पूर्ववर्ती सरकार द्वारा पर्यावरण मंजूरी देने में बरती जा रही कड़ाई से उकताए उद्योगपतियों और देश के विकासदर में आई गिरावट से हताश भारत के मध्यवर्ग ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में जो नई सरकार बनवाई है, उससे यह अपेक्षा भी नहीं थी कि वह पर्यावरण को लेकर बहुत संजीदा होगी. यह स्पष्ट हो गया था कि अब पर्यावरण और विकास के बीच के द्वंद्व में, पर्यावरण ही मात खाने वाला है. जिस बेताबी से मोदी सरकार अपने इरादे जाहिर कर रही है, वह चिंतित करने वाली है.
मोदी और उनके मंत्रियों का शपथग्रहण 26 मई को हुआ लेकिन एक महीने से भी कम समय में उन्होंने अपनी रंगत दिखानी शुरू कर दी. सरकार के शुरुआती फैसलों की बात करें तो उसने विवादित नर्मदा बांध की ऊंचाई 17 मीटर बढ़ाते हुए बांध को 138.6 मीटर ऊंचा करने को हरी झंडी दे दी. इस तरह नर्मदा बांध अमेरिका के ग्रैंड कूले के बाद दूसरा सबसे ऊंचा कंक्रीट भाराश्रित बांध (Gravity Dam) होगा जो कई हजार लोगों के घर और आजीविका दोनों को लीलने वाला है.
अरूणाचल प्रदेश और लद्दाख में भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा के पास सड़क निर्माण को मंजूरी देने, पारिस्थितिक रूप से बेहद संवेदनशील माने जाने वाले अंडमान निकोबार द्वीप, जो उस नार्कोनडैम ह़ॉर्नबिल का प्राकृतिक आवास है जो दुनिया में कहीं और नहीं पाया जाता, में राडार स्टेशन बनाने जैसे विकास कार्यों को द्रुत गति से आगे बढ़ाने पर जोर देने वाले बयान देकर नए पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर लगातार यह संकेत दे रहे हैं कि वह उद्योगोन्मुखी एजेंडे के साथ ही आगे बढ़ेंगे.
सरकार के पर्यावरण विरोधी बयानों को बल देने का कार्य खुफिया ब्यूरो (आईबी) की उस रिपोर्ट ने किया है जिसमें कई एनजीओ को मिलने वाली आर्थिक सहायता पर प्रश्न खड़े किए गए हैं. इनमें से बहुत से एनजीओ ऐसे हैं जो कोयले या नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों और बेतहाशा खनन के विरोध में चल रहे अभियानों की अगुआई कर रहे हैं इसलिए उनपर भारत के विकास में अड़चन डालने की साजिश के आरोप लगाए जा रहे हैं. ये गोपनीय रिपोर्टें मीडिया में भी छप गईं. सत्ता के गलियारों में फिलहाल जो चर्चा हो रही है उससे तो यही लगता है कि सरकार एक्टिविस्टों का दमन करना चाहती है ताकि भारतीय उद्योग जगत बिना किसी बाधा के अपने विकास के लक्ष्य की ओर सरपट दौड़ सके.
अभी आगे-आगे देखिए होता है क्या. पर्यावरण की रखवाली के लिए नियुक्त सरकार का प्रतिनिधि, पर्यावरण मंत्री, ही खुद जब कहने लगें कि मंजूरी की शर्तों में थोड़ी ढिलाई की जाएगी ताकि रक्षा मंत्रालय को वास्तिवक नियंत्रण रेखा के 100 किलोमीटर के दायरे में सड़क निर्माण जैसे सामरिक महत्व के फैसले लेने में पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी की आवश्यकता न रहे. यह चिंता का विषय है. मजेदार बात यह है कि फिलहाल ऐसा बताया जा रहा है कि 80 सड़कों और इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण के कई प्रोजेक्ट इसलिए स्थगित हैं क्योंकि उन्हें पर्यावरण मंजूरी नहीं मिल पाई है.
एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 120,000 करोड़ रुपये (तकरीबन 20 अरब अमेरिकी डॉलर) के प्रोजेक्ट जो मंजूरी की प्रतीक्षा में रुके पड़े थे, उन्हें शीघ्र ही मंजूरी दी जा सकती है. बड़े बांधों के औचित्य और विस्थापन के कारण उजड़े परिवारों के पुनर्वास की आवश्यकता पर एक गहन और तीखी बहस का केंद्र बने नर्मदा बांध का क्या? चर्चित एक्टिविस्ट मेधा पाटकर के मुताबिक बांध की ऊंचाई बढ़ाने का अलोकतांत्रिक फैसला बिना जमीनी हकीकत का आंकलन किए लिया गया है. जो पहले ही विस्थापित हुए थे उनका पुनर्वास करना अभी बाकी है. ऊंचाई बढ़ाने से बहुत सारे और गांव पानी में समा जाएंगे.
पर्यावरण के विशेषज्ञों ने तो पहले भी इस ओर ध्यान आकृष्ट कराया था कि प्रधानमंत्री का गृह प्रदेश गुजरात और पड़ोसी रेगिस्तानी प्रदेश राजस्थान वर्तमान ऊंचाई पर भी इस बांध के पानी का 20 प्रतिशत भी इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे. इस तरह एक लंबे संघर्ष का अनिष्टकारी निर्णय हो जाएगा जिसमें सरकार ने जोर-जबरदस्ती अपनी मनमानी कर ही ली है.
ग्रीनपीस के सामित ऐच ने एक इंटरव्यू में कहा था, “अगर हम कड़ियों को जोड़कर देखने की कोशिश करें तो, नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़ाने का फैसला और खुफिया ब्यूरो की खबर का लीक होना, दोनों एक ही समय में हुए हैं. इसलिए इन दोनों के बीच आपसी संबंध की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता और ऐसी आशंका नर्मदा बचाओ आंदोलन चलाने वाली जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर जैसे लोग भी जता चुके हैं जो पिछले कई दशकों से नर्मदा के लिए संघर्ष कर रहे हैं.”
ग्रीनपीस जैसे प्रहरी पर्यावरण-उद्योग संघर्ष के बीच एक धमाके की तरह हैं. ग्रीनपीस ने पता लगाया कि हिंडाल्को और एस्सार जैसे बड़े उद्योग जमीन के अंदर दबे कोयले को बेतहाशा निकालने के चक्कर में जिस तरह अरबों रुपये बहा रहे हैं, मध्य प्रदेश के महन क्षेत्र के सागौन वनों के पूरी तरह खत्म हो जाने का खतरा पैदा हो गया है. वहां के स्थानीय लोग अपना सबकुछ गंवा देंगे. यह तो समस्या की बस शुरुआत है जो पर्यावरण और विकास के बीच होने वाले उस संघर्ष का प्रतिनिधित्व कर रहा है जिससे हर समाज को दो-चार होना पड़ता है. लेकिन एक के चक्कर में दूसरे की पूरी अनदेखी करना आपदाओं को निमंत्रण देने जैसा होगा.
पिछले साल जून में उत्तराखंड में आई बाढ़ जिसमें हजारों लोगों की जान गई, से हमें निरंकुश विकास के खतरों के प्रति सबक लेने की जरूरत है. पीड़ित परिवार अपने प्रियजनों की मौत की पहली बरसी पर आंसू बहा रहे हैं. अधिकारी वर्ग ने अबाधित पर्यटन पर कुछ लगाम लगाने व बेतहाशा इंफ्रास्ट्रक्चर व दूसरे निर्माण कार्यों पर थोड़ा अंकुश लगाने के लिए पूर्व मंजूरी को अनिवार्य बनाने का सुझाव रखा है. यह प्रयास स्वागत योग्य है.
विकास समय की जरूरत है लेकिन साथ ही साथ उसके संतुलन और नियंत्रण के उपाय भी करने होंगे. जितनी अहमियत बड़ी कंपनियों के मुनाफे के बढ़ते ग्राफ की होती है, इंसान की अहमियत उससे कम नहीं होती. भारत के विकास की कहानी के नए संरक्षक इस बात को अपने दिमाग में बैठा कर रखेंगे.
(मीनू जैन, नई दिल्ली की एक पत्रकार और संपादक हैं)