प्रकृति

जलवायु परिवर्तन के असर से विलुप्त हो रहा दुनिया का सबसे अनमोल मशरूम गुच्छी

जंगलों में पाए जाने वाले मशरूम, गुच्छी के कारण, भारतीय हिमालय के पहाड़ी गांवों में बहुत पैसा आया। लेकिन अब बसंत के दौरान उच्च तापमान और कम वर्षा के चलते यह आकर्षक फसल खत्म होने की कगार पर है।
हिन्दी
<p>हिमाचल प्रदेश के कोटी के आसपास के जंगलों से एकत्र किए गए मोरेल मशरूम (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)</p>

हिमाचल प्रदेश के कोटी के आसपास के जंगलों से एकत्र किए गए मोरेल मशरूम (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)

हिमाचल प्रदेश राज्य की राजधानी शिमला से 28 किमी दूर एक गांव है कोटी। यहां अपनी ड्योढ़ी में बैठकर धूप सेंक रही सुमित्रा सेन, मशरूम की एक माला बना रही हैं। वह बताती हैं, “यह कोई सामान्य मशरूम नहीं है, यह बहुत कीमती और दुर्लभ गुच्छी है।” मोरेल मशरूम के लिए स्थानीय नाम गुच्छी का प्रयोग करने वाली 43 वर्षीया सुमित्रा दो बच्चों की मां हैं। वह बचपन से ही गुच्छी मशरूम इकट्ठा करने का काम करती रही हैं। लेकिन इस साल, मार्च में, अपने घर के पास के जंगल में, छह घंटे तक मशरूम इकट्ठा करने के बाद उन्हें केवल 150 ग्राम गुच्छी मिली, जो केवल एक माला बनाने भर की थी।

वह बसंत की धूप में, एक खिड़की पर सूखने के लिए माला लटकाते हुए कहती हैं, “अब जंगल में लोग अधिक और मशरूम कम हैं।” आकार और गुणवत्ता के आधार पर सूखी हुई गुच्छी 30,000 रुपये प्रति किग्रा तक बिक सकती है। मशरूम जितना बड़ा होगा, कीमत उतनी ही अधिक होगी।

Sumitra Sen with the morel mushrooms she collected from the forests near her house in Koti, Himachal Pradesh
हिमाचल प्रदेश के कोटी में, अपने घर के पास के जंगलों से एकत्र किए गए गुच्छी मशरूम के साथ सुमित्रा सेन  (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा) 

आह भरते हुए सेन कहती हैं, “लेकिन पिछले एक दशक से, इन मशरूमों की उपलब्धता में काफी कमी आई है। इस साल तो ऐसा लग रहा है कि हम जंगल में हीरे की तलाश कर रहे हैं।”

मोरेल मशरूम – मोरचेला के – एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के कई देशों में जंगली होते हैं। दुनिया के सबसे महंगे खाद्य मशरूम में से एक, मोरेल की कई प्रजातियां व्यंजन बनाने के काम आती हैं। कुछ का उपयोग दवा में भी किया जाता है, जिनमें एंटीऑक्सीडेंट, रोगाणुरोधी और एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण होते हैं।

2010 के एक पेपर के अनुमान के मुताबिक, गुच्छी का वैश्विक उत्पादन लगभग 150 टन था। भारत और पाकिस्तान के इसके प्रमुख उत्पादक हैं। ये दोनों देश, हर साल लगभग 50 टन सूखी गुच्छी का निर्यात करते हैं।  

भारत में, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर व उत्तराखंड के हिमालय में मोरेल पाए जाते हैं। वे पुराने पेड़ों की छाल पर और ठंडे गीले मौसम में घास के मैदानों में उगते हैं। वसंत ऋतु में (मार्च के अंत से अप्रैल की शुरुआत तक) ज्यादातर स्थानीय महिलाओं और बच्चों द्वारा एकत्र किए जाते हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण मोरेल की फसल सिकुड़ रही है

सेन याद करती हैं कि लगभग एक दशक पहले तक कैसे अधिक आसानी से, बहुतायत मात्रा में गुच्छी इकट्ठा किया जाता था। अतीत में, बाकी को बेचने से पहले, वह घर के लिए भी पर्याप्त मात्रा में रख लेती थीं लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाता है।

वह बताती हैं, “हम 2008 या 2010 तक, एक सीजन (फरवरी से मई) में आठ किलोग्राम गुच्छी इकट्ठा करने में सक्षम थे और यह लगभग 8,000 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचा गया था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब आप प्रति किलोग्राम के लिए 30,000 रुपये तक प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन आप एक सीजन में केवल आधा किलोग्राम गुच्छी ही एकत्र कर सकते हैं।”

A morel mushroom growing in the wild
कोटी गांव के पास जंगल में उगने वाला गुच्छी मशरूम (फोटो: जिज्ञासा मिश्रा)

कश्मीर की तबस्सुम बानो कहती हैं कि उनके यहां भी, इस साल इकट्ठा की गई गुच्छी की मात्रा किसी भी अन्य साल की तुलना में कम रही है। जम्मू और कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर से लगभग 60 किमी दूर अनंतनाग में रहने वाली एक गृहिणी बानो द् थर्ड पोल को बताती हैं, “गुच्छी हमारे लिए बसंत के आगमन का प्रतीक है। इस बार यह सूखा बसंत रहा है।”

जम्मू और कश्मीर वन विभाग के 2018-19 डाइजेस्ट ऑफ फॉरेस्ट स्टैटिस्टिक्स के अनुसार, 1991 के उत्पादन 2,000 क्विंटल (200 टन) से गिरकर 2018 में यह 88 क्विंटल (8.8 टन) रहा और 2019 में शून्य हो गया।

93%

हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले में 1 मार्च से 19 अप्रैल, 2022 के बीच औसत से 93 फीसदी कम बारिश हुई

अनंतनाग के एक शिक्षक और मशरूम की पहचान पर एक किताब के लेखक रऊफ हमजा बोडा कहते हैं कि गर्म पानी के झरनों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। वह कहते हैं, “मार्च में ही गर्मी जैसी स्थिति आने के साथ, जब हर कोई कश्मीर में पानी के संकट का सामना कर रहा है, तो गुच्छियों के पास अब बढ़ने या टिकने का कोई मौका नहीं है।”


गर्म हवाओं ने दी हिमालय के बसंत में दस्तक

इस बसंत में, हिमालयी क्षेत्र के अधिकांश हिस्सों में वर्षा, औसत से काफी कम रही है। भारत के मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के श्रीनगर स्टेशन के पूर्व प्रमुख सोनम लोटस ने द् थर्ड पोल को बताया कि इस मार्च में जम्मू और कश्मीर में बारिश औसत से 80 फीसदी कम रही है। श्रीनगर में सामान्य 117.6 मिमी के मुकाबले केवल 21.3 मिमी बारिश हुई है।

हिमाचल प्रदेश की सेन कहती हैं कि इस बसंत में कोटी में वर्षा ही नहीं हुई है, जिससे गुच्छी की वृद्धि रुक गई है। आईएमडी की रिपोर्ट है कि इस साल 1 मार्च से 19 अप्रैल के बीच शिमला जिले (जहां कोटी स्थित है) में औसत से 93 फीसदी कम बारिश हुई है। इस अवधि के दौरान दीर्घकालीन औसत 116 मिमी की तुलना में केवल 7.6 मिमी वर्षा हुई। 

पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटीअरालजी के जलवायु वैज्ञानिक रॉक्सी मैथ्यू कोल का कहना है कि यह एक लंबी प्रवृत्ति का हिस्सा है। वह कहते हैं, “मार्च 2022, रिकॉर्ड किए गए इतिहास (1901-2022) में भारत का सबसे गर्म मार्च था। पूरे भारत में तापमान अधिक था। उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में विशेष रूप से गर्मी की लहर थी। साल 1986-2015 के दौरान, भारत में औसत तापमान लगभग 0.15 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की महत्वपूर्ण वार्मिंग की प्रवृत्ति को दिखाता है।” 

गर्म और शुष्क मौसम के अलावा इसके उत्पत्ति स्थानों का क्षय भी गुच्छी की मात्रा में आ रही गिरावट का एक प्रमुख कारण है। कश्मीर में, बोडा दो दशकों से गुच्छी के उत्पत्ति स्थानों पर शोध कर रहे हैं। वह कहते हैं, “ज्यादातर गुच्छी पुराने सेब के पेड़ों और उनके अवशेषों पर उगती है। लेकिन अब विभिन्न बगीचों में पुराने सेब के पेड़ों को उच्च घनत्व वाले छोटे पेड़ों से बदल दिया जाता है जहां यह नहीं उगते हैं।”

प्रयोगशाला में मोरेल मशरूम का भविष्य?

मोरेल मशरूम की व्यवसायिक खेती, ऐतिहासिक रूप से मुश्किल साबित हुई है। वैश्विक बाजार अभी भी जंगली से संग्रह पर निर्भर है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में- मशरूम अनुसंधान निदेशालय (डीएमआर) जो हिमाचल प्रदेश के सोलन में स्थित है और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा संचालित है – ने पहली बार मोरेल मशरूम की सफलतापूर्वक खेती की है।

डीएमआर के निदेशक वी. पी. शर्मा ने द् थर्ड पोल को बताया, “हमने 2020 और 2021 में [ग्रीनहाउस में] मोरचेला की सफलतापूर्वक खेती की, लेकिन किसानों को देने से पहले हमें अभी भी इसकी गुणवत्ता में सुधार करने की आवश्यकता है। किसानों को व्यावसायिक खेती के लिए मशरूम देने से पहले हमें कुछ और साल लग सकते हैं।

लेकिन गर्म मौसम का जल्दी आना, इस शोध को भी प्रभावित कर सकता है। शर्मा कहते हैं, “पिछले साल हम मार्च में परीक्षण कर रहे थे और फसल अप्रैल तक उपलब्ध थी, लेकिन इस साल हमने मार्च में लू का अनुभव किया और हमारे पास मार्च के मध्य में कोई फसल नहीं थी।” हिमालय में सोलन, समुद्र तल से 1,550 मीटर ऊपर है।

डीएमआर के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक अनिल कुमार कहते हैं, “मोरेल की उपलब्धता में मौसमी बदलाव दिखाई दे रहा है।” वर्ष 2019 से मोरेल्स की खेती को घरेलू बनाने पर काम करने वाले अनिल कुमार उपज में कमी का एक और कारण जोड़ते हुए कहते हैं कि चूंकि अब गुच्छी मिलना काफी कठिन हो गया है, इसलिए लोग मौके पर मौजूद सभी गुच्छी तोड़ लेते हैं, इसलिए बसंत के बाद मशरूम में विकसित होने के लिए कोई बीजाणु नहीं बचता।  

जलवायु परिवर्तन के कारण जंगलों में पाई जाने वाली गुच्छी की उपलब्धता लगातार गिर रही है। ऐसे में भविष्य में इसकी खेती की संभावना बनी हुई है। लेकिन शर्मा का कहना है कि इसकी खेती तो की जा सकती है लेकिन जंगल से प्राप्त होने वाली गुच्छी की तुलना में इसकी कम कीमत प्राप्त होगी। कुल मिलाकर, दुनिया के सबसे महंगे मशरूम में से एक के रूप में मशहूर गुच्छी विलुप्त होने की कगार पर है।