प्रदूषण

विचार: एक न्यायसंगत प्लास्टिक समझौते के लिए दक्षिण एशियाई के नेतृत्व की ज़रूरत है

प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने के मक़सद से दुनिया के कई देश पहले वैश्विक समझौते पर काम करने के लिए इस महीने बैठक करने जा रहे हैं। दक्षिण एशिया के दृष्टिकोण पर ध्यान दिया जाना चाहिए और उसे स्पष्ट रूप से सुना जाना चाहिए।
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जुलाई 2022 में, नई दिल्ली में ‘प्लास्टिक विकल्प मेला’ आयोजित हुआ। ऐसे कार्यक्रमों का उद्देश्य प्लास्टिक की जगह दूसरे विकल्पों के बारे में लोगों को जागरूक करना है।(फोटो: प्रदीप गौर / अलामी)

29 मई, 2023 के दिन भारत, बांग्लादेश, मालदीव, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका के प्रतिनिधियों की पेरिस में 160 अन्य देशों के प्रतिनिधियों के साथ मुलाकात होगी। इस बैठक का उद्देश्य प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने के लिए ‘कानूनी रूप से बाध्यकारी दस्तावेज़’ के लिए टेक्स्ट तैयार करना है। विभिन्न देशों की तरफ़ से, एक बार हस्ताक्षर कर दिए जाने के बाद, यह तथाकथित ‘इंस्ट्रूमेंट’ एक ट्रीटी यानी समझौते का रूप ले लेगा। 

माना जा रहा है कि हमारे महासागरों, जैव विविधता, स्वास्थ्य और जलवायु के लिए खतरा पैदा करने वाले प्लास्टिक प्रदूषण को नियंत्रित करने और खत्म करने के वैश्विक प्रयासों में यह बहुत बड़ा कदम साबित होगा।

प्लास्टिक कचरे पर एक समझौते की दिशा में टेक्स्ट तैयार करने के लिए बनाया गया एक अंतर सरकारी वार्ता समिति का यह दूसरा सत्र होगा (आईएनसी-2) जिसकी बैठक पेरिस में होने जा रही है। प्लास्टिक के उत्पादन व निर्माण से लेकर उसके उपयोग व निपटान तक के पूरे जीवन चक्र से जुड़ी समस्याओं का हल खोजने की दिशा में मार्च, 2022 एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया गया। यह प्रस्ताव यूनाइटेड नेशंस एनवायरनमेंट असेंबली में पारित हुआ। इसमें कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते को विकसित करने की बात कही गई है। यहीं से इस प्रक्रिया की शुरुआत हुई। 

उरुग्वे के पुंटा डेल एस्टे में 28 नवंबर से 2 दिसंबर 2022 के दौरान हुए नेगोशिएशन कमेटी के पहले सत्र (आईएनसी-1) में भाग लेने वाले देशों ने इस बात पर चर्चा शुरू की कि भविष्य के समझौते में कौन से संभावित तत्व शामिल हो सकते हैं। कौन-कौन से नीतिगत उपाय और कार्य हो सकते हैं, जिन्हें विभिन्न देशों द्वारा किया जा सकता है। ऐसा क्या-क्या किया जा सकता है जिससे इस तरह के किसी समझौते के उद्देश्यों और महत्वपूर्ण ‘प्रक्रिया के नियमों’ (नियमों के सेट, जो समिति के आचरण और निर्णय लेने को नियंत्रित करता है) को हासिल किया जा सके।

29 मई से 2 जून तक होने वाली आईएनसी-2 बैठक, अब आईएनसी-1 बैठक के लंबित मामलों पर बातचीत जारी रखने के लिए सरकारों और अन्य हितधारकों के प्रतिनिधियों को एक मंच पर लाएगी। और समझौते के बाकी हिस्सों के टेक्स्ट पर बातचीत शुरू करेगी।

पेरिस के बाद समिति की तीन और बैठकें, नवंबर 2023, अप्रैल 2024 और अक्टूबर 2024 में होंगी। प्रक्रिया के अंत में समझौते के दस्तावेज़ का टेक्स्ट तैयार हो जाएगा। मई 2025 के बीच में एक डिप्लोमेटिक कांफ्रेंस ऑफ प्लेनिपोटेंशरीज के दौरान इस पर हस्ताक्षर किए जा सकते हैं और इसको स्वीकार किया जा सकता है। देशों के प्रतिनिधि अपनी सरकारों की तरफ़ से इस बहुपक्षीय समझौते को लेकर नेगोशिएशन कर सकेंगे और इसे स्वीकार कर सकेंगे। 

अगर ये सब मौजूदा योजना के हिसाब से चलता रहता है, तो प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए 2025 तक दुनिया का पहला बहुपक्षीय ढांचा तैयार होगा। वैसे तो, यह आशाजनक है, फिर भी, किसी तत्काल कार्रवाई की अपेक्षा, एक स्वस्थ संदेह बनाए रखना भी महत्वपूर्ण है। खासकर, यह देखते हुए कि संयुक्त राष्ट्र की प्रणाली किस तरह से काम करती है, जिसका मतलब है कि स्थानीय और राष्ट्रीय क्रियाएं समान रूप से महत्वपूर्ण होंगी।

कहा जाता है कि जैव विविधता हानि, जलवायु परिवर्तन और प्लास्टिक प्रदूषण जैसी जटिल समस्याओं को हल करने की दिशा में राष्ट्रों के बीच आम सहमति बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र एकमात्र सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य तंत्र बना हुआ है।

Workers pick waste plastic from the Arabian Sea in Fort Kochi, Kerala.
केरल स्थित फोर्ट कोच्चि में अरब सागर से निकले बेकार प्लास्टिक को इकट्ठा करते कामगार (फोटो: श्री लोगनाथन/ अलामी)

वैश्विक स्तर पर, उत्पन्न प्लास्टिक कचरे की मात्रा हाल के वर्षों में काफ़ी बढ़ गई है। यह मात्रा 2000 से 2019 तक दोगुनी से भी अधिक हो गई है। यह प्रति वर्ष 35.3 करोड़ टन तक पहुंच गई है। इस आंकड़े के अभी और बढ़ने की उम्मीद है। अनुमान है कि यह मात्रा 2060 तक तीन गुनी हो जाएगी। इस कचरे का अधिकांश हिस्सा प्लास्टिक से आता है, जिसकी उम्र पांच साल से कम होती है। इसमें लगभग 40 फीसदी पैकेजिंग से, 12 फीसदी उपभोक्ता वस्तुओं से और 11 फीसदी कपड़ों और टेक्सटाइल्स से आता है। 

दक्षिण एशिया में पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्लास्टिक कचरे के हानिकारक प्रभाव स्पष्ट हैं। दरअसल, एक तरफ़ तो वेस्ट मैनेजमेंट सिस्टम्स यानी अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियां अपर्याप्त हैं और दूसरी तरफ, समृद्ध देशों से प्लास्टिक कचरे का भारी प्रवाह है। यह एक तरह से दोहरा बोझ पैदा कर रहा है। 

बातचीत का दायरा

पेरिस में होने वाली आईएनसी-2 की बैठक में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा जारी एक “ऑप्शंस फॉर एलिमेंट्स पेपर” को एक रास्ता मिलेगा। यह पिछले महीनों में 62 सरकारों, सरकारों के पांच समूहों और 176 गैर-राज्य हितधारकों द्वारा प्रस्तुत सुझावों के संकलन का प्रतिनिधित्व करता है। सरल शब्दों में कहें तो ये प्रस्तुतियां, एक प्लास्टिक समझौते के लिए, विभिन्न हितधारकों की आकांक्षाओं को शामिल करने के लिए थीं, जिसमें इसका समग्र लक्ष्य और दायरा शामिल था। मसलन, वार्ताकारों को किन नियमों का पालन करना चाहिए, नियमों का पालन कैसे सुनिश्चित किया जाए, और इसे पूरा करने के लिए मदद कैसे प्रदान किया जाए। .

यह दस्तावेज़, भविष्य में होने वाले नेगोशिएशंस के लिए महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। रासायनिक उपयोग को प्रतिबंधित करने, वर्जिन प्लास्टिक को लेकर उत्पादन सीमा निर्धारित करने पर विचार करने, हानिकारक अपशिष्ट प्रबंधन विकल्पों जैसे इन्सिनरैशन यानी भस्मीकरण और मनुष्य व इस ग्रह के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने जैसे महत्वपूर्ण उद्देश्यों को इसके दायरे में लाया गया है। 

यहां यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि यह महत्वाकांक्षा, यूएनईपी की पहले की राय के तुलना में काफ़ी बेहतर है। यूएनईपी पहले जिस स्थान में था, उस स्थान में प्लास्टिक प्रदूषण को, प्लास्टिक उत्पादन में भारी और निरंतर वृद्धि के बजाय, कुप्रबंधित अपशिष्ट के मुद्दे के रूप में रखा गया था।

प्लास्टिक संकट सिर्फ़ वेस्ट के कुप्रबंधन या ‘लीकेज’ का परिणाम नहीं है, बल्कि प्लास्टिक के उत्पादन में भारी वृद्धि इस संकट की एक प्रमुख वजह है। 

अब तक की बैठकों में हुई चर्चाओं और मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया के लिए देशों की प्रस्तुतियों के आधार पर, इस बात को लेकर एक आम सहमति दिख रही है कि प्लास्टिक संकट से निपटने के लिए मिलकर काम करने की ज़रूरत है। 

जैसा कि जलवायु परिवर्तन के मामले में होता है, एक व्यापक पूर्वानुमान है कि ग्लोबल साउथ नेतृत्व करेगा, और वास्तव में ऐसा हो रहा है। प्लास्टिक के सबसे बड़े उपभोक्ता ग्लोबल नॉर्थ में हैं लेकिन प्लास्टिक प्रदूषण के प्रभाव, ग्लोबल साउथ में समुदायों द्वारा सबसे अधिक प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किए जाते हैं

शायद सबसे महत्वपूर्ण स्वीकृति, जो चल रही समझौता वार्ताओं से उभरी है, वह यह है कि प्लास्टिक संकट सिर्फ़ वेस्ट के कुप्रबंधन या ‘लीकेज’ का परिणाम नहीं है, बल्कि प्लास्टिक के उत्पादन में भारी वृद्धि इस संकट की एक प्रमुख वजह है।

ग्लोबल साउथ से नेतृत्व की ज़रूरत

प्लास्टिक समझौते पर अब तक की बातचीत में, अफ्रीकी समूह- मिस्र को छोड़कर महाद्वीप के सभी राष्ट्र- सबसे ज़्यादा महत्वाकांक्षी के रूप में उभरे हैं। आईएनसी को दी गई समूह की प्रस्तुति को देखें तो पाएंगे कि यह प्लास्टिक के पूरे जीवन चक्र में हस्तक्षेप की कल्पना करती है। इनमें वर्जिन पॉलिमर और उन्हें बनाने में उपयोग किए जाने वाले ज़हरीले रसायनों के उत्पादन को कम करना शामिल है। इसमें अपशिष्ट को कम करने के लिए उत्पादों को नया स्वरूप देना; और भस्मीकरण, सीमेंट को-प्रोसेसिंग और केमिकल रीसाइक्लिंग जैसे ‘गलत समाधान’ वाले अपशिष्ट प्रबंधन तकनीकों पर रोक लगाना भी शामिल किया गया है। दरअसल, ये सब, अपशिष्ट से जुड़ी समस्याओं का समाधान करने के बजाय वास्तविक समाधानों से समाज का ध्यान भंग करते हैं। 

यह ‘अपशिष्ट प्रबंधन और कूड़े’ के पहले के प्रभावी ग्लोबल नैरेटिव से एक महत्वपूर्ण और प्रगतिशील रवानगी है। पहले के प्रभावी ग्लोबल नैरेटिव में इस बात पर अनुचित ज़ोर दिया गया कि समाज कचरे का निपटान कैसे करता है। जबकि ज़ोर इस बात पर दिया जाना चाहिए था कि किस तरह से कंपनियां, सिंगल-यूज़ प्लास्टिक का भारी उत्पादन और डंपिंग करती हैं। इसके लिए कंपनियों की जवाबदेही की बात होनी चाहिए थी। 

दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाओं, विशेष रूप से भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका का नेतृत्व समान रूप से महत्वपूर्ण होगा। दरअसल, दक्षिण एशिया में प्लास्टिक की प्रति व्यक्ति औसत खपत (भारत में 11 किलो, बांग्लादेश में 9 किलो, पाकिस्तान में 7.5 किलो और श्रीलंका में 6 किलो) वैश्विक औसत 28 किग्रा से काफ़ी कम है। 

जबकि इन देशों से समुद्र में बहाए जाने वाले प्लास्टिक कचरे की मात्रा बहुत ज्यादा है। हालांकि, अधिक शोध के साथ, संकट के पीछे की जटिलताएं स्पष्ट हो जाती हैं, ऐसा लगता है कि अलग-अलग देशों में प्लास्टिक प्रदूषण के आंकड़ों को ज़िम्मेदार ठहराने का कोई तर्क नहीं है – जैसा कि अतीत में गलत तरीके से किया गया है।

दक्षिण एशिया में हिट-एंड-मिस प्लास्टिक नीतियां

दक्षिण एशिया में नीति निर्माता, पिछले दो दशकों से प्लास्टिक की समस्या के समाधान ढूँढने का प्रयास कर रहे हैं। उत्पाद पर प्रतिबंध पूरे क्षेत्र में सबसे लोकप्रिय नीतिगत विकल्प रहा है। अफ़ग़ानिस्तान को छोड़कर सभी सार्क देश, प्लास्टिक बैग या अन्य सिंगल-यूज़ आइटम्स पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर चुके हैं। भूटान में प्लास्टिक बैग और आइसक्रीम रैपर पर प्रतिबंध 1999 से है। बांग्लादेश में प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध 2002 से है। श्रीलंका ने 2017 में बाढ़ से संबंधित चिंताओं के कारण प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया था। जबकि भारत ने जून 2022 में एक दर्जन से अधिक सिंगल-यूज़ वाली प्लास्टिक वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की।

ये प्रतिबंध तार्किक नीतिगत, प्रतिक्रिया की तरह लग सकते हैं, लेकिन वास्तव में इन्हें लागू करना बहुत कठिन है। सभी दक्षिण एशियाई देश, प्लास्टिक प्रदूषण पर एक कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। और प्रतिबंध अक्सर केवल कागज़ो पर मौजूद होते हैं। क्षेत्र में कई साझा नदियों और समुद्र तटों के साथ-साथ आपस में जुड़े प्लास्टिक उत्पाद बाजारों और प्लास्टिक कचरे के व्यापार को देखते हुए, इस समस्या से निपटने के लिए प्रभावी व्यक्तिगत राष्ट्रीय प्रयासों और सहयोगी क्षेत्रीय उपायों, दोनों की सख्त जरूरत है।

अब भारत में कानूनी रूप से बाध्यकारी एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी (ईपीआर) फ्रेमवर्क है, पाकिस्तान में 2021 का ईपीआर रेगुलेशन है, बांग्लादेश में ईपीआर के प्रावधानों सहित 2021 का सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स हैं। विभिन्न देशों के ये प्रावधान बताते हैं कि प्लास्टिक प्रदूषण का समाधान निकालने वाली फॉरवर्ड-थिंकिग पुलिसीज़ को लेकर कदम आगे बढ़ रहे हैं। ये नीतियां ‘प्रदूषण करने वाले भुगतान करें‘ पर आधारित हैं। हालांकि अभी भी इनका समस्या के पैमाने और दायरे से मेल नहीं है। प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या को ठीक ढंग से हल किया जा सके, इसके लिए दक्षिण एशियाई देशों को प्लास्टिक समझौता वार्ताओं में रचनात्मक और सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

दक्षिण एशिया के लिए प्लास्टिक मुक्त भविष्य?

केवल नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका ने ऐसी प्रस्तुतियां दी हैं, जो प्लास्टिक समझौते पर बातचीत के दायरे को निर्धारित करने वाली विषय वस्तु के विकल्पों में योगदान करने वाली हैं। 

वार्ता समिति की पहली बैठक में कुछ हस्तक्षेपों को छोड़कर, दक्षिण एशिया में भारत एक प्रमुख प्रभावशाली आवाज़ है। अब तक, भूटान और म्यांमार इस वार्ता से पूरी तरह अनुपस्थित रहे हैं। सिविल सोसाइटी समूहों का एक वैश्विक गठबंधन, वार्ताओं को बहुत बारीकी से देख रहा है। मैं भी इसका सदस्य हूं। इन देशों से और अधिक नेतृत्व की उम्मीद की जा रही है। ये उम्मीद विशेष रूप से उन मुद्दों पर है, जो दक्षिण एशिया के लिए महत्वपूर्ण हैं, जैसे मैटेरियल एंड केमिकल फ़ेज-आउट्स यानी सामग्री और रसायन को धीरे-धीरे खत्म करना; श्रमिकों के लिए जस्ट ट्रांज़िशन की मांग करना; और तकनीकी व वित्तीय सहायता। 

दक्षिण एशियाई देशों को अति महत्वाकांक्षी गठबंधन में भी शामिल होने पर भी विचार करना चाहिए, जो 25 देशों का एक समूह है और 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त दुनिया हासिल करना चाहता है। और इसकी सबसे महत्वपूर्ण मांग एक महत्वाकांक्षी, कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते की है। एक ऐसा समझौता जो प्लास्टिक के पूरे जीवन चक्र के प्रभावों का समाधान निकाल सके। 

प्लास्टिक प्रदूषण के मामले में निश्चित रूप से दक्षिण एशिया की एक बड़ी हिस्सेदारी है लेकिन यहां इनोवेटिव सलूशंस की महत्वपूर्ण क्षमता भी है। 

आने वाले वर्षों के लिए प्लास्टिक समझौता वार्ता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहेगा। विचार-विमर्श से जटिल धर्मसंकट पैदा होंगे जिनसे राष्ट्रों के नैतिक स्वभाव का परीक्षण होगा। निश्चित रूप से, प्लास्टिक के कारण पारिस्थितिकी और लोगों के स्वास्थ्य पर साफ तौर पर नजर आने विध्वंस को नज़रअंदाज़ करना कठिन होगा। यहां तक इसे नज़रअंदाज़ कर पाना उनके लिए भी आसान नहीं होगा जो कि इस्तेमाल के बाद फेंके जाने वाले प्लास्टिक के कारोबार से ही जुड़े हैं। 

जो लोग महत्वाकांक्षा को कम करने की कोशिश कर रहे हैं वे ऐसा आने वाली पीढ़ियों और उन लोगों के जोखिम पर करेंगे जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। प्लास्टिक से जुड़ा यह संकट एक साहसिक और तत्काल प्रतिक्रिया की मांग करता है। और पूरी दुनिया को एक मज़बूत और बाध्यकारी प्लास्टिक समझौते पर बातचीत के अवसर को भुनाना चाहिए।

कहा गया है कि प्लास्टिक संकट को हल करने और परिवर्तनकारी बदलाव को बढ़ावा देने की कुंजी दक्षिण एशियाई क्षेत्र में हो सकती है। तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या और औद्योगिक क्षेत्रों के विस्तार के साथ, दक्षिण एशिया प्लास्टिक प्रदूषण में एक बड़ा योगदानकर्ता है, लेकिन यह अभिनव समाधानों के लिए महत्वपूर्ण क्षमता भी रखता है। इसके अतिरिक्त, दक्षिण एशियाई क्षेत्र की एक-दूसरे पर आश्रित प्रकृति, सहयोग और सामूहिक कार्रवाई के लिए एक दुर्लभ अवसर प्रदान करती है। क्षेत्रीय भागीदारी बनाकर, दक्षिण एशिया के देश, प्लास्टिक से उत्पन्न साझा खतरे को दूर करने के लिए सफल रणनीतियों को साझा कर सकते हैं। सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकते हैं। और संसाधनों को जोड़ सकते हैं।

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