पिछले कुछ वर्षों के दौरान रिपोर्टिंग में भारत के वायु प्रदूषण के संकट की खबरें हावी रही हैं। राजधानी दिल्ली की स्थिति और यहां रहने की स्वास्थ्य लागत को ‘राष्टीय संकट‘ घोषित किया गया है। इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों का तो यहां तक कहना है कि वायु प्रदूषण मौसम सहित मानसून के पैटर्न को भी प्रभावित करने लगा है, जो हजारों वर्षों से चली आ रही दक्षिण एशियाई सभ्यता को जरूरी बारिश प्रदान करता है। भारत का प्रदूषण हिंदु कुश हिमालय में भी पहुंच गया है, जिसके कारण इस नाजुक क्षेत्र में काला धुंआ असर कर रहा है और पर्यावरणीय नुकसान होने लगा है। जाहिर है कि यह समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं है, बांग्लादेश की राजधानी ढाका भी इस खतरे से निपटने के लिए संघर्ष कर रही है। रही बात पाकिस्तान की, तो वहां वायु प्रदूषण मापने की इकाइयों की कमी होने के कारण संकट का वास्तविक अनुमान नहीं लगाया जा पा रहा है।
भारत में यह मुद्दा सर्दियों के ठीक पहले शीर्ष पर आ जाता है, क्योंकि पराली जलाने से उठने वाला धुआं दिल्ली के ऊपर छा जाता है।
ये समस्या हालांकि पूरे साल रहती है और यह सिर्फ दिल्ली तक सीमित भी नहीं है। छोटे शहरों में मापन इकाइयों की कमी और वहां की इस समस्या को मीडिया में कम तवज्जो मिलने के बावजूद अगर इस समस्या को बहुत बड़ा ना भी माना जाए तो बड़ा जरूर माना जाना चाहिए। कुल मिलाकर मतलब ये है कि इस समस्या को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
इस बीच, भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा तैयार किए गए राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) से काफी उम्मीदें हैं। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इसका मसौदा इतना खराब है कि स्वतंत्र विशेषज्ञों और वायु प्रदूषण से त्रस्त लोगों से विचार-विमर्श करने के बाद इसे फिर से बनाने की जरूरत है। यह इस समय इतना महत्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2010 से 2016 के बीच प्रदूषण के सबसे ज्यादा स्तर वाले दुनिया के 15 शहरों में से 14 शहर भारत के थे।
एनसीएपी के 19 पेज के मसौदे के एक महत्वपूर्ण हिस्से को प्रतियोगी और छोटे अध्ययनों के रूप में लिया जाता है, विशेषकर तब, जब इस तरह के अध्ययन अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा किए जाते हैं।
और बात जब वायु प्रदूषण की आती है, तब मंत्रालय, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के बीच तालमेल की कमी वर्षों से जारी है।
अधिक से अधिक भारतीय श्वसन संबंधी बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। विभिन्न शहरों के डॉक्टर भी भारी प्रदूषित क्षेत्रों और इस तरह की बीमारियों का, विशेषकर बच्चों और बुजुर्गों में, सीधा संबंध बता रहे हैं। ऐसे में इस तरह के इनकार में विश्वसनीयता की कमी है। यह और अधिक हैरान करने वाला तब है, जब इस मंत्रालय का नेतृत्व एक डॉक्टर कर रहे हैं, और उन्हें अपने अनुभवों और सहकर्मियों के साथ चर्चा से उन्हें यह विश्वास दिलाया जाना चाहिए कि वायु प्रदूषण की समस्या को कोई भी बढ़ा-चढ़ा कर नहीं बता रहा है।
यह एक अच्छा कदम था कि स्वास्थ्य के ऊपर वायु प्रदूषण के प्रभावों को समझने के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के साथ मिलकर एक टीम बनाई थी। लेकिन अब, एनसीएपी का मसौदा कहता है कि इस टीम की रिपोर्ट को पर्यावरण और चिकित्सा मंत्रालयों द्वारा अभी और अध्ययन के लिए विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। यद्यपि अध्ययन करना बेहद महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इसे कार्रवाई में देर करने के बहाने के रूप में नहीं प्रयोग किया जाना चाहिए। दुर्भाग्यवश, एनीएपी मसौदा से यह पता चलता है, वास्तव में अध्ययन में क्या किया जा रहा है।
मसौदे में इस बात को काफी महत्व दिया गया है कि शहरी वायु प्रदूषण को कैसे मापा जाए और कैसे मॉनिटर किया जाए और स्रोतों के आधार पर प्रदूषण को कैसे बांटा जाए। पहले की तुलना में इस मसौदे में इन मुद्दों को ज्यादा जगह दी गई है।
राष्टीय वायु गुणवत्ता सूचकांक (एनएक्यूआई) में हाल में हुए विकास को भी इसमें काफी जगह दी गई है। हालांकि ये सब निश्चित रूप से जरूरी हैं लेकिन ये भी स्पष्ट है कि ये पर्याप्त नहीं हैं। वैसे भी, प्रदूषण भार और प्रदूषण स्रोतों पर त्वरित कार्रवाई करने के लिए पहले से ही काफी आंकड़े उपलब्ध हैं।
इसी जगह पर एनसीएपी मसौदा विफल हो जाता है। प्रदूषक को अवशोषित करने के लिए सड़कों के किनारे अधिक से अधिक पेड़ लगाना, एकमात्र त्वरित ठोस उपाय है। फिर से वही बात आ जाती है कि यह जरूरी है, लेकिन केवल यही पर्याप्त नहीं है।
मसौदे की खामियां
भारत में वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए भारी संख्या में कानून, नियम और दिशानिर्देश हैं। समस्या यह है कि ये कहीं भी उतनी सख्ती से नहीं लागू किए गए, जितने की जरूरत थी। एनसीएपी मसौदे के कार्यान्वयन के लिए एकमात्र महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मसौदे का उद्देश्य पूरा करने के लिए सीपीसीबी और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों का विस्तार किया जाए और उन्हें प्रशिक्षित किया जाए।
यह नितांत आवश्यक है, लेकिन यह एक लंबे समय की प्रक्रिया है, जो वायु प्रदूषण की समस्या से जरूरी तत्कालिकता से निपटने में असमर्थ है। यहां तक कि मसौदे में सीपीसीबी के लिए बनाए गए कार्ययोजना के 42 बिंदु प्रदूषण से निपटने की त्वरित आवश्यकंता तक को भी नहीं दर्शाते हैं।
इसके अलावा, एनसीएपी मसौदे के कार्यान्वयन के अनुभाग मुख्य रूप से उपायों के बारे में हैं, जो यह समझने में मदद करता है कि यह उपाय किस हद तक काम करेंगे या नहीं करेंगे और क्यों। दिल्ली औैर एनसीआर के लिए ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (जीआरएपी) है।
यह योजना विशेषज्ञों के विशिष्ट समूहों के द्वारा नियंत्रित की जाती है। लेकिन हर बार, जब भी इसे लागू करना चाहते हैं, उन्हें फैक्ट्री मालिकों की लॉबी, रियल एस्टेट लॉबी, ट्रांसपोर्ट लॉबी, वाहन निर्माताओं की लॉबी, किसानों की लॉबी और यहां तक कि राज्य और केंद्र सरकार के कुछ मंत्रियों के विरोध का सामना करना पड़ता है। नतीजतन, मसौदे का कार्यान्वयन पूर्णतः आंशिक है। कम समय में इस समस्या से कैसे निपटा जाए, एनसीएपी मसौदे में इसका कोई जवाब नहीं है।
राजनीतिक इच्छा की जरूरत
भारत में वायु प्रदूषण से निपटना वास्तव में मुश्किल है, विशेषकर गंगा के मैदानी इलाकों में, जहां हकीकत में बड़ी-बड़ी घाटियां हैं जहां वर्ष भर अपेक्षाकृत कम हवा मिलती है। जो वायु प्रदूषण को फैलने से रोकता है। लेकिन अन्य, जो बहुत छोटी घाटियां हैं, को साफ कर दिया गया है, जिसमें से सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण दक्षिणी कैलिफोर्निया घाटी है, जो लॉस एंजिल्स में स्थित है। सैद्धांतिक रूप से, इसका कोई कारण नहीं है कि यह उपाय भारत में क्यों काम नहीं कर रहा है। इन उपायों को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।
यह सोचना शायद उम्मीद से ज्यादा होगा कि मंत्रालयों द्वारा तैयार किए गए मसौदे में राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत के बारे में बात की गई होगी। लेकिन इसमें नागरिकों के अधिक सक्रिय भागीदारी के बारे में जरूर बात की गई होगी। भारत के कई शहरों में, विशेषकर उत्तरी हिस्सों में, लोग भयंकर वायु प्रदूषण के बारे में बात करते हैं, और फिर अपनी डीजल वाली एसयूवी से अपने घरों के लिए वायु शोधक लाते है। दिल्ली पूरे विश्व में शायद एकमात्र ऐसा शहर है, जहां बस रैपिड टांसपोट काॅरिडोर प्रोजेक्ट विफल रहा क्योंकि मोटरचालकों ने नियमों का पालन करने से मना कर दिया। इस तरह के व्यवहार पर तत्काल प्रक्रिया करने की अत्यंत आवश्यकता है।
नौकरशाहों और टेक्नोक्रेट्स को वायु प्रदूषण के नागरिक विज्ञान को स्वीकार करने की भी तत्काल आवश्यकता है। बीजिंग में, वहां के निवासियों ने अपने स्मार्टफोन में साधारण सा प्रदूषण नियत्रंण डाउनलोड किया और हर समय इसके परिणाम सभी या कुछ को भेजने शुरू किए, इस तरह से वायु प्रदूषण को नियंत्रित किया गया। भारत में भी शुरू में ऐसा ही करने का प्रयास किया गया, जिसे सीपीसीबी और मंत्रालयों द्वारा विरोधी प्रतिक्रियाएं मिलीं। मंत्रालय और सीपीसीबी के अधिकारी ये माॅनिटर कितने गलत हो सकते हैं, ये कैसे सहीं जांच नहीं करते हैं, वगैरह-वगैरह जैसी बातें करते रहे।
टेक्नोक्रेट्स ने जो बात छोड़ दी वह यह है कि किसी एक विशिष्ट प्रदूषक की सटीक सांद्रता जैसे तथ्यों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वायु गुणवत्ता नुकसान पहुंचाने या बहुत बुरी तरह नुकसान पहुंचाने के लिए काफी खराब है। बेशक, अधिकारियों को इसका विवरण जानने की जरूरत है, जिससे वे प्रदूषक और उसके स्रोतों को काबू में कर सकें। वाद-विवाद कने की जगह, अगर वे लोग क्या कर रहे हैं, को स्वीकार कर लें, तो वे नियमों को लागू करने के लिए इससे कई अधिक ज्यादा मजबूत स्थिति में रहेंगे।