जनवरी के अंत में वित्त मंत्रालय ने अपना वार्षिक सर्वेक्षण प्रकाशित किया। इस रिपोर्ट में तेजी से बढ़ते शहरीकरण के आंकड़े थे जोकि देश में वेटलैंड्स के खतरों की ओर इंगित कर रहे हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार, देश में 38 करोड़ लोग शहर में रह रहे हैं, जोकि 1991 में 22 करोड़ की जनसंख्या से काफी ज्यादा है। तब यह संख्या कुल जनसंख्या की एक चौथाई थी। शहरी जनसंख्या की यह रफ्तार 2031 तक 40 फीसदी या 60 करोड़ तक पहुंच सकती है। सर्वे के मुताबिक, शहरों में बसने वाले अधिकतर लोग बड़े शहरों की ओर रुख कर रहे हैं।
2011 जनगणना के अनुसार, लगभग 6.5 करोड़ लोग पहले से ही इन शहरों की झुग्गियों में रह रहे हैं।
शहरीकरण की यह विशाल प्रक्रिया वेटलैंड्स को सीधे तौर पर प्रभावित कर रही है। फलस्वरूप, इससे शहरी जीवन की गुणवत्ता का निर्धारण भी खत्म होता जाएगा। जबकि सरकार द्वारा शहरीकरण का वेटलैंड्स पर प्रभाव कम करके बताया गया है, जिसमें कहा गया है कि केवल कुछ पर ही असर पड़ा है। भारतीय विज्ञान संस्थान के अध्ययन में कहा गया है कि बेंगलुरु के अंदर और आसपास वेटलैंड्स अपने कुल क्षेत्र से 99.8% तक कम हो चुके हैं। अध्ययन में ये भी कहा गया है कि 1973 के 207 जलस्त्रोतों के मुकाबले 2010 में यह संख्या 93 तक आ चुकी है। जबकि 72 प्रतिशत झीलें अपना वास्तविक रूप खो चुकी हैं और उनमें भी 66 फीसदी आज सीवेज का अड्डा हैं, वहीं 14 फीसदी झुग्गियों में तब्दील हो गई हैं।”
उत्तर से दक्षिण तक गायब हो रहे हैं वेटलैंड्स
आज़ादी से पहले शाही शासनकाल से ही दक्षिण भारतीय राज्य कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू अपने बगीचों और सार्वजनिक स्थानों के लिए प्रसिद्ध है। भारत की ‘सिलिकन वैली’ और 85 लाख की जनसंख्या वाले शहर बेंगलुरु में जल स्त्रोतों की इस तबाही से आधुनिक शहरीकरण के मॉडल की समस्याएं स्पष्ट हैं।
इस मामले में बेंगलुरु अकेला नहीं है, 2011 में दिल्ली के एक अध्ययन के मुताबिक राष्ट्रीय राजधानी इलाके वाले दिल्ली के 629 जल स्त्रोतों को चिन्हित किया गया, जिसमें 232 को बड़ी मात्रा में अतिक्रमित पाया गया। हिमालयी क्षेत्र की बात करें तो सिर्फ जम्मू-कश्मीर में वेटलैंड्स पर काफी मात्रा में अतिक्रमण हुआ है, जिसमें प्रसिद्ध कश्मीर घाटी के जल स्त्रोतों का पानी भी शामिल है जोकि पिछली सदी में गायब हो चुका है।
सभी शहर जल स्रोतों के आसपास ही बसाए गए हैं ताकि स्थानीय निवासियों को भी पानी मिल सके, किसान अन्न उपजा सकें और मछुआरे शहर की ज़रूरतों को पूरा कर सकें। जैसे-जैसे शहरों में जनसंख्या बढ़ी इसका सीधा असर यहां स्थित नदियों, तालाबों और झीलों समेत वेटलैंड्स पर भी पड़ा। लगातार बढ़ती जनसंख्या ने अतिक्रमण को ज़बरदस्त बढ़ावा दिया। यहां अतिक्रमण करने वाले लोग अमीर और ग़रीब दोनों ही श्रेणी के होते हैं। अंतर केवल इतना होता है कि अमीर इन ज़मीनों को रजिस्टर करवा लेते हैं। चाहे वह क़ानूनन वैध तरीके से हो या अवैध तरीके से। जबकि गरीबों की सर पर छत पाने की चाहत परिधीय इलाकों पर अतिक्रमण का कारण बनती है।
लेकिन जैसे-जैसे वेटलैंड्स के ऊपर सीमेंट के जंगलों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे शहर अपनी प्राकृतिक खूबसूरती से दूर होता जा रहा है। इसका सीधा असर तापमान में बदलाव, बाढ़ के पानी का भूमिगत जलाशयों में ना पहुंच पाना। इसके कारण ऊर्जा का ज़्यादा इस्तेमाल होता है। लोगों को गर्मियां और में पहले से अधिक गर्मी होती जाती है और ठण्ड के मौसम में अतिरिक्त ठण्ड का सामना करना पड़ता है। वहीं शहरों में बाढ़ की भी समस्या में लगातर इज़ाफ़ा होता जा रहा है। जलस्तर में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। इन सभी तकलीफों का सामना सबसे बड़े स्तर पर किसानों और मछुआरों को करना पड़ रहा है। शहरों में ताज़ा सामानों के दाम आसमान छू रहे है। दाम बढ़ने के बावजूद उनकी उपलब्धता में कमी देखी जा रही है। देखा जाए तो यह हाल केवल बड़े शहरों का नहीं है, बल्कि छोटे शहर भी इसी तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं।
इस समस्या से इत्तफ़ाक़ लगभग सभी रखते हैं। अगर जनसंख्या की बात करें तो मोटे तौर पर अनुमान लगाया गया है कि आने वाले 15 सालों में शहरों की जनसंख्या मौजूदा समय की तुलना में 50% तक बढ़ने वाली है। बेतरतीब तरीके से हुए शहरीकरण कितना नुकसानदेह हो सकता है इसका उदाहरण एशियाई द्वीप के अन्य क्षेत्रों में पड़े प्रभावों से समझा जा सकता है। अगर चीन की बात करें तो 2003 से लेकर 2013 तक यहां के 23% वेटलैंड्स विलुप्ति की और जा पहुंचे हैं। इस संदर्भ में अगर भारत की बात करें तो इसे लेकर कोई पुख्ता डाटा मौजूद नहीं हैं, लेकिन अनुमान लगाया गया है कि आंकड़े गंभीर और चिंताजनक हैं। आकड़ों में इसकी भी सम्भावना जताई गई है कि कुल वेटलैंड्स का एक तिहाई प्रतिशत विलुप्त हो चुका है।
सब कुछ खत्म नहीं हुआ है
हालांकि यह कहना गलत होगा की सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी है। इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट ने अपने 30 कार्यकाल को पूरा करने की ख़ुशी में छपी एक पुस्तक में राहत भरी ख़बर प्रकाशित की है। इसमें इस बात का ज़िक्र किया गया है कि मलावी और ज़ाम्बिया में उनके द्वारा वेटलैंड्स व भुखमरी को ख़त्म करने के लिए कुछ परियोजनाओं की शुरुआत की गई थी। इस परियोजना के तहत कुछ वेटलैंड्स को पुनर्जीवित किया गया। उन पुनर्जीवित वेटलैंड्स का इस्तेमाल कर आजीविकाओं के नए रास्ते खोले गए। ख़ास बात यह है कि इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट ने काफी सालों तक भारत के गुजरात में भी काम किया है, जहां उन्हें कामयाबी मिली। इंस्टिट्यूट ने यह प्रयास राज्य सरकार के साथ मिलकर किया जिसमें भूजल के निष्कर्षण पर रोक लगाई गई। राज्य सरकार के साथ मिलकर अच्छी शहरी जल योजनाएं बनाया जा सकता है।
अब तक शहरीकरण का ध्यान लोगों को सिर पर छत मुहैया कराना और झुग्गी झोपड़ियों से छुटकारा पाना रहा है। लेकिन वेटलैंड्स के प्रति यह बेरुख़ी ना केवल शहरों को कम रुचिकर बना रहा है बल्कि आपदाओं की गिरफ़्त में ढकेल रहा है।