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संदेशखाली और बंगाल डेल्टा का शोषणकारी मत्स्य पालन

भारत और बांग्लादेश में बढ़ते खारेपन वाले क्षेत्रों में झींगा पालन से पैदा हुई समस्याएं राजनीतिक सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करती हैं।
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<p>बंगाल के डेल्टा क्षेत्र के पानी और मिट्टी में लवण की मात्रा बढ़ने से खेती के गैर-लाभकारी होने के कारण भारत और बांग्लादेश, दोनों देशों में झींगा पालन को उचित विकल्प माना गया है। (फोटो: एडब्ल्यूएम अनिसुज्जमन / अलामी)</p>

बंगाल के डेल्टा क्षेत्र के पानी और मिट्टी में लवण की मात्रा बढ़ने से खेती के गैर-लाभकारी होने के कारण भारत और बांग्लादेश, दोनों देशों में झींगा पालन को उचित विकल्प माना गया है। (फोटो: एडब्ल्यूएम अनिसुज्जमन / अलामी)

बंगाल का डेल्टा ज़रूरी परिवर्तनों के दौर से गुज़र रहा है। वहां खारेपन का स्तर बढ़ रहा है। दुनिया के सबसे बड़े डेल्टा के रूप में (और भारत तथा बांग्लादेश में 10 करोड़ से अधिक लोगों का निवास होने के नाते) इन परिवर्तनों का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्व है। पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में भारत का हालिया राजनीतिक विवाद इस बात पर प्रकाश डालता है कि बढ़ते खारेपन से निपटने के लिए सही अनुकूलन क्यों ज़रूरी है। अनुकूलन के लिए ग़लत रास्ता लेने का मतलब है ज़मीन पर क़ब्ज़ा, आर्थिक उत्पीड़न और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार।

बंगाल डेल्टा क्षेत्र में खारेपन को कम करने के लिए झींगा मछली पालन को बढ़ावा दिया गया है। संदेशखाली की स्थिति इस बात पर प्रकाश डालती है कि जब तक हम राजनीतिक अर्थव्यवस्था (संसाधनों तक किसकी पहुंच है, और कौन उन्हें आवंटित कर सकता है) पर ध्यान नहीं देते हैं, ऐसे अनुकूलन उपाय मौजूदा असमानताओं को बढ़ा सकते हैं और एक अन्यायपूर्ण बदलाव को जन्म दे सकते हैं।

बढ़ता खारापन और मछली पालकों का ‘वादा’

संदेशखाली भारतीय सुंदरबन क्षेत्र के उत्तर में स्थित है। पानी में खारेपन में वृद्धि के कारण यह क्षेत्र तेज़ी से और अपरिवर्तनीय सामाजिक-पारिस्थितिक परिवर्तन से गुज़र रहा है। मानव उपयोग और इकोसिस्टम के लिए मीठे पानी की उपलब्धता घट रही है। नदियों से मीठे पानी के प्रवाह में बदलाव के कारण ही खारेपन में बदलाव आता है। 1975 में पश्चिम बंगाल में गंगा नदी पर फरक्का बैराज के निर्माण को अक्सर इन परिवर्तनों के प्राथमिक कारण के रूप में माना जाता है। (हालांकि अन्य कारक भी इसमें भूमिका निभाते हैं, जैसे समुद्र के बढ़ते जलस्तर और चक्रवात-प्रेरित तूफान के कारण खारे पानी का प्रवेश, हालांकि यह किस हद तक होता है, इस पर बहुत कम सहमति है।)

मीठे पानी की उपलब्धता की कमी के कारण बंगाल के डेल्टा क्षेत्र में खेती भारी जोखिम और गैर-लाभकारी बन गई है। ऐसे में मत्स्य पालन एक आशाजनक विकल्प के रूप में उभरा है। पश्चिम बंगाल में भेरी (मछली पालन के लिए उथले तालाब, जिसे बांग्लादेश में घेर के रूप में जाना जाता है) के माध्यम से मत्स्य पालन, विशेष रूप से खारे पानी के लिहाज से उपयुक्त झींगा पालन, के लिए आकर्षक संभावनाएं प्रस्तुत करता है।

बंगाल के डेल्टा क्षेत्र में 1960 के दशक में खारे पानी में शुरू किए गए मत्स्य पालन में पारंपरिक रूप से छोटे किसान शामिल थे, जो उच्च ज्वार के दौरान प्राकृतिक झींगा मछली के शिकार पर निर्भर थे। 1980 के दशक से इसके लिए अर्ध-गहन और गहन तरीकों को अपनाया गया, क्योंकि किसानों ने टाइगर झींगा में निवेश करना शुरू कर दिया। इसके बाद उन्होंने 1980 के दशक से सफेद पैर वाले झींगा पालन में निवेश करना शुरू किया। पहले झींगा पालन के लिए केवल उपयुक्त भूमि और थोड़े से प्रयासों की जरूरत होती थी, लेकिन गहन मत्स्य पालन के लिए उर्वरक, उच्च भंडारण घनत्व और निकट प्रबंधन की आवश्यकता हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि झींगा पालन तेजी से पूंजीपति और ताकतवर लोगों का व्यवसाय बन गया। 

भारत और बांग्लादेश, दोनों देशों में मत्स्य पालन में बदलाव को बड़े पैमाने पर सफल अनुकूलन माना जाता है। लेकिन पारंपरिक और गहन मत्स्य पालन के बीच अंतर (और जमीनी स्तर पर लोगों पर इसके प्रभाव) को काफी हद तक नजरअंदाज कर दिया गया है। भारत के सरकारी अनुमान के अनुसार, पश्चिम बंगाल में खारे पानी में मत्स्य पालन की संभावना भारत में सबसे अधिक है। लेकिन यह क्षमता मुख्य रूप से पूर्वी मिदनापुर और दक्षिण और उत्तर 24 परगना जिलों तक ही सीमित है। बांग्लादेश ने काले टाइगर झींगा के उत्पादन और बिक्री बढ़ाने की कार्य योजना के साथ अपनी क्षमता को पहचाना है। हालांकि, ये व्यापक योजनाएं ऐसे बदलावों के सामाजिक प्रभावों पर बहुत कम ध्यान देती हैं।

अर्थव्यवस्था पर राजनीतिक निष्ठा हावी

इस बदलाव के केंद्र में स्थानीय, ग्राम-स्तरीय निर्वाचित सरकारी संस्थाएं हैं, जिन्हें भारत में पंचायतें कहा जाता है। ऐतिहासिक रूप से, पश्चिम बंगाल में बड़ी राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले किसी भी व्यक्ति के लिए पंचायतों को नियंत्रित करना महत्वपूर्ण रहा है, क्योंकि वे संरक्षण और लामबंदी के केंद्र हैं – सरकारी योजनाओं और आजीविका के अवसरों जैसी पंचायती सेवाओं को पार्टी के प्रति निष्ठा के अनुसार वितरित किया जाता है, जिससे राजनीतिक प्रभुत्व को बढ़ावा मिलता है। ज्यादातर मामलों में, राज्य स्तर पर शासन करने वाली पार्टी राज्य मशीनरी का उपयोग करके पंचायतों पर अपना नियंत्रण बनाए रखती है, और विपक्ष को दबाने के लिए हिंसा का सहारा लेती है।

संदेशखाली में, ताकतवर स्थानीय नेता अपने गरीब कर्मचारियों को पर्याप्त मुआवजा दिए बिना लाभदायक झींगा उद्यमों को नियंत्रित करते हैं। ग्रामीण आजीविका बहुत हद तक सरकारी संसाधनों पर निर्भर करती है और उन तक पहुंचने के लिए राजनीतिक निष्ठा महत्वपूर्ण है। स्थानीय नेताओं की ओर से राजनीतिक दल के कार्यकर्ता संसाधनों पर नियंत्रण करते हैं, जिससे संसाधन-संचालित हिंसा होती है-विशेषकर गरीब क्षेत्रों में। किराया (हफ्ता) वसूली करने वाले लोग सत्ताधारी दलों द्वारा नियंत्रित होते हैं, जो स्थानीय नेताओं को जमीन, मछली पालने वाले तालाब, ईंट के भट्ठे और रेत खदान जैसे संसाधनों पर कब्जा दिलाते हैं।

ऐसी प्रथाएं इस क्षेत्र में सभी राजनीतिक दलों के शासनों के दौरान दशकों से पनपती रही हैं। पश्चिम बंगाल के औद्योगिक पतन के बीच राजनीतिक संपर्क वाले ये ग्रामीण उद्यमी प्राथमिक नियोक्ता (रोजगार उपलब्ध कराने वाले) बन गए हैं, जो ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में भाई-भतीजावाद को बढ़ावा दे रहे हैं। स्थानीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था के इस मॉडल ने क्षेत्र में दीर्घकालिक सामाजिक संघर्षों को जन्म दिया है।

खारेपन के बीच जल राजनीति का मार्ग

इस साल की शुरुआत में संदेशखाली में एक स्थानीय नेता और उसके सहयोगियों ने किसानों की सहमति के बिना झींगा पालन के लिए जमीन हड़पने की साजिश रची। प्रतिरोध को धमकियों, हिंसा और जबरन दुकानें बंद कराकर दबाया गया। इस आर्थिक जबर्दस्ती ने ग्रामीणों को गंभीर परिणामों भुगतने की धमकी के भय से जब्त की गई भूमि पर मजदूर बनने के लिए मजबूर किया। उनसे जो वादा किया गया था, उसका भुगतान नहीं किया गया और हिंसा तथा यौन उत्पीड़न के जरिये नियंत्रण बनाए रखा गया।

इसी तरह, बांग्लादेश के गबुरा सहित विभिन्न क्षेत्रों में, तथाकथित ‘झींगा माफिया’ व्यवसाय पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए धमकी, हिंसा और अधिकारियों के साथ मिलीभगत का सहारा लेते हैं। मई 2020 में अम्फान चक्रवात द्वारा अतिक्रमित जल को रोकने के लिए बनाए गए तटबंध कमजोर हो गए, जिससे समुदायों के सामने भूमि पर कब्जा होने का खतरा पैदा हो गया है। और इन भारी उर्वर झींगा वाले तालाबों का प्रसार बीमारियों के  फैलने जैसे दीर्घकालिक, प्रतिकूल प्रभावों को जन्म देता है ।  

बंगाल डेल्टा के झींगा पालन क्षेत्रों की समकालीन वास्तविकता दर्शाती है कि जलवायु परिवर्तन की अनुकूलन रणनीतियां कैसे आसानी से बेहद असमान परिणाम दे सकती हैं: हाशिये पर रहने वाले और कमजोर स्थानीय लोग खुद को शोषण के चक्र में फंसा हुआ पाते हैं, उनके आर्थिक आत्मनिर्णय के अधिकार को बेरहमी से कुचल दिया जाता है। जब तक सामुदायिक  नेतृत्व वाले, समावेशी मत्स्यपालन की सामूहिकता और कानूनी सुधारों की कल्पना नहीं की जाती, ये असमानताएं और गहराती जाएंगी।

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