सितंबर, 2020 में तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के पारित होने के बाद भारत में दुनिया का सबसे बड़ा किसान आंदोलन शुरू हो गया। दिसंबर 2021 में इन कृषि कानूनों को वापस लेने के बाद यह आंदोलन समाप्त हुआ। भारत की लगभग आधी आबादी, कृषि आय या कृषि से जुड़ी आय पर निर्भर है। कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर परिवर्तन 60 करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित करती है। कृषि क्षेत्र पिछले कुछ दशकों से संकट में है। हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अनियमित वर्षा, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों ने कृषि को और भी जोखिम भरा बना दिया है, खासकर उस स्थिति में, जबकि आधे से अधिक भारतीय किसानों के पास बारिश के अलावा सिंचाई की सुविधा नहीं है। कृषि संबंधी आंदोलनों का क्षेत्रीय प्रभाव भी पड़ा है, क्योंकि पाकिस्तान और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों में भी किसानों को इसी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। कृषि पर भारत के अग्रणी विशेषज्ञों में से एक, देविंदर शर्मा ने www.thethirdpole.net से, कृषि कानूनों, किसान आंदोलन, जलवायु परिवर्तन और आगे क्या रास्ते हैं, इन सब मुद्दों पर बातचीत की। उनके साथ बातचीत के संपादित अंश।
मीडिया में कृषि संबंधी मुद्दों पर विस्तार से चर्चा कम ही होती है। क्या आपको लगता है कि किसान आंदोलन ने इसे बदल दिया है?
निश्चित रूप से। नई दिल्ली की सीमाओं पर भारी विरोध-प्रदर्शन हुए। उससे तीन महीने पहले पंजाब और हरियाणा में आंदोलन हुए। जून 2020 के बाद से, यानी विवादास्पद कृषि कानून पेश किए जाने के बाद से आंदोलन शुरू हुए। ये आंदोलन एक साल से अधिक समय तक चले, जब तक उन कानूनों को निरस्त नहीं किया गया, आंदोलन चलते रहे। निश्चित रूप से, इससे कृषि संबंधी मुद्दे चर्चा में आए। कारण चाहे कुछ भी रहा हो लेकिन सच यही है कि कृषि संबंधी मुद्दे हमेशा उपेक्षित रहे। लेकिन लंबे समय तक चले किसान आंदोलनों की वजह से, निश्चित रूप से खेती-किसानी के मुद्दों पर ध्यान गया है। इस लिहाज से, चर्चित किसान आंदोलन ने इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
मान लेते हैं कि कृषि संबंधी विषय वापस एजेंडे पर आ सकते हैं, लेकिन क्या लोग वास्तव में समझते हैं कि मुद्दे क्या थे?
स्पष्टता की कमी है, इस बात से मैं सहमत हूं। बहुत से लोग मानते हैं कि सरकार, बाजार में सुधार लाने की कोशिश कर रही थी और यह स्वीकार्य होना चाहिए था। कुछ लोगों का मानना है कि कृषि, दोबारा उसी ढर्रे पर आ गई और विकास व समृद्धि लाने के अवसर से चूक हो गई है।
यह सच है कि भारतीय कृषि दशकों से गंभीर आर्थिक संकट में है। लेकिन विरोध कर रहे किसानों का मानना था कि बाजार में इस तरह के सुधार से संकट और गहरा जाएगा। आखिरकार, उसी तरह के बाजार सुधारों ने विकसित देशों में छोटे किसानों को कृषि से बाहर कर दिया है और कृषि आय बढ़ाने में विफल रहे हैं।
मुझे यूएनसीटीएडी (संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन) का एक अध्ययन याद आता है। उस अध्ययन में यह बताया गया है कि कृषि उत्पादों में, खेत पर ही मिलने वाली कीमतें, यदि मुद्रास्फीति समायोजित की जाती है, 1985 से 2005 तक स्थिर रहीं। बीस वर्षों तक किसानों को उनकी उपज के लिए जो कीमतें मिल रही थीं, उनमें वृद्धि नहीं हुई थी। यह एक वैश्विक तस्वीर थी। भारत जैसे देशों में तो, जहां सरकारें, अमेरिका और यूरोपीय देशों की तरह सब्सिडी प्रदान करने में असमर्थ हैं, यह तस्वीर बदतर थी।
ओईसीडी (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) और आईसीआरआईईआर (इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च इन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस) के एक प्रमुख अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि भारतीय किसान को 2000 से 2016 तक [2017-18 की कीमतों पर] 45 ट्रिलियन रुपये (600 बिलियन डॉलर) का नुकसान हुआ है। अब सोचिए, अगर इंडस्ट्री को इतना बड़ा नुकसान होता। इसे नीतिगत पक्षाघात (पॉलिसी पैरालिसिस) का परिणाम कहा जाएगा। अध्ययन में केवल कुछ फसलों पर ध्यान दिया गया था, जो अपेक्षाकृत अधिक [कीमत] स्थिर हैं। वास्तविक नुकसान अधिक हो सकता है। लेकिन इससे आप स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगा सकते हैं। 2016 में सरकार ने घोषणा की कि वह किसानों की आय को दोगुना कर देगी। लेकिन उस वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण ने अनुमान लगाया कि 17 राज्यों में – आधे देश में – प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 20,000 रुपये (270 डॉलर) से कम थी। यह एक महीने में 1,700 रुपये (23 डॉलर) से भी कम है! मैं कल्पना नहीं कर सकता कि लोग उस पर कैसे जी रहे थे।
पहले भी विरोध प्रदर्शन हुए थे, लेकिन जब कृषि कानून सामने आये, तो किसानों को एहसास हुआ कि आर्थिक सुरक्षा की मांग के लिए, अपने अधिकारों के लिए खड़े होने का यह उनका आखिरी मौका है।
कृषि कानून इतने खतरनाक क्यों थे?
किसानों को डर था कि इससे इस क्षेत्र का कॉरपोरेटाइजेशन हो जाएगा। यह उन्हें खेती से बाहर करने और मौजूदा संकट को बढ़ाने के लिए मजबूर करेगा। उन्होंने देखा था कि इन सुधारों ने कहीं और काम नहीं किया था, और वे किसानों के लिए समान रूप से हर जगह खराब थे। वे नहीं चाहते थे कि बाजार व्यवस्था पर हावी हो। विरोध इसलिए हुआ क्योंकि वे पूरी तरह से निराश थे कि उनकी मुख्य मांग – एक सम्मानजनक जीवन यापन – से इनकार किया जा रहा था, उन्हें उचित और लाभकारी कीमतों से वंचित किया जा रहा था। आप उनके कर्ज, कर्ज, कर्ज पर जीवन यापन करने की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। एक अमेरिकी किसान ने मुझे बताया कि जीवन भर कर्ज में रहना नरक में जीने जैसा है। भारतीय किसानों के लिए भी यही सच है।
मुझे यह भी लगता है कि हम लोगों को यह समझाने में सक्षम नहीं हैं कि बिहार में बाजार सुधारों के समय क्या हुआ था। 2006 में वहां की राज्य सरकार ने एपीएमसी (कृषि उत्पाद बाजार समिति) अधिनियम को खारिज कर दिया, जो मंडियों (कृषि उपज के लिए सरकारी अधिकृत बाजार) को नियंत्रित करता है। उस समय, बाजार तंत्र की क्षमता को लेकर काफी उत्साह था। अर्थशास्त्रियों ने हमें बताया था कि बिहार, भारत में एक नई बाजार संचालित कृषि क्रांति का अग्रदूत होगा। हम अब 2022 में हैं, और हम अभी भी उस चमत्कार के होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। 2020-21 में, 50 लाख टन धान बेईमान व्यापारियों द्वारा [बिहार से] पंजाब में बेचने के लिए पहुंचाया गया था। इसका मतलब यह है कि व्यापारी परिवहन के लिए भुगतान करने को तैयार थे, जबकि उनके खिलाफ पुलिस में मामले दर्ज होने का जोखिम था, क्योंकि पंजाब में कीमत बहुत अधिक थी। पंजाब में किसानों को एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) दिए जाने के साथ एक मजबूत खरीद प्रणाली है।
यहां तक कि विकसित देशों में भी कृषि क्षेत्र भारी संकट से जूझ रहा है। अमेरिका भारी सब्सिडी देता है। और फिर भी, 2020 में वहां किसान 425 बिलियन डॉलर के कर्ज से दबे हुए थे। यह स्थिति तब है, जब वहां का आखिरी कृषि बिल (जो हर पांच साल में आता है) अगले 10 वर्षों के लिए 867 बिलियन डॉलर प्रदान करता था। यह स्थिति, इस तथ्य के बावजूद है कि अमेरिका में किसानों की आबादी केवल 1.5 फीसदी है। हमें सुधार की जरूरत है, लेकिन बाजार संचालित यह प्रक्रिया हर जगह विफल रही है। हमें सुधारों का एक नया सेट चाहिए जो हमारी अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं और हमारी अपनी आवश्यकताओं को पूरा करता हो। और कृषि में लगी हमारी विशाल आबादी को देखते हुए – लगभग 60 करोड़ लोग – कृषि को दूसरा ग्रोथ इंजन बनाने का लक्ष्य होना चाहिए।
अनियमित वर्षा के पीछे जलवायु परिवर्तन है, यह बात सबसे स्पष्ट रूप से सामने आती है और इसका हमारे आधे किसानों पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जिनके पास सिंचाई नहीं है। क्या आप इस मुद्दे का समाधान करना चाहेंगे?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जलवायु परिवर्तन, किसानों को प्रभावित कर रहा है, लेकिन मैं इस विचार के प्रति थोड़ा पीछे हटना चाहूंगा कि जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने से सभी मुद्दों का समाधान हो जाएगा। पंजाब का मामला लें, जिसे भोजन का कटोरा कहते हैं। पंजाब में 99 फीसदी कृषि भूमि, सुनिश्चित सिंचाई के तहत है और इसने रिकॉर्ड उत्पादकता हासिल की है। फिर भी, यह किसानों के आत्महत्याओं के केंद्र के रूप में उभरा है। पंजाब में सार्वजनिक क्षेत्र के तीन विश्वविद्यालयों द्वारा 2000 और 2015 के बीच घर-घर के सर्वेक्षण में किसानों और खेतिहर मजदूरों की 16,600 से अधिक आत्महत्याएं पाई गईं। इससे पता चलता है कि यह मुद्दा न केवल फसल उत्पादकता से जुड़ा है, बल्कि इसका संबंध कीमतों से भी है। समस्या खेतों में नहीं, बल्कि खेतों के बाहर, अर्थशास्त्र में है। केवल इनपुट जोड़ने, उत्पादकता को संबोधित करने से किसानों की समस्या का समाधान नहीं होगा। इसलिए एक लिविंग इनकम हर हाल में जरूरी है।
क्या जैविक खेती, या जलवायु के अनुकूल खेती, इनमें से कुछ मुद्दों से निपटने में मदद कर सकती है?
किसान सबसे अच्छे अर्थशास्त्री हैं। वे जानते हैं कि पर्यावरण प्रभावित हो रहा है, जलस्तर गिर रहा है और पराली जलाना हानिकारक है। लेकिन विविधता लाने के लिए प्रोत्साहन की कमी को देखते हुए उनके पास कोई विकल्प नहीं है।
इस बात को ऐसे समझते हैं। पिछले साल खाद्य तेलों की कीमतों में तेजी आई थी। किसानों ने सरसों के खेतों में अपनी बुआई का विस्तार किया। इस साल करीब 91 लाख हेक्टेयर सरसों की फसल आ गई है। यह 2025-26 के लिए निर्धारित लक्ष्य था। इससे पता चलता है कि अगर कोई प्रोत्साहन हो तो किसान जल्दी से स्विच कर सकते हैं। कीमत ही एकमात्र कारक नहीं है, बल्कि यह सबसे महत्वपूर्ण प्रोत्साहन है। आप पहले गारंटीशुदा आय का आश्वासन दिए बिना किसानों से परिवर्तन अपनाने और परिवर्तन लाने की उम्मीद नहीं कर सकते।
कुछ आय सुरक्षा होने पर ही जलवायु उपयुक्त कदम उठाए जा सकते हैं। यदि किसानों को बाजरा, मक्का आदि में बेहतर या समान अवसर दिया जाता है, तो वे जलवायु के अनुकूल फसलों और कृषि प्रणालियों में स्थानांतरित हो जाएंगे।
जहां तक जैविक खेती का सवाल है, आंध्र प्रदेश ने एक सफल प्राकृतिक कृषि आंदोलन का रास्ता दिखाया है। अत्यधिक उर्वरकों, रसायनों इत्यादि के उपयोग से तंग आकर, किसानों ने कृषि-पारिस्थितिक खेती प्रणालियों को अपनाया। और अब, ऐसे 700,000 किसान हैं, जो रासायनिक से गैर-रासायनिक खेती में स्थानांतरित हो गए हैं। मृदा स्वास्थ्य में सुधार हुआ है, उत्पादकता में सुधार हुआ है, और इसके अलावा इन क्षेत्रों में किसानों की आत्महत्या की कोई रिपोर्ट नहीं है। फिर भी, इस बड़े बदलाव के बारे में ज्यादा बात नहीं हुई है। पूर्वोत्तर के कई हिस्से जैविक खेती में अग्रणी हैं, जो पर्यावरण की दृष्टि से अच्छा और आर्थिक रूप से व्यवहार्य है, लेकिन इसके लिए सरकार के समर्थन की आवश्यकता है। जरूरत इस बात की है कि इकोसिस्टम सर्विसेस के लिए प्रोत्साहन दिया जाए। यह यूरोपीय संघ की तरह हो सकता है, जिसने अब 2024-25 तक पारिस्थितिक खेती के लिए सीएपी (सामान्य कृषि नीति) के तहत 20 फीसदी सब्सिडी प्रदान करने का निर्णय लिया है, शायद भारत को भी कृषि-पारिस्थितिक खेती प्रणाली की ओर स्विच करने के लिए इसी तरह के समर्थन तंत्र को विकसित करने की आवश्यकता है।
The Third Pole और देविंदर शर्मा के बीच Twitter Spaces बातचीत पर आधारित