पश्चिम बंगाल में नववर्ष के उत्सवों के प्रारंभ होने के साथ ही, सरसों के तेल में भुनी हुई इलिश भाजा एवं हिल्सा के साथ बंगाल के परंपरागत दिन के भोजन की शुरुआत हो जानी चाहिए थी, किन्तु आज कोलकाता के घरों में यह एक किवदंती बन चुकी है। कभी ‘हिल्सा गांव’ नाम से प्रसिद्ध बाक्सी गांव में अब हिल्सा लगभग एक इतिहास बन चुकी है। कोलकाता से 55 किमी की दूरी पर रूपनारायण नदी के किनारे स्थित बाक्सी गांव को यह उपनाम इसलिए दिया गया क्योंकि इस गांव के अधिकतर निवासी मछलियों की इस मुखिया को पकड़ने या बेचने में लंबे समय तक लगे रहे हैं। लेकिन वर्तमान में हिल्सा, गंगा की उपनदी ‘रुपनारायण’ जो कि गंगा नदी के बंगाल की खाड़ी में गिरने से तुरंत पहले ही उसमें जा मिलती है, के अलावा कहीं नहीं मिलती। रुपनारायण नदी के मत्यस्य जीवी यूनियन, जो कि क्षेत्रीय मछुआरों का एक क्षेत्रीय मंच है, के सचिव विमल मंडल ने www.thethirdpole.net को यह बताया, “पहले बाक्सी गांव के कुल 650 परिवारों में से 400 परिवार खासतौर पर हिल्सा को ही पकड़ने में पूरी तरह संलग्न रहते थे।” हालांकि अब बीते दिनों के साथ इन मछलियों की गिरती संख्या के कारण अधिकतर मछुआरे या तो दूसरी अन्य मछलियों को पकड़ने लगे हैं या उनमें से कइयों ने तो अपना मछली पकड़ने के व्यवसाय को छोड़कर दूसरा व्यावसाय अपना लिया है। हावड़ा जिले के लगभग सभी गांवों में एक जैसी ही स्थिति है क्योंकि अब रुपनारायाण नदी में भी हिल्सा की संख्या काफी कम रह गयी है।
रुपनारायण नदी के किनारों पर मछली पकड़ने की नावें अब उलटी पड़ी रहती हैं। पश्चिम बंगाल के बाक्सी गांव में चांदी जैसी चमक वाली हिल्सा मछली का विलुप्त हो जाना अब एक बहुत ही सामान्य सी बात हो चुकी है। “सेंट्रल इन्लैंड फिसरीज रिसर्च इंस्टीट़्यूट” एवं राज्य सरकार के मत्स्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार पकड़े जाने वाली हिल्सा मछलियों की मात्रा जो कि 2000-01 में 77,912 टन थी, 2014-15 में गिरकर 9,887 टन के स्तर पर आ गई है जो कि मछलियों के उत्पादन में 90 प्रतिशत की कमी को दर्शाता है। सीआईएफआरई के ‘रिवराइन इकोलॉजी एवं फिसरीज डिवीजन’ के प्रमुख उत्पल भौमिक ने thethirdpole.net को बताया कि वर्ष 2010-11 को छोड़कर जब मछलियों के उत्पादन में बम्पर बढ़ोतरी हुई थी उनके उत्पादन में यह कमी लगभग प्रत्येक वर्ष एक जैसी (सिलसिलेवार) रही है।
हिल्सा का उत्पादन 80 फीसदी तक गिरा
आंकड़े बताते हैं कि मछलियों के उत्पादन में यह कमी समुद्री जलक्षेत्र की तुलना में नदियों के प्रवाह की विपरीत दिशा में कहीं ज्यादा है। वर्ष 2000 से 2015 के बीच पश्चिम बंगाल के तटीय किनारों पर हिल्सा मछली का उत्पादन 80 प्रतिशत तक (44,810 टन से 8,900 टन तक) गिर गया है जबकि इन्लैंड उत्पादन लगभग 97 प्रतिशत (33,102 से 987) टन तक कम हो चुका है। धीरे धीरे यह देखा जा रहा है कि हिल्सा बंगाल की खाड़ी की तरफ पलायन करती जा रही है। भौमिक के अनुसार “हिल्सा के उत्पादन से संबंधित आंकड़े यह साफतौर पर दर्शाते हैं कि किस प्रकार नदी की विपरीत दिशा में इसका पलायन बुरी तरह प्रभावित हुआ है।” इस प्रवृत्ति के पीछे गंगा नदी में बढ़ता अवसादन एवं उसके फलस्वरुप नदी की गहराई एवं इस्चुरी में उत्तरोत्तर होती कमी जैसे प्रमुख कारण हैं।
हिल्सा मछली को समुद्र से प्रवेश करने से काफी पहले नदीमुख पर लगभग 40 फीट गहरे जल की आवश्यकता होती है। कई वर्षों से गंगा के नदी मुख पर पानी की गहराई कभी भी 30 फीट से अधिक नहीं रही है, यहां तक कि गैरमानसून महीनों में पानी का स्तर कभी-कभी इससे भी नीचे चला जाता है। इसके अतिरिक्त नदी के विपरीत प्रवाह में कई स्थानों पर बढ़ा हुआ अवसादन समस्या को काफी गंभीर बना देता है। भौमिक के अनुसार, हिल्सा मछली वास्तव में गंगा नदी के मुख पर एकत्र होती हैं लेकिन अधिकांश वहां पर पानी के कम होने के कारण बांग्लादेश एवं म्यांमार की ओर पलायन कर जाती हैं। मछलियों का यह पलायन इसलिए भी आश्चर्य जनक है क्योंकि मानसून के महीनों में अंडे देने के लिए यह मछलियां नदी के प्रवाह की विपरीत दिशा में आती हैं। पानी की कमी के अतिरिक्त अत्यधिक पकड़/शिकार के कारण भी इन मछलियों का उत्पादन/पकड़ निश्चित रूप से कम होता जा रहा है।
प्रतिबंध का असर नहीं
पश्चिम बंगाल सरकार ने हिल्सा मछली के मुख्य ब्रीडिंग महीने अक्टूबर में पूर्णचंद्र के आसपास इस मछली के पकड़ने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। गंगा नदी में जिन तीन क्षेत्रों को हिल्सा सेंचुरी घोषित किया है, वे हैं डायमंड हार्बर के निकट गोडाखाली; त्रिवेनी के पास हुगली घाट एवं लालबाग-फरक्का। यहीं से ही हिल्सा मैनेजमेंट मॉडल की शुरुआत हो जाती है जो बांग्लादेश में काफी सफल हुआ है लेकिन पश्चिम बंगाल में प्रतिबंध केवल कागज पर ही सिमट कर रह गये हैं।
अंतरर्राष्ट्रीय यूनियन ऑन कंजरवेशन ऑफ नेचर की बांग्लादेश एवं भारत में हिल्सा मछली की पलायन करने, अंडे देने एवं इसके संरक्षण की तरीके पर आधारित एक अध्यनों पर आधारित रिर्पोट के अनुसार, ” पूर्व की स्टडी के अनुसार (गंगा नदी पर 1974 में फरक्का बैराज के बनने से पहले) गंगा नदी तंत्र की हिल्सा मछलियां अपनी प्रचुरता की स्थिति में आगरा, कानपुर एवं दिल्ली तक प्रवासन कर जाती थीं / चली जाती थीं, जबकि सामान्य स्थिति में यह इलाहाबाद तक भी पायी जा सकती थीं एवं इसकी अधिकतम संख्या बक्सर तक देखी या पायी जा सकती थी।
राजशाही की मछली
भारत एवं बांग्लादेश के विशेषज्ञों की ज्वांइट टीम ने भी इस बात को इंगित किया कि हिल्सा मछली नदी में अब अपने समुदाय या झुंड में नहीं चलती हैं। अब इन मछलियों का प्रवासन काफी हद तक नदी की इस्चुरी के 75 किमी. के आस-पास वाले क्षेत्र में डायमंड हार्बर तक सीमित रह गया है, जबकि मानसून के समय मछलियों की संख्या का कुछ भाग नदी की धारा के प्रतिकूल (नदी के ऊपरी हिस्से में) भी चला जाता है। मध्यकाल में मुगल राजवंश के इतिहासकारों के अनुसार मुगल सम्राट गंगा नदी के मुख की विपरीत 1,500 किमी. की दिशा में अपनी राजधानियों आगरा एवं दिल्ली में भी हिल्सा का आनंद लेते थे एवं प्रत्येक वर्ष मानसून के समय उन्हें इन मछलियों के पहुंचने का इंतजार रहता था। ब्रिटिश इतिसकारों ने दिल्ली में गंगा की सबसे बड़ी उपनदी यमुना के तटीय किनारों पर 19वीं सदी के कई दृश्यों के बारे में वर्णन किया है।
हिल्सा के इतिहास बनने की वजह?
आईयूसीएन की रिपोर्ट के अनुसार मछलियों का अतिउपभोग, नदी तल में निरंतर गाद का जमा होते रहना, नदी के ऊपरी भाग से पानी के वहाव का कम होना एवं कम वर्षा के समय नदी का कई भागों में टूटना आदि कुछ ऐसे मानवीय एवं भौतिक कारण हैं जिनका हिल्सा मछली के प्रवास पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। इसके अतिरिक्त औद्योगिक एवं घरेलू स्रोतों से गंगा में बढ़ता हुआ प्रदूषण भी समस्या को बढ़ाने वाला एक बड़ा कारक है।
मौजूदा दिक्कत
अंत:देशीय गंगा बेसिन से हिल्सा की समाप्ति के बाद यह समस्या इस्चुरी एवं समुद्र तक फैल चुकी है। हिल्सा के गिरते उत्पादन के पीछे खाड़ी में इसका अतिभोग एक महत्वपूर्ण कारण है। इससे संबंधित कानूनों का लगभग न के बराबर अमल एवं बहुत ही निम्नस्तरीय निगरानी ने इस समस्या को और विकराल बना दिया है। जाधवपुर विश्वविद्यालय, कोलकाता में स्कूल ऑफ ओशिनोग्राफीक स्टडीज की निदेशक सुनीता हाजरा ने www.thethirdpole.net को बताया कि “किशोर एवं छोटी हिल्सा मछली के बच्चों को संरक्षित रखने के लिए इस मछली के शिकार पर पूरी तरह कठोर प्रतिबंध लगा देना चाहिए।”
हिल्सा सुंदरबन में गंगा नदी के अन्य मुखों से अंडे देने के लिए नदी की धारा के विपरीत (ऊपर की ओर) प्रवासन करती थी। लेकिन अब सुंदरबन का जल, जोकि विश्व का सबसे बड़ा मैंग्रेव वन है, का पानी धीरे धीरे खारा होता जा रहा है। इसका आंशिक कारण जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र तल में इजाफे एवं ताजे पानी की कम होती मात्रा का नदी में मिलना है। हिल्सा अत्यधिक खारे पानी में अंडे देने में सक्षम नहीं है।
हाजरा के अनुसार, भारतीय क्षेत्र में हिल्सा मछलियों की संख्या तभी बढ़ सकती है जब हमारे जलक्षेत्र में गैर मानसूनी लवणता को कम करके 14 पार्टस प्रति 1000 (पीपीटी) के स्तर तक लाया जा सके। मेघना नदी में मानसूनी लवणता का स्तर 2 पीपीटी से भी कम होने के कारण ही बांग्लादेश में हिल्सा की संख्या/उत्पादन तुलतात्मक रूप से कहीं अधिक है। जबकि वर्तमान में पश्चिम बंगाल के सुंदरबन क्षेत्र में गैर-मानसून महीनों के दौरान लवणता का स्तर लगभग 30 पीपीटी है।
किसी भी कानून की अवज्ञा
बांग्लादेश की तरह भारत में भी ‘गिल’ जाल को प्रतिबंधित किया गया है, यह जाल 38-51mm का आकार होता है जिसमें सभी आकार की मछलियां फंस जाती हैं, जिनमें किशोर मछलियां भी शामिल हैं। लेकिन वर्ष के किसी भी समय गंगा की इस्चुरी के सागर एवं नामखाना क्षेत्र के 35 किमी के फैलाव में लगभग 8000 ट्रालर 1 किमी लम्बे गिल नेट (जाल) का इस्तेमाल मछली पकड़ते हुए दिखाई दे जाएंगे। इसके परिणाम स्वरूप हिल्सा के नदी के जल में ऊपर नीचे तैरने की संभावना काफी कम हो जाती है।
इस बात पर अब ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हिल्सा को पसंद करने वाले अब गंगा के अलावा भी अन्य जलक्षेत्रों में इसकी तलाश करने लगे हैं। अब हिल्सा भारतीय प्रायद्वीप की अनेक उन नदियों में अंडे देने के लिए प्रवास करती हैं जो बंगाल की खाड़ी एवं अरब सागर में गिरती हैं। हिल्सा मछलियों की एक बड़ी संख्या उड़ीसा, जो कि पश्चिम बंगाल से जुड़ा राज्य है, में महानदी तक अपना प्रवास करती हैं। यह उड़ीसा में एक अत्यधिक मूल्यवान मछली मानी जाती है।
लेकिन गंगा में हिल्सा की स्थिति की तरह, दूसरी अन्य नदियों में भी हिल्सा मछलियों का वार्षिक प्रवासन बैराजों एवं बांधों के निर्माणों द्वारा बुरी तरह प्रभावित होता है। हिल्सा मछलियों की प्रवासन की इन प्रवृतियों का अध्ययन करने के बाद भौमिक ने कहा कि महानदी, गोदावरी, कृष्णा जैसी नदियों में इन मछलियों का प्रवासन नदी मुख से 100 किमी तक ही जा पाती हैं, जब ये मछलियां पहले बांध पर पहुंचती हैं एवं उसके आगे जाने में अक्षम रहती हैं। कावेरी नदी में हिल्सा मछलियां लगभग 50 किमी से थोड़ी अधिक दूरी तैरने के बाद ही पहले बांध पर पहुंच जाती हैं। भौमिक द्वारा इस विषय पर लिखा गया एक पेपर पिछले वर्ष नबंवर में ‘अंतररार्ष्ट्रीय जरनल ऑफ करेंट रिसर्च एंड ऐकेडेमिक रिव्यू’ में प्रकाशित हुआ था। अन्य हिल्सा प्रजातियों की मछलियां अरब सागर में मिलती हैं जिनमें से दो नर्मदा एवं तापी नदियों में निरंतर प्रवास करती रहती हैं। भौमिक के अनुसार, नर्मदा नदी में जल प्रवाह के बहुत तीव्र होने के कारण हिल्सा केवल 100 किमी तक ही नदी के विपरीत दिशा में प्रवास कर पाती हैं। तापी नदी में इसके प्रवासन का बुरी तरह से प्रभावित होने का कारण गुजरात में उकाई एवं काकरापार बांधों का होना है।
पश्चिम बंगाल के बाहर भारत के अधिकांश क्षेत्रों में नर्मदा नदी हिल्सा मछली के मुख्य स्रोतों में से एक बन गयी है। अधिकांश मछलियां जो दिल्ली एवं मुम्बई के बाजारों में बेची जाती हैं वे नर्मदा में पकड़ी जातीं हैं। प्रवासी बंगाली हिल्सा को बहुत ही उत्सुकतापूर्वक खरीदते हैं, यद्यपि वे इस बात पर जोर देते हैं कि गंगा की हिल्सा मछली का स्वाद कहीं भी और पकड़े जाने वाली हिल्सा मछली से ज्यादा अच्छा होता है। लेकिन गंगा एवं मेघना नदी बेसिन के बाहर अगर किसी हिल्सा मछली की स्मृतियां जो पुराने लोगों के मुंह में आज भी पानी ला देती है, वो है कराची की हिल्सा। सन् 1947 में भारत-पाकिस्तान के विभाजन के बाद भारतीय लोग उस हिल्सा मछली का स्वाद चखने से वंचित रहे हैं लेकिन जिन्होंने भी उसे पहले खाया है उसका स्वाद नहीं भूल सकते हालांकि वे उसका नाम तक भूल चुके हैं।