीनी मिलें चालू रहती हैं। बिजली पैदा करने के लिए गीले पौधों के कचरे को जलाया जाता है, जिससे धुआं पैदा होता है, जो वातावरण में मंडराता रहता है। देखने में ऐसा लग सकता है कि ये सारे काम लगातार हो रहे हैं। लेकिन असलियत में इस उद्योग के लिए सबसे ज़रूरी गन्ने की आपूर्ति दरअसल गिर रही है।
मेरठ से करीब आधे घंटे की दूरी पर स्थित नंगलामल गांव के 35 वर्षीय गन्ना किसान अरुण कुमार सिंह गन्ने की आपूर्ति लेकर चिंतित हैं। साल 2021-22 के फसली सीज़न में, सिंह के गन्ने की फसल लगभग 30 फीसदी कम हो गई। आम तौर पर, वह अपने पांच हेक्टेयर के खेत से 1,40,000 किलोग्राम उपज की उम्मीद करते थे, लेकिन पिछले साल उन्हें 1,00,000 किलोग्राम उपज ही मिल पाई।
सिंह अपनी खराब फसल के लिए पिछले साल की रिकॉर्ड तोड़ गर्मी, अनियमित मानसून और कीड़ों द्वारा पहुंचाए गए नुकसान को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका कहना है कि गन्ने की मांग बढ़ने से किसान नई, अधिक उत्पादक लेकिन कम-लोचशील (लेस-रिजिल्यन्ट) किस्मों को लगाने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। अपने खेतों की ओर इशारा करते हुए, वह कहते हैं: “यह किस्म केवल आठ साल पहले ही आई थी और हर साल अधिक पानी की मांग कर रही है। वैसे भी हमारे क्षेत्र में पानी की कमी है।”
भारत के सबसे बड़े गन्ना उत्पादक राज्य में नंगलामल के आसपास इथेनॉल उत्पादन का केंद्र भी है। लेकिन पूरे उत्तर प्रदेश में और वास्तव में, पूरे भारत में गन्ने का उत्पादन गिर रहा है। वहीं, केंद्र सरकार चाहती है कि चीनी मिलें अतिरिक्त गन्ने से अधिक इथेनॉल का उत्पादन करें।
इथेनॉल-मिश्रित पेट्रोल को आगे क्यों बढ़ा रहा है भारत?
इथेनॉल का उत्पादन या तो ईथर पेट्रोकेमिकल्स या फिर गन्ना, मक्का और अनाजों से किया जा सकता है – जिसे बायो इथेनॉल या जैव ईंधन कहा जाता है। चूंकि इन फसलों को फिर से उगाया जा सकता है, इसलिए जैव ईंधन को अक्षय ऊर्जा के स्रोतों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
भारत अपने उपयोग से अधिक चीनी का उत्पादन करता है। साल 2021-22 के सीजन में भारत ने 3.94 करोड़ मीट्रिक टन चीनी का उत्पादन किया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, घरेलू स्तर पर, हर साल लगभग 2.6 करोड़ टन चीनी की खपत होती है। 2019 के बाद से, भारत अतिरिक्त चीनी के एक बड़े हिस्से को निर्यात कर रहा है। पिछले साल यह आंकड़ा 1 करोड़ टन का रहा है। लेकिन सरकार ने कहा है कि इथेनॉल के उत्पादन में इसका उपयोग करना बेहतर है क्योंकि ऐसा होने से भुगतान तेजी से हो सकेगा और मिलों के पास बेहतर नकदी प्रवाह (कैश फ्लो) रहेगा।
नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत बड़ी मात्रा में ईंधन का इंपोर्ट भी करता है। साल 2020-21 में 18.5 करोड़ टन पेट्रोल का आयात हुआ। इसकी लागत 4,50,000 करोड़ रुपये थी।
इसलिए पेट्रोल के साथ इथेनॉल को मिलाने की दिशा में आगे बढ़ने की पहल शुरू हुई। इससे घरेलू स्तर पर उपभोग न की जाने वाली शुगर का ईंधन के लिए इस्तेमाल हो सकेगा। साथ ही, ईंधन के मामले में आयात पर निर्भरता कुछ कम होगी।
नीति आयोग का अनुमान है कि इथेनॉल और पेट्रोल के 20-80 मिश्रण से 2025 तक देश में कम से कम 33,000 करोड़ रुपयों की बचत होगी। पिछले साल, भारत ने इथेनॉल बनाने के लिए 36 लाख टन शुगर का (लगभग 9 फीसदी) इस्तेमाल किया। साल 2022-23 में इसे 45 से 50 लाख टन तक पहुंचाने का लक्ष्य है।
भारत सरकार ने 2003 में, 5 फीसदी इथेनॉल मिश्रण के उद्देश्य से अपना इथेनॉल ब्लेंडिंग पेट्रोल (ईबीपी) कार्यक्रम शुरू किया था। वर्तमान में, इथेनॉल मिश्रण का लगभग 10 फीसदी हिस्सा है। साल 2025-26 तक भारत सरकार इसे 20 फीसदी तक पहुंचाने का लक्ष्य बना रही है। इस नीति को इस तरह से विन-विन के रूप में पेश किया जा रहा है कि भारत को अपनी एनर्जी सिक्योरिटी को मजबूत करने में इससे मदद मिलेगी। साथ ही, इससे स्थानीय उद्यमों और किसानों को ऊर्जा अर्थव्यवस्था में भागीदार बनने का मौका मिलेगा। यह नीति वाहनों से होने वाले उत्सर्जन को कम करने में भी सक्षम होगी। चीनी मिलों की स्थापना और विस्तार को प्रोत्साहित करने के लिए, 2018 से सरकार ने सब्सिडी योजना की पेशकश की है, जिसमें ऋण पर वित्तीय सहायता दी जा रही है।
छिपे हुए उत्सर्जन और खाद्य सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं
सरकार का कहना है कि “इथेनॉल में जिस तरह की विशेषताएं होती हैं, उससे इसके पूर्ण दहन यानी कम्पलीट कंबस्शन में मदद मिलती है। इस वजह से हाइड्रोकार्बन, कार्बन मोनोऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर का उत्सर्जन कम होता है। वाहनों से होने वाले प्रदूषण में हाइड्रोकार्बन, कार्बन मोनोऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर इत्यादि की बड़ी भूमिका होती है। इसके अलावा, अगर हम पेट्रोल से तुलना करें तो पाएंगे कि चार पहिया वाहनों में जब 20 फीसदी इथेनॉल मिश्रण का इस्तेमाल किया जाता है तो कार्बन मोनोऑक्साइड उत्सर्जन में 30 फीसदी और हाइड्रोकार्बन उत्सर्जन में 20 फीसदी तक की कम होती है।”
वहीं, जलने पर, इथेनॉल पारंपरिक ईंधन की तुलना में, दरअसल 20-40 फीसदी कम कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करता है।और क्योंकि पौधें बड़े होने पर कार्बंड डाइऑक्साइड सोख लेते हैं इसलिए इसे कार्बन न्यूट्रल भी कहा जा सकता है।
हम यह नहीं कह सकते कि इथेनॉल पर्यावरण के लिए ठीक है।सुधीर पंवार, प्रोफेसर और कृषि वैज्ञानिक
विशेषज्ञ हालांकि चिंतित हैं। उनका मानना है कि ये इथेनॉल की सप्लाई चेन के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नज़रअंदाज़ करता है।पिछले साल, अमेरिका में जैव ईंधन यानी बायोफ्यूल्स पर किए गए रिसर्च में पाया गया कि इथेनॉल की कार्बन तीव्रता (कार्बन इंटेंसिटी) पेट्रोल की तुलना में 24 फीसदी अधिक हो सकती है। दरअसल, ऐसा भूमि के उपयोग में परिवर्तन, उर्वरकों के उपयोग में वृद्धि और पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान के चलते हुए उत्सर्जन के कारण हुआ।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2001 से, भारत में 660,000 हेक्टेयर भूमि को गन्ने की खेती के लिए बदला गया।
कृषि और व्यापार के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, “फसल उगाने के लिए भूमि के उपयोग में बदलाव, पानी के दोहन और इथेनॉल बनाने की पूरी प्रक्रिया के चलते होने वाले कार्बन उत्सर्जन के कारण, पेट्रोलियम ईंधन की तरह ही, इथेनॉल के भी कार्बन-इंटेंसिव होने की आशंका है।” वह कहते हैं कि जर्मनी को देख लीजिए जिसने अब इस बात का अहसास किया है और अब मोनोक्रॉपिंग करने से मना कर रहा है।
विशेषज्ञों को यह भी चिंता है कि इथेनॉल के लिए गन्ने के इस्तेमाल पर ज़ोर देने से खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
कृषि वैज्ञानिक और उत्तर प्रदेश राज्य योजना आयोग के पूर्व सदस्य सुधीर पंवार का कहना है कि चूंकि गन्ने की कीमत, पेट्रोल से जुड़ जाएगी, इसलिए इसे एक ऊर्जा फसल यानी एनर्जी क्रॉप कहा जाएगा। उनका कहना है कि इससे बड़े क्षेत्र मोनो-क्रॉपिंग के तहत आ जाएंगे, जो मिट्टी की उर्वरता को कम करता है और फसलों को कीटों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है। ऐसे में, भूमि और पानी के संसाधनों का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा एनर्जी क्रॉप की तरफ जाएगा, नतीजतन खाद्य असुरक्षा को बढ़ावा मिलेगा।
उत्तर प्रदेश में, इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (आईएसएमए) के अधिकारियों और उत्तर प्रदेश के अनेक गन्ना किसानों ने द् थर्ड पोल को बताया कि बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए वर्तमान में, भूमि के बड़े हिस्से को गन्ने की खेती के लिए परिवर्तित नहीं किया जा रहा है। बल्कि, इन सबका कहना है कि उत्पादन में यह वृद्धि, पहले से मौजूद अधिशेष (सरप्लस) और अधिक गहन कृषि विधियों (इंटेंस फार्मिंग मेथड) से आ रही है।
आईएसएमए के महानिदेशक संजॉय मोहंती का कहना है कि भारत, वर्तमान में अतिरिक्त चीनी का उत्पादन करता है, जिसका अर्थ है कि 20 फीसदी इथेनॉल सम्मिश्रण के लक्ष्य को पूरा करना कोई चुनौती नहीं है। वह कहते हैं, “भविष्य में भूमि का रकबा बढ़ाने के बजाय, हम उत्पादन बढ़ाने के लिए उपज में सुधार करने का लक्ष्य बना रहे हैं।”
गन्ने की अधिक खेती से किसानों और पर्यावरण पर दबाव
नंगलामल के किसान अरुण कुमार सिंह कहते हैं कि सरकारी सब्सिडी और इथेनॉल की ऊंची कीमतों से चीनी मिलों को लाभ होता है, लेकिन किसानों को इस नीति से लाभ नहीं हो रहा है।
गन्ना आमतौर पर कटिंग्स से उगाया जाता है, जिसकी उपज पांच से सात साल बाद कम हो जाती है। चूंकि चीनी मिलें, उच्च मात्रा में सुक्रोज की मांग करती हैं, इसलिए किसानों को नई किस्मों पर स्विच करने और उर्वरकों व कीटनाशकों का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
सिंह कहते हैं कि इसके साथ ही, किसानों को जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुकसान की लागत भी वहन करनी पड़ती है, जैसे पिछले साल की हीटवेव। वह बताते हैं कि उनके खेत में गन्ने की वही प्रजाति थी जो पूरे भारत में लगाई गई थी, उसे हर साल अधिक उर्वरक और कीटनाशक की आवश्यकता होती है।
सिंह कहते हैं कि हर फसल चक्र में एक बार कीटनाशक का छिड़काव करने से लेकर कई बार ज्यादा बार छिड़काव करना होता है। इस साल तो मैं सातवीं बार छिड़काव करने आया हूं।
नंगलामल के एक अन्य किसान सुंदर तोमर कहते हैं, “कीटनाशक की एक बोतल की कीमत 1800 रुपये है और इसका उपयोग लगभग तीन एकड़ भूमि पर किया जा सकता है। मेरे पास [30 एकड़] हैं और इस मौसम में मुझे सात या आठ बार छिड़काव करना पड़ा है। सरकार की तरफ से इथेनॉल के लिए मिलों के मुनाफे में वृद्धि की हो सकती है, लेकिन हमें गन्ने के लिए समान दर – 330 रुपये प्रति क्विंटल [100 किलो] का भुगतान किया जाता है।”
इसके अलावा, पानी की कमी और प्रदूषण की समस्या भी है। शर्मा कहते हैं कि गन्ने का उत्पादन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जल स्तर के कम होने में एक बड़ा कारण बना है। यह क्षेत्र बारिश के पैटर्न में बदलाव और सूखे का सामना, एक साथ कर रहा है। उद्योग ने नदियों को प्रदूषित भी किया है। दरअसल, उद्योग बड़ी मात्रा में कार्बनिक पदार्थों को जलमार्गों में छोड़ देते हैं। सच्चाई यही है कि चीनी मिलें राज्य में अपशिष्ट जल का सबसे बड़ा स्रोत हैं। समय के साथ, इससे अन्य फसलों को उगाना कठिन हो जाएगा, जिससे भारत की खाद्य सुरक्षा को सीधे खतरा होगा।
वह बताते हैं कि महाराष्ट्र में, जो देश का दूसरा सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक राज्य है, सिंचाई का 70 फीसदी पानी, गन्ने में चला जाता है, जबकि यह राज्य की फसल का केवल 4 फीसदी ही है।
चीनी मिल मालिकों का कहना है कि इथेनॉल उत्पादन का विस्तार होगा
वैसे, उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों के वरिष्ठ कर्मचारियों ने इन चिंताओं को खारिज कर दिया है। नंगलामल में चीनी डिस्टलरी के महानिदेशक राजेंद्र कांडपाल कहते हैं कि हमने सालाना 3.7 करोड़ लीटर इथेनॉल बनाना शुरू कर दिया है और इसके विस्तार की भी अनुमति है। उत्पादन में इस वृद्धि से किसानों को लाभ हुआ है। हम इस डिस्टलरी के तकरीबन पूरे अपशिष्ट जल की प्रोसेसिंग कर रहे हैं।
इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (आईएसएमए) के पूर्व महानिदेशक अविनाश वर्मा का दावा है कि हमें उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को सीमित करने और ड्रिप-सिंचाई या स्प्रिंकलर के उपयोग पर स्विच करने के लिए किसानों को शिक्षित करने की आवश्यकता है। जहां तक गन्ने के पानी की खपत की बात है, तो यह कोई चिंता की बात नहीं है, क्योंकि उत्तर प्रदेश पानी के लिहाज से सम्पन्न राज्य है।
वर्मा ने चीनी, गन्ना और इथेनॉल पर केंद्र सरकार की नीतियों को तैयार और कार्यान्वित किया है और 2022 में बिहार में अपना अनाज आधारित इथेनॉल संयंत्र शुरू किया है।
पूरे भारत में गन्ने की पैदावार गिरने की खबरों के बीच, पंवार, 2009 से 2013 के बीच ब्राजील के अनुभव को दोहराने को लेकर चेतावनी देते हैं। इस दौरान जलवायु परिस्थितियां अनियमित होने की वजह से गन्ने की उपज में गिरावट आई थी। इससे इथेनॉल का उत्पादन भी गिरा था।
पंवार कहते हैं, “इथेनॉल के उत्पादन में सरकार की कुल जितनी लागत लगती है उसको और प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव व किसानों के स्वास्थ्य पर प्रभाव को हम देखें तो यह नहीं कह सकते कि इथेनॉल पर्यावरण के लिए ठीक है।”