प्रकृति

भारत और पाकिस्तान के चार प्रोजेक्ट्स जो ‘अनाकर्षक’ जानवरों के प्रति नज़रिया बदल रहे हैं

यहां पढ़िए भारत और पाकिस्तान में कुछ संरक्षण प्रोजेक्ट्स जिनका उद्देश्य क्षेत्र के कुछ कम आकर्षक जानवरों की मदद करना है
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<p>भारत में किंग कोबरा अक्सर मारे जाते हैं क्योंकि लोगों को इस बात का डर होता है कि उन पर सामने से हमला हो सकता है। (फोटो: अलामी)</p>

भारत में किंग कोबरा अक्सर मारे जाते हैं क्योंकि लोगों को इस बात का डर होता है कि उन पर सामने से हमला हो सकता है। (फोटो: अलामी)

पूरी दुनिया में संस्कृति ने हमेशा जंगली जानवरों के साथ मानव समाजों और इंसानों के संबंधों को आकार दिया है। किसी भी प्रजाति के प्रति समुदायों का नज़रिया बहुत ज़रूरी है क्योंकि इसका असर बहुत बड़ा हो सकता है। कभी-कभी यह नज़रिया ये तय करता है कि जानवरों को संरक्षित किया जाए या उन्हें ख़तरे के रूप में देखा जाए।

एक जंगली जानवर जिसे मददगार या शुभ माना जाता है, उसे नुकसान से बचाया जा सकता है, जबकि कुछ पारंपरिक मान्यताओं का मतलब यह हो सकता है कि कुछ विशेष जानवरों को हानि नहीं पहुँचाई जा सकती, जैसे कि बाघ। लेकिन जहां एक प्रजाति को अशुभ या खतरनाक माना जाता है, उसे इस हद तक सताया जा सकता है कि उसके अस्तित्व को खतरा हो जाए। साथ ही, ऐसा भी होता है कि कुछ जानवरों के गुण इतने ज़्यादा प्रचलित है कि उनका शिकार होने लग जाता है या अवैध वन्यजीव व्यापार को बढ़ावा मिल जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके शरीर के अंगों की पारंपरिक चिकित्सा या अन्य किसी काम के लिए मांग की जाती है।

भारत और पाकिस्तान में, कई प्रजातियों को घरेलू कानून की मदद से शिकार और उत्पीड़न से कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाती है। वही दूसरी ओर CITES जैसे समझौते अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के पार व्यापार को विनियमित करते हैं। लेकिन अकेले कानून शायद ही कभी उन प्रजातियों के अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त होते हैं जो अलग-अलग तरह के खतरों के संपर्क में हैं, जिनमें से कुछ ऐसे जो संस्कृति और परंपरा से जुड़े हुए हैं।

पूरे दक्षिण एशिया में, ऐसे कई संरक्षण कार्यक्रम हैं जिनका उद्देश्य उन जानवरों की मदद करना है जिन्हें कभी उतना आकर्षक नहीं समझा गया। इन प्रोजैक्ट्स में उनके प्रति लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव को प्रोत्साहित किया जा रहा है। यहां हम ऐसी चार परियोजनाओं पर एक नज़र डाल रहे हैं।

पाकिस्तान में पैंगोलिन

पैंगोलिन शर्मीले निशाचर जानवर हैं। इनके शरीर में स्केल्ज़ का एक कवच है। इन स्केल्ज़ के कारण ही पैंगोलिन के विलुप्त होने का खतरा है। ऐसा इसलिए क्योंकि पारंपरिक चीनी चिकित्सा में पैंगोलिन शल्कों का उपयोग किया जाता है।हालाकि उनके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर अब प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन यह मांग अभी भी दक्षिण एशिया में पैंगोलिन को बड़े पैमाने पर अवैध शिकार की ओर ले जा रही है।

लुप्तप्राय भारतीय पैंगोलिन भी पाकिस्तान का मूल निवासी है। पाकिस्तान में कुछ गलत धारणाओं ने चींटियों को खाने वाले इन जानवरों पर ख़तरा डाल दिया है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-पाकिस्तान में संरक्षण और प्रकृति-आधारित समाधानों के वरिष्ठ प्रबंधक मुहम्मद वसीम कहते हैं कि एक समय ऐसा था जब लोगों को लगता था कि पैंगोलिन कब्र खोदते हैं और दफन मानव शरीरों को खाते हैं। इस धारणा ने समुदायों को जानवरों के खिलाफ कर दिया।

पंजाब वन्यजीव और उद्यान विभाग की मदद से पाकिस्तान के रावलपिंडी जिले में 2020 में एक भारतीय पैंगोलिन के साथ डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-पाकिस्तान के कर्मचारियों को बचाया गया (फोटो: डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-पाकिस्तान)

वसीम कहते हैं कि इस धारणा की वजह से रवैया ऐसा होगे था कि स्थानीय लोग शिकारियों और व्यापारियों को पैंगोलिन खोजने में उनकी मदद करने के लिए तैयार थे। लोग ये भी समझते थे कि पैंगोलिन एक महत्वहीन प्रजाति है और उनके गायब होने का कोई असर नहीं होगा। वसीम कहते हैं, “हमने महसूस किया कि पैंगोलिन के अवैध व्यापार के पीछे यही धारणाएं थीं।”

ये समझते ही डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-पाकिस्तान ने स्कूली बच्चों के साथ जागरूकता बढ़ाने सहित सामुदायिक दृष्टिकोण को बदलने के लिए कार्यक्रमों को डिजाइन करना शुरू किया। इसमें पैंगोलिन पर फिल्म्स की स्क्रीनिंग की गई और स्कूलों में जागरूकता सत्र आयोजित किए गए जहां बच्चे उनके पारिस्थितिक महत्व के बारे में सीखते हैं। इस एनजीओ ने छह समुदाय-आधारित पैंगोलिन संरक्षण क्षेत्र स्थापित किए हैं, जिनमें स्थानीय लोग गार्ड के रूप में कार्यरत हैं। वसीम कहते हैं, “समुदायों ने बताया है कि उन्हें अपने गांव के पास 86 पैंगोलिन मिले हैं।” पहले, वे डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के बजाय शिकारियों से संपर्क कर रहे थे, वे कहते हैं।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-पाकिस्तान अब देश भर के समुदायों को जानवरों की महत्वपूर्ण पारिस्थितिक भूमिका को बेहतर ढंग से समझने में मदद करने के लिए अपने पैंगोलिन कार्यक्रमों को बढ़ाने की योजना बना रहा है।

उत्तराखंड के कुमाऊं में कोबरा

किंग कोबरा सभी विषैले सांपों में सबसे बड़ा है। ये दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया का मूल निवासी है। किंग कोबरा का काटना संभावित रूप से घातक होता है लेकिन यह आमतौर पर मनुष्यों के लिए आक्रामक नहीं होता है, और ज्यादातर अन्य सांपों जैसे रैट स्नेक और यहां तक कि छोटे कोबरा को भी खाता है – यही कारण है कि इसे किंग कहा जाता है।

पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग और निवास स्थान के नुकसान की वजह से इन पर शिकार का ख़तरा है। कोबरा को विलुप्त होने की खतरे वाली प्रजातियों की IUCN लाल सूची में सूचीबद्ध किया गया है।

उत्तरी भारत के उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में किंग कोबरा का अध्ययन करने वाले एक वन्यजीव जीवविज्ञानी जिग्नासु डोलिया ने द् थर्ड पोल को बताया कि कुमाऊं और भारत के अन्य जगहों पर सांपों को अक्सर मार दिया जाता है क्योंकि लोगों को इस बात का डर होता है कि सांप उन पर हमला करेंगे। हालांकि ऐसा हमेशा नहीं है। हिंदू कैलेंडर में, सावन के महीने में कई हिंदू भगवान शिव की पूजा करते हैं। माना जाता है कि उनका सांपों से संबंध होता है। इस दौरान उन्हें मारना अशुभ माना जाता है। लेकिन सावन के बाद इस पर ज़्यादा विचार नहीं होता और सांपो का ना मारने का संकल्प कमज़ोर हो जाता है।

A king cobra in grass, Indonesia
भारत में, किंग कोबरा दक्षिण में पश्चिमी घाट में और पूर्वोत्तर क्षेत्र में पाया जाता है। वे घने जंगल और हिमालय की तलहटी में पाए जा सकते हैं। (फोटो: अलामी)

लेकिन पिछले 15 सालों से कुमाऊं में सांपों के संरक्षण और उन पर अध्ययन कर रहे डोलिया का कहना है कि उन्होंने स्थानीय समुदायों के नजरिए में सकारात्मक बदलाव देखा है। डोलिया का कहना है कि पिछले एक दशक में वन विभाग और स्थानीय सर्प बचाव दल को जानवरों को बिना नुकसान पहुंचाए वहां से हटाने के लिए कॉल में बढ़ोतरी हुई है। “लोग अब सांपों को मारने से बचते हैं और इसके बजाय किसी विश्वसनीय व्यक्ति के आने और सांप को पकड़ने का इंतजार करते हैं,” वे कहते हैं।

इसका एक कारण डोलिया के प्रयास भी हैं। डलिया किंग कोबरा के संरक्षण में स्थानीय समुदायों को ज़रूरी समझते हैं। उनका कहना है कि वह और उनकी टीम अक्सर ग्रामीणों को कोबरा के अध्ययन और संरक्षण में उनके समर्थन के लिए छोटी राशि की पेशकश करते हैं, जैसे कि उन्हें एक घोंसले तक ले जाना। “आमतौर पर किंग कोबरा के घोंसले का पता लगाना भूसे के ढेर में सुई खोजने के बराबर होता है। हमें जितने भी घोंसले मिले हैं, वे ग्रामीणों से मिली मदद की वजह से हैं। वे हमें सूचित कर रहे हैं और हमें सटीक साइट पर ले जा रहे हैं,” वे कहते हैं।

डोलिया कहते हैं कि वो हर साल क्षेत्रीय वन विभाग को किंग कोबरा के संरक्षण में मदद करने वाले लोगों के नामों की सूची देते हैं। फिर भारत के राष्ट्रीय वन्यजीव सप्ताह के दौरान, अक्टूबर में, विभाग इन लोगों को नकद पुरस्कार के साथ पुरस्कार देता है। “यह उनके प्रयासों के लिए सार्वजनिक रूप से सम्मानित होने के लिए उन्हें खुशी देता है, और कभी-कभी स्थानीय समाचार पत्रों में उनका नाम भी नज़र आता है,” वे कहते हैं।

Classroom of school children in Kumaon, India, learning to identify different kinds of snakes
जिग्नासू डोलिया कुमाऊं में स्थानीय समुदायों के बीच सांपों की पहचान करने में मदद करने के लिए जागरूकता कार्यक्रमों का नेतृत्व करते हैं (छवि © जिग्नासु डोलिया)

पाकिस्तान में गिद्ध

अपनी तेज़ दृष्टि और सूंघने की शक्ति के साथ, गिद्ध प्रकृति को साफ़ रखने के लिए मृत जानवरों के शवों को खाते हैं। इकोसिस्टम की स्थिरता और मानव स्वास्थ्य के लिए यह प्राकृतिक ‘सफाई’ भूमिका आवश्यक है, क्योंकि गिद्ध शवों का सेवन करते हैं, ये शव बीमारी का स्रोत बन सकते हैं।

लेकिन दक्षिण एशिया के कई क्षेत्रों में, उनके पर्यावरणीय महत्व से उनकी प्रतिष्ठा को कोई लाभ नहीं हुआ है। बोलचाल के प्रयोग में, ‘गिद्ध’ का प्रयोग अक्सर उन लोगों के लिए किया जाता है जो अविश्वसनीय, लालची और भ्रष्ट हैं। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-पाकिस्तान में गिद्ध संरक्षण कार्यक्रम की देखरेख करने वाली उज़्मा खान कहती हैं कि गिद्धों के बारे में शायद ही कभी सकारात्मक रूप से बात की जाती है, और देश में राजनेताओं की आलोचना करने के लिए ‘गिद्ध’ एक सामान्य शब्द है।

आज, गिद्ध दुनिया के पक्षियों के सबसे लुप्तप्राय समूहों में से हैं। 1990 के दशक के बाद चार दक्षिण एशियाई प्रजातियां पशु चिकित्सा दवा के इस्तेमाल के कारण गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं। ये दवा पक्षियों के लिए घातक हैं।

Two Indian White rumped vultures
1990 के दशक की शुरुआत से गिद्धों की आबादी पूरे दक्षिण एशिया में घटी है। 1992 और 2007 के बीच भारत और पाकिस्तान के मूल निवासी सफेद पूंछ वाले गिद्धों (ऊपर) की संख्या में 99.9% की गिरावट आई है। इस जनसंख्या दुर्घटना का कारण डाइक्लोफेनाक था, जो पशुधन की खेती में इस्तेमाल की जाने वाली दवा थी, जो उन गिद्धों के लिए घातक साबित हुई, जिनका पेट भरा हुआ था। मर चुके जानवरों पर पाकिस्तान, भारत और नेपाल ने 2006 में इस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसके चार साल बाद बांग्लादेश ने प्रतिबंध लगा दिया। (फोटो: मंजीत और योगराज जडेजा / अलामी)

खान कहती हैं कि पाकिस्तान में गिद्धों के रूप-रंग के कारण उनके संरक्षण के लिए पैसा जुटाना शुरू में मुश्किल था। “हिम तेंदुए या पेंगुइन के लिए धन जुटाना आसान होगा,” वह कहती हैं।

पाकिस्तान में गिद्ध की छवि को बदलने की कोशिश करने और लोगों को पक्षियों को एक नई रोशनी में देखने में मदद करने के लिए, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-पाकिस्तान उनके पारिस्थितिक महत्व को समझाने के लिए जागरूकता अभियानों का इस्तेमाल कर रहा है। गिद्धों को अशुद्ध जानवरों के रूप में देखा जाता है। स्कूल और सामुदायिक कार्यक्रमों में इस छवि को बदलने की कोशिश की जा रही है। खान कहते हैं, “हम यह भी समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि गिद्ध स्वच्छ पक्षी हैं, हम लोगों को गिद्ध के नहाने की तस्वीरें दिखाते हैं।”

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-पाकिस्तान के गिद्ध संरक्षण कार्यक्रम के हिस्से के रूप में सिंध प्रांत और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में गिद्ध-सुरक्षित क्षेत्र और कैप्टिव प्रजनन सुविधाएं स्थापित की गई हैं। 2021 में, पंजाब के चंगा मंगा फ़ॉरेस्ट रिज़र्व में एक कैप्टिव ब्रीडिंग फैसिलिटी में तीन गिद्धों के चूज़ों को देखा गया।

गुजरात में व्हेल शार्क

सिर्फ़ सांस्कृतिक मूल्य ही वन्य जीवन के प्रति सामुदायिक दृष्टिकोण को आकार नहीं देती, बल्कि उससे जुड़ी आर्थिक मूल्य भी महत्वपूर्ण है। ऐसा ही एक मामला दुनिया की सबसे बड़ी मछली व्हेल शार्क का है, जो दुनिया भर के ट्रॉपिकल महासागरों में पाई जाती है।

1990 के दशक और 2000 के दशक की शुरुआत में, पश्चिमी भारत में गुजरात के सौराष्ट्र तट पर व्हेल शार्क का भारी शिकार किया गया था, मार्च 1999 और मई 2000 के बीच राज्य में 600 तक पकड़े गए थे। भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट में व्हेल शार्क संरक्षण के प्रमुख फारुख बलोच का कहना है कि शार्क के पंख और मांस एक्सपोर्ट किया जाता था और उसके जिगर के तेल का उपयोग स्थानीय लोगों द्वारा अपनी नावों पर लगाने के लिए किया जाता था।

a life-sized inflatable model of a whale shark in the middle of a crowd of people, town square Gujarat, India
2014 में शुरू हुए एक सहयोगात्मक अभियान में, भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट और गुजरात वन विभाग ने टाटा केमिकल्स लिमिटेड के समर्थन से जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया है। इनमें स्थानीय भाषा में नुक्कड़ नाटकों, स्कूल के दौरे और संरक्षण के विषय पर पेंटिंग प्रतियोगिताओं के साथ-साथ व्हेल शार्क के आदमकद इन्फ्लेटेबल मॉडल को दिखाया गया है। (फोटो: महेशभाई (पोरबंदर) / वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया)

2001 में, व्हेल शार्क भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची I के तहत कानूनी संरक्षण प्राप्त करने वाली पहली मछली बन गई, जिसमें प्रजातियों के शिकार और क़ब्ज़े पर रोक लगा दी गई थी। बलोच का कहना है कि प्रजातियों से जुड़े उच्च मौद्रिक मूल्य के कारण मछली पकड़ने वाले समुदाय को शिकार शार्क को रोकने के लिए शुरुआत में बहुत मुश्किल था। इसलिए, केवल एक जागरूकता कार्यक्रम पर्याप्त नहीं होता, वह कहते हैं।

इसलिए इस कार्य में धार्मिक नेताओं को सक्रिय रूप से शामिल करना संरक्षण प्रयासों का एक अभिन्न अंग बन गया। बलोच ने कहा कि अभियान ने धार्मिक नेता मोरारी बापू का समर्थन मांगा, जिन्होंने स्थानीय समुदाय से प्रजातियों को न मारने की अपील जारी की और व्हेल शार्क को एक हिंदू देवता का अवतार घोषित किया।

Five men lean off the side of a small boat, trying to remove orange netting from a whale shark in the water
इस परियोजना ने मछली पकड़ने के गियर में फंसी व्हेल शार्क के सुरक्षित और त्वरित बचाव में गुजरात के मछुआरों को प्रशिक्षित किया है, और एक मोबाइल ऐप के माध्यम से दुर्घटनावश पकड़े जाने का दस्तावेजीकरण किया है (फोटो: फारुखखा बलोच / वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया)

परियोजना का एक अन्य पहलू व्हेल शार्क को बचाने वाले मछुआरों को एक छोटा सा वित्तीय पुरस्कार प्रदान करना भी था। बलोच कहते हैं, थोड़ी देर बाद, जब मछुआरे बिना किसी भुगतान के अपने जाल में फंस गए तो उन्होंने विशाल मछली को बचाना शुरू कर दिया। लेकिन प्रारंभिक राहत ने स्थानीय समुदायों के बीच प्रेरणा और भागीदारी बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

बलोच कहते हैं, आखिरकार इन प्रयासों ने मछली पकड़ने वाले समुदाय में एक बड़ी बदलाव के साथ फल दिया। “मछुआरे जो कभी व्हेल शार्क को जानबूझकर पकड़ रहे थे, अब उस बचाव के लिए किसी भी समर्थन के बिना मछली पकड़ने के जाल को काटकर गलती से पकड़े गए व्हेल शार्क को सुरक्षित रूप से वापस छोड़ रहे हैं।” बलोच का कहना है कि पिछले 20 वर्षों में गुजरात में प्रजातियों का “शून्य शिकार” दर्ज किया गया है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, व्हेल शार्क संरक्षण परियोजना के तहत पिछले दो वर्षों में 91 व्हेल शार्क को बचाया गया है।