भारत ने 2013 में अपने सीमावर्ती राज्य असम में औपचारिक रूप से नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) को अपडेट करने की प्रक्रिया शुरू की। अगस्त, 2019 में जब सूची प्रकाशित की गई तो कुल आबादी 3.3 करोड़ में से 19 लाख लोगों का नाम सूची में शामिल नहीं था। इस तरह से इन लोगों की भारत की नागरिकता वैध नहीं रह गई। और ये लोग अब कहीं के नागरिक नहीं रह गये। ऐसे लोगों को रखने के लिए डिटेंशन सेंटर बनाये गए हैं। अभी कुछ और डिटेंशन सेंटर बनाये भी जा रहे हैं। इस प्रक्रिया से सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं हुई हैं जिसके बारे में देश-दुनिया को ज्यादा पता भी नहीं है। गरीब पुरुषों की तुलना में गरीब महिलाओं के पास काफी कम दस्तावेज होते हैं। भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम में नागरिकता साबित करने के लिए ऐसे दस्तावेजों की आवश्यकता होती है जिससे ये साबित हो सके कि नागरिक के पूर्वज काफी लंबे समय से असम के निवासी रहे हैं। उनमें से कई परिवारों की महिलाएं हैं, जो ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के नदी द्वीपों में रहती हैं, जिन्हें चार कहा जाता है। कई अन्य भी नदियों के किनारे रहते हैं। ये महिलाएं छोटे पैमाने पर सिंचाई और घरों में पानी के लिए मिट्टी के छोटे बांध और नालियां बनाती हैं और उनका प्रबंधन करती हैं। इस तरह ये जल प्रबंधन में एक सक्रिय हिस्सेदारी करती हैं।
हजारों महिलाओं की इन गतिविधियों से क्षरण की बहुत बड़े पैमाने पर रक्षा होती है, जो कि ब्रह्मपुत्र बेसिन के सबसे बड़े अभिशापों में से एक है। यह सतत विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिस पर अब खतरा मंडरा रहा है क्योंकि कुछ महिलाओं को डिटेंशन सेंटर भेज दिया गया है जबकि अन्य को भी यही लगता है कि उनके भाग्य में भी डिटेंशन सेंटर ही है।
एनआरसी की प्रक्रिया कागजी कार्रवाई पर आधारित है। इससे सबसे ज्यादा चुनौती गरीब और अशिक्षित लोगों को है। SaciWATERs की पूर्व कार्यकारी निदेशक सुचित्रा सेन लिखती हैं कि केवल गरीबों में से भी गरीब लोग ही आने वाले वक्त की बढ़ती अनिश्चितताओं से जूझने के लिए नदी के किनारे रह गये। जिन लोगों के पास मौके और संभावनाएं थीं, वे नदी के किनारे से समय के साथ ही पलायन कर गये।
असम में बाढ़ के प्रति कुप्रबंधन के लंबे इतिहास के कारण नदी के किनारे रहने का मतलब मौत और अभावग्रस्तता के बीच अपने जीवन से जुआ खेलना है। कुछ मामलों में तो ऐसा भी हुआ है कि बाढ़ और नदी की कटान जैसी आपदा के चलते अपनी कृषि योग्य जमीन और घर गंवाने वाले लोगों का नाम एनआरसी सूची में नहीं है। इस आपदा के कारण खेती और घर गंवाना ही इसका मुख्य कारण बन गया है।
बचीरन बीबी और सूर्यभान बीबी असम के जेलों में बनाये गये 6 डिटेंशन सेंटर्स में से एक में कैद हैं। इन सेंटर्स में ऐसे लोगों को रखा जाता है जिन्हें विदेशियों के रूप में चिह्नित किया गया है। इन दोनों महिलाओं का मामला महिलाओं की चुनौतियों की कहानी को बयां करता है। ये दोनों फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (जो कि एनआरसी के संदिग्ध मामलों में कागजी कार्रवाई के लिए गठित हुई है) के सामने 6 दिसंबर, 2017 को पेश हुईं। उनको पता था कि ट्रिब्यूनल के सामने कागजों के साथ जाना है। वे वोटर पहचान पत्र और शादी का प्रमाणपत्र लेकर गईं और उनको अहसास हुआ कि उनसे गलती हो गई। उनको गिरफ्तार करके कोकराझार डिटेंशन सेंटर में भेज दिया गया। ये असम में महिलाओं के लिए अकेला सेंटर है जहां विदेशी घोषित महिलाओं को रखा जाता है।
दोनों महिलाओं का विवाह बिराज अली के साथ हुआ था। मैं जब जनवरी, 2020 के शुरुआत में उनसे मिली थी, तब उनकी दोनों बीवियां पहले ही ढाई साल के लिए जेल भेजी जा चुकी थी। अली कहते हैं कि उनकी दोनों बीवियों के पास वैध दस्तावेज हैं, जो कि उनको डिटेंशन सेंटर से बाहर लाने के लिए पर्याप्त हैं। उनके दस्तावेजों में, सूर्यभान बीबी के पिता का नाम गलत तरीके से जब्बार की जगह अफसार दर्ज हो गया था। इसी तरह बचीरन बीबी के पिता का मक्सिद है, जिसे मुक्सद बोला गया था। टाइपिंग में गलती के कारण ये दोनों महिलाएं जेल में हैं। ये दोनों अपने पहचान पत्र में गलती के कारण नहीं, बल्कि अपने-अपने पिता के पहचान पत्र में गलती के कारण डिटेंशन सेंटर भेज दी गईं।
पितृवंशीय प्रक्रिया
चूंकि वैध नागरिकों की सूची तैयार करने वाला भारत का पहला राज्य असम है, इसलिए इस तथ्य को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि देश के विवादित एनआरसी के तहत विदेशियों के तौर पर चिह्नित किये गये 19 लाख लोगों में भारी तादात महिलाओं की है। एनआरसी के तहत अपनी नागरिकता साबित करने के लिए लोगों से अपेक्षा की गई है कि वे अपने पितृवंशीय दस्तावेज प्रस्तुत करें, मतलब नागरिकों को अपने पिता के साथ संबंध दर्शाने वाले दस्तावेज पेश करने हैं। व्यक्ति के माता पक्ष के साथ संबंध दर्शाने वाले दस्तावेज की इस प्रक्रिया में मान्य नहीं हैं भले ही वह सभी दस्तावेजी जरूरतों को पूरा करते हों। बेहद पुराने मजबूत पितृसत्तात्मक परंपराओं में बाल विवाह की स्वीकृत रही है, लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता था, जमीन के अधिकार से बाहर रखा जाता था, अब ये सब उन महिलाओं के लिए एक साथ एक अभिशाप के रूप में सामने आई हैं जिनको अपने पितृ वंश से संबंधित दस्तावेज प्रस्तुत करने हैं। ये दस्तावेज नागरिकता साबित करने के लिए अनिवार्य हैं। इसके अलावा, असम में अस्पतालों में होने वाले प्रसव की दर बहुत कम है। इसका मतलब साफ है कि बहुत कम बच्चों के पास जन्म प्रमाण पत्र है।
जन्म प्रमाण पत्र और स्कूल छोडने के प्रमाण पत्र के न होने के कारण सूर्यभान बीबी और बचीरन बीबी जैसी महिलाएं डिटेंशन कैंप में पहुंच गई हैं क्योंकि ये अपने-अपने पिता के साथ संबंधों को दर्शाने वाले कागजात जमा नहीं करा पाईं। बिराज अली कहते हैं कि जब भी मैं बचीरन से मिलने जाता हूं तब वह जहर मांगती है, जिसे खाकर वह अपना जीवन खत्म कर ले। असम में नागरिकता खोने का खतरा झेल रहे लोगों की मदद करने वाले एक मानवाधिकार वकील दर्शन मित्रा कहते हैं कि डिटेंशन कैंप्स में ऐसे महिलाओं की भरमार है जिनके दस्तावेजों में टाइपिंग संबंधी गलतियां थीं। इन गलतियों की वजह से ऐसी तमाम महिलाओं को जेल काटनी पड़ रही है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अन्य कारण से ज्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। मित्रा कहते हैं, “डिटेंशन सेंटर पहुंचने वाली ज्यादातर महिलाओं में एक बात कॉमन है कि उनका एक दस्तावेज शादी से पहले का है और दूसरा शादी के बाद का है। ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जिसमें महिलाओं की शादी के पहले वाले नाम और बाद वाले नाम के बीच संबंध को स्थापित होता हो।“ रक्त संबंध और विरासत संबंधी दस्तावेजों की मांग पर जोर देने का मतलब ये है कि जो लोग पितृसत्तात्मक भारतीय परिवार में हाशिये पर रहे हैं, वह नागरिकता के मामले में भी हाशिये पर चले जाएंगे।
जलवायु ने महिलाओं को सबसे बुरी तरह से प्रभावित किया है
हिंदु कुश हिमालयन (एचकेएच) रीजन, असम जिसका हिस्सा है, में क्लाइमेट एंड जेंडर के प्रभावों पर अध्ययन करने वालों के लिए दस्तावेजों की कमी जैसी बात हैरान करने वाली नहीं है। हिंदु कुश हिमालयन मॉनिटरिंग एंड एसेसमेंट प्रोग्राम की ऐतिहासिक रिपोर्ट में द् इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट ने बताया गया है कि जलवायु संबंधी जल दबाव और लैंगिक असमानता से कई तरह से महिलाओं और लड़कियों के लिए स्थितियां कठिन हो गई हैं। उदाहरण के लिए गरीब परिवारों में लड़कियों को बहुत कम उम्र में शादी के लिए मजबूर कर दिया जाता है, जिसकी वजह से उनकी पढ़ाई बीच में छूट जाती है और कई को तो हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। जल्दी शादी और स्कूलों में कम उपस्थिति के साथ ही फैसले लेने के मामले में स्वयत्तता की कमी का मतलब साफ है कि गरीब वंचित महिलाओं की पहुंच दस्तावेजों तक बहुत सीमित है और यही दस्तावेज अब उनसे नागरिकता साबित करने के लिए मांगे जा रहे हैं। नवंबर, 2019 में वूमन एगेंस्ट सेस्सुअल वायलेंस एंड स्टेट रेप्रेसन (डब्ल्यूएसएस) की निशा विश्वास की अगुवाई में नौ सदस्यीय एक फैक्ट फाइडिंग मिशन ने एक वक्तव्य जारी करते हुए स्पष्ट तौर पर एनआरसी की प्रक्रिया और लैंगिक मुद्दों पर अपनी बात रखी। चूंकि महिलाओं को ऐतिहासिक तौर पर जमीन में और पिता की संपत्ति में अधिकार देने की बात नहीं रही है, ऐसे में उनके लिए दस्तावेजों को प्रस्तुत करना बहुत कठिन काम है। अपने जन्म से जुड़ी वसीयत को सिद्ध करने के लिए महिलाओं को, यहां तक कि वे महिलाएं भी जिनका विवाह दशकों पूर्व हुआ है, अपने पिता के परिवार से जुड़े वसीयत संबंधी दस्तावेज प्रस्तुत करने हैं। असम में ज्यादातर महिलाओं का विवाह 18 साल की उम्र से पहले ही हो जाता है। ज्यादातर 10वीं की पढ़ाई (2001 की जनगणना के मुताबिक असम में महिला साक्षरता केवल 50 फीसदी के आसपास है) भी पूरी नहीं कर पाती हैं। इसके अलावा वोटर आईडी और स्कूल सर्टिफिकेट में नाम भी एक जैसे नहीं हैं।
असम के बराक वैली रीजन के दौरे के बाद डब्ल्यूएसएस ने बताया, चूंकि हाल ही तक घरों में प्रसव की परंपरा रही है, ऐसे में जन्म प्रमाण पत्र होना बहुत दुर्लभ है। मैरिज सर्टिफिकेट भी बहुत गिने-चुने लोगों के पास होता है। इसके अलावा शादी के बाद जिन महिलाओं ने अपने सर नेम बदल लिये उनके लिए ये भी दिक्कत है कि वह अपने पिता पक्ष के साथ संबंध को कैसे साबित करें। बिश्वास की टीम ने ऐसी महिलाओं से मुलाकात की जिनके नाम के आगे शादी से पहले खातून लिखा जाता था लेकिन शादी के बाद बेगम लिखा जाने लगा, ये मुस्लिम समुदाय में परंपरा है। इस दौरे के बाद बिश्वास ने महसूस किया कि वे महिलाएं जो संस्थागत विवाह और परिवार की परिधि से बाहर हैं, मसलन, अकेली महिला, विधवाएं, परित्याग की गई महिलाएं एवं बच्चे, इनके लिए प्राधिकारियों के सामने अपनी नागरिकता साबित करने वाले दस्तावेज प्रस्तुत कर पाने के आसार बेहद कम होते हैं।
आने वाले वक्त में क्या होगा
इन्हीं कारणों से महिलाएं कैद होने के लिए मजबूर हो रही हैं और इसी से इस क्षेत्र में भविष्य में विकास की संभावनाओँ को स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है। बांग्लादेश, भूटान, इंडिया और नेपाल (बीबीआईएन) में अंतर्देशीय जलमार्गों के विकास जैसी प्रमुख क्षेत्रीय विकास पहलों ने नदियों के किनारे रहने वाले समुदायों के हाशिये पर जाने को लेकर अपनी चिंता जताई है। इन समुदायों की सक्रिय भागीदारी के बिना, खासकर इन समुदायों की महिलाओं को सक्रिय रूप से शामिल किये बिना, सड़क और रेल परिवहन के पर्यावरण मित्र विकल्पों को विकसित करने संबंधी कहे गये लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सकता जिनके भरोसे इस क्षेत्र के समुदायों में समृद्धि आ सकती है।
पूरे हिंदु कुश हिमालय क्षेत्र में महिलाएं घरेलू कामों के लिए जरूरी पानी की मुख्य जिम्मेदारी निभाती हैं। नदी के किनारों में आर्थिक संभावनाएं बहुत कम हैं, इसलिए यहां रहने वाले परिवारों में ज्यादातर पुरुष शहरों में काम करने के लिए पलायन कर जाते हैं, ऐसे में नदियों के पारिस्थितिक तंत्र जैसे मामलों की जिम्मेदारी भी यहां की महिलाओं के ऊपर ही होती है।
नेपाल की तरफ महाकाली रिवर बेसिन की तरफ रहने वाली महिलाओं ने समूह बनाये हैं और वे नदियों की पारिस्थितिकी प्रबंधन और प्रदूषण की निगरानी में बहुत अहम भूमिका निभा रही हैं। नदियों के किनारे रहने वाली महिलाओं को बंदी बनाने या उनके शोषण की जगह उनको सशक्त करने के लिए इस तरह से सफल मॉडल को लागू करने की जरूरत है। ये ध्यान देने वाली बात है कि वित्त वर्ष 2019-2020 के बजट में असम सरकार ने पुलिसिंग पर खर्च को पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 11 फीसदी बढ़ाया है। भारत के अन्य राज्य औसतन 4.3 फीसदी खर्च करते हैं, उनकी तुलना में ये काफी अधिक है। वहीं, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण में बजट में 36 फीसदी की कमी की गई है। हमेशा से वंचित वर्गों के कल्याण के लिए खर्च में 20 फीसदी की कटौती की गई है।
(इस आलेख में अतिरिक्त इनपुट Omair Ahmad और Joydeep Gupta का है।)