महासागर

भारतीय तटों को ज़रूरत है मज़बूत योजनाओं की

राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय के बावजूद, कटाव नियंत्रण के लिए तटों पर कठोर संरचनाओं का निर्माण अभी भी किया जा रहा है
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<p>दक्षिण भारत के एक गांव धनुषकोडी के तटों को कटाव से बचाने के लिए कवच प्रदान किया गया है। इस बात की आशंका बढ़ रही है कि यह “कठोर” दृष्टिकोण उल्टा पड़ सकता है (फोटो: ओल्हा कोलेसनिक / अलामी)</p>

दक्षिण भारत के एक गांव धनुषकोडी के तटों को कटाव से बचाने के लिए कवच प्रदान किया गया है। इस बात की आशंका बढ़ रही है कि यह “कठोर” दृष्टिकोण उल्टा पड़ सकता है (फोटो: ओल्हा कोलेसनिक / अलामी)

अरिचल मुनई बीच तमिलनाडु के रामेश्वरम द्वीप के पूर्वी सिरे पर धनुषकोडी गाँव के ठीक पीछे है। वैसे तो मन्नार की खाड़ी और श्रीलंका के उत्तरी तट के बीच समुद्र के अलावा कुछ नहीं है लेकिन यहां अरिचल मुनई से साफ़ नीले पानी का मनोरम दृश्य दिखाई देता है, और साथ ही दिखता है कंक्रीट से बनी चट्टानें।

इस तटरेखा के किनारे ऐसी चट्टानों की कतारें लगाई गई हैं ताकि तट को लहरों से बचाया जा सके। लेकिन आलोचकों का कहना है कि ये सख़्त संरचनाएँ समुद्र को तमिलनाडु के तटरेखा के अन्य हिस्सों में मछुआरों की बस्तियों के करीब ला रही हैं।

धनुषकोडी के एक स्थानीय मछुआरे जी आनंद कहते हैं, “समुद्र तट की जगह अब वहां पानी है, इसलिए हमें अपनी नावें खड़ी करने में परेशानी होती है।” 53 वर्षीय आनंद ने कभी इन सुरक्षाओं का समर्थन किया था, लेकिन अब वे इन्हें एक समस्या मानते हैं। “प्रजनन के लिए तट पर आने वाले कछुओं की आबादी भी पिछले कुछ वर्षों में कम हो रही है।”

2022 में भारत के सर्वोच्च पर्यावरण न्यायालय ने क्षेत्रीय सरकारों को आदेश दिया कि वे जहाँ संभव हो, वहाँ तटरेखा की ‘हार्ड डिफेंसेस’ यानी कठोर सुरक्षा से बचने का प्रयास करें और अपने तटों के प्रबंधन के लिए व्यापक योजनाएँ लागू करें। लेकिन राज्य और केंद्र शासित प्रदेश अभी भी इन कंक्रीट संरचनाओं का निर्माण कर रहे हैं और कई राज्य ऐसी योजनाएँ बनाने में विफल रहे हैं, जो न्यायालय के फैसले की स्पष्ट अवहेलना है।

खतरे में पड़े तटों पर कड़ी कार्रवाई

समुद्र तट तब विकसित होते हैं जब धाराएँ जितना तलछट बहाकर ले जाती हैं उससे ज़्यादा तलछट जमा करती हैं। इसे ध्यान में रखते हुए, कभी-कभी समुद्र में ‘ग्रोइन’ अवरोध बनाए जाते हैं। ये रेत को पकड़कर और फँसाकर समुद्र तटों की रक्षा करते हैं जो। अगर ये ना हो तो रेत कहीं और बह जाती। लेकिन ग्रोइन आस-पास के स्थानों के लिए कटाव को और भी बदतर बना सकते हैं।

पर्यावरण और मछली पकड़ने के संगठनों के एक समूह, राष्ट्रीय तटीय संरक्षण अभियान के प्रोबीर बनर्जी, इस प्रभाव को समझाते हैं: “तट के एक हिस्से में रेत ज़्यादा होती है, और नीचे की ओर दूसरी तरफ तलछट की कमी होती है। जिस हिस्से में तलछट की कमी होती है, वह तब तक कटाव करता रहता है जब तक कि रेत की नई आपूर्ति नहीं की जाती।”

इसलिए कई विशेषज्ञ “नरम” रक्षा रणनीतियों के पक्ष में ग्रोइन और समुद्री दीवारों के उपयोग का समर्थन नहीं करते। नरम” रक्षा रणनीतियों का मतलब हुआ खोई हुई समुद्र तट की रेत को फिर से भरना और घास लगाकर रेत के टीलों को बढ़ावा देना। समुद्र तटों पर कठोर संरचनाओं का समुद्री वनस्पतियों और जीवों पर भी विनाशकारी प्रभाव हो सकता है। उनमें मछली, क्रस्टेशियन और शंख के आवासों को नुकसान पहुँचाने और समुद्री कछुओं को घोंसला बनाने से रोकने की क्षमता होती है।

वैसे तो प्राकृतिक समाधान ज़्यादा प्रभावी हैं, लेकिन उनके लिए सरकार से फंड प्राप्त करना चुनौती है
मत्स्य विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी

भारत के हज़ारों किलोमीटर लंबे तटीय क्षेत्र का ज़्यादातर हिस्सा तेज़ी से कटाव की चपेट में आ रहा है। सरकारी संस्था राष्ट्रीय तटीय अनुसंधान केंद्र का अनुमान है कि 33.6% तट कटाव के प्रति संवेदनशील है, जबकि केवल 26.9% तट ही बढ़ रहा है। कुछ क्षेत्र दूसरों की तुलना में अधिक संवेदनशील हैं: आंकड़ों के अनुसार, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी के 50% से अधिक तट कटाव की चपेट में हैं। तटीय कटाव प्राकृतिक प्रक्रियाओं, जलवायु परिवर्तन और मानवजनित गतिविधियों का परिणाम है। इसे हल करने के लिए बनाए गए कठोर ढाँचे शायद मददगार न हों और जहाँ वे स्थापित किए गए हैं, वहाँ के क्षेत्रों में तलछट की कमी के कारण कटाव को और भी बदतर बना देते हैं।

मत्स्य विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी (नाम न बताने की शर्त पर बोलते हुए) कहते हैं, “कठोर इंजीनियरिंग उपायों ने असलियत में कटाव को और भी बदतर बना दिया है।”उदाहरण के लिए: चेन्नई के थलंकुप्पम बीच पर ग्रोइन लगाए जाने के बाद, तटरेखा 12 मीटर पीछे हट गई है, जिससे पानी अब मुख्य सड़क तक पहुँच गया है। प्राकृतिक समाधान अधिक प्रभावी हैं, लेकिन उनके लिए सरकार से फण्ड प्राप्त करना मुश्किल है।

बुरे प्रभावों के बावजूद, पिछले साल चेन्नई की सरकार ने करिकट्टुकुप्पम के तटीय गांव में दो बड़े ग्रॉयन का निर्माण किया जो समुद्र से 120 मीटर की दूरी तक फैला हुआ है। यह काम मछुआरों की दलीलों के जवाब में किया गया था, जिनके गांवों को समुद्र से खतरा है।

सिर्फ़ चेन्नई ही कठोर इंजीनियरिंग का समर्थन नहीं करता बल्कि महाराष्ट्र सरकार ने मुंबई के अक्सा बीच पर एक बड़ी समुद्री दीवार बनाई है। और अक्टूबर 2024 में, केरल के सिंचाई विभाग ने पूनथुरा क्षेत्र में आठ ग्रॉयन का निर्माण शुरू कर दिया है। इस बीच, तमिलनाडु के चेंगलपट्टू जिले में, पिछले साल कम से कम 10 तटीय गांवों में ग्रॉयन, समुद्री दीवारें और आर्टिफीसियल अवरोध बनाए गए थे, स्थानीय सूत्रों ने डायलॉग अर्थ को बताया।

कोर्ट का नरम रुख

ये निर्माण राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के कानूनी रूप से बाध्यकारी फैसले का उल्लंघन करते हैं। 2022 में, इसने भारतीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को ग्रॉयन जैसी कठोर संरचनाओं के बजाय समुद्र तट पोषण जैसे नरम समाधान अपनाने का निर्देश दिया।

समुद्रतटीय पोषण क्या है?

“नरम” तटीय इंजीनियरिंग का एक उदाहरण समुद्र तट पोषण में तलछट की भरपाई करके कटाव के खिलाफ तटरेखा को मजबूत करना शामिल है। इसमें तलछट स्थानीय समुद्र तटों से आती है। नहीं तो यह कटाव की समस्या को कहीं और स्थानांतरित करने का जोखिम उठाता है।क्योंकि तलछट मोटा या महीन हो सकता है, इसलिए यह कुछ स्थानीय प्रजातियों के लिए आवास को अनुपयुक्त भी बना सकता है। समुद्र तट पोषण को समुद्री दीवारों जैसी कृत्रिम संरचनाओं के निर्माण से अधिक टिकाऊ माना जाता है। अपने सबसे अच्छे रूप में, यह न केवल तटरेखा को मजबूत करता है, बल्कि नए प्राकृतिक वातावरण बना सकता है, भद्दे कठोर इंजीनियरिंग संरचनाओं को दफन कर सकता है, और तलछट की मात्रा को सुरक्षित रख सकता है।

इस बात पर ज़ोर देते हुए कि सख्त उपायों से केवल तटरेखा परिवर्तन की समस्या ही हल होती है, एनजीटी ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कहा कि वे छह महीने के भीतर अपनी तटरेखा प्रबंधन योजनाएँ तैयार करें और उन्हें अपडेट करें। दो साल बाद भी इस दिशा में बहुत कम प्रगति हुई है।

पुडुचेरी ने एनजीटी के आदेश के अनुसार तटरेखा प्रबंधन योजना को लागू किया है (और पहले से ही संशोधित कर रहा है)। लेकिन न तो भारत के तीन अन्य केंद्र शासित प्रदेशों और न ही इसके नौ तटीय राज्यों ने इसका अनुसरण किया है।

सरकारें, इंजीनियर और मछुआरे अक्सर सख्त संरचनाओं को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि वे स्थानीय कटाव को तुरंत रोक देते हैं। यह सरकारों के लिए एक आसान विकल्प लग सकता है। इस तरह के काम के लिए मौजूदा उदाहरणों पर अपने डिजाइन को आधार बना सकते हैं, जिससे प्रक्रिया और सरल हो जाती है। लेकिन नरम उपायों के लिए स्थानीय परिस्थितियों का सावधानीपूर्वक वैज्ञानिक अध्ययन करने की ज़रूरत होती है।

के सरवनन कहते हैं, “इसमें कोई मूल्यांकन नहीं है, कोई डिज़ाइन नहीं है और हितधारकों के साथ कोई परामर्श नहीं है। इन संरचनाओं को हर समुद्र तट के लिए एक समाधान के रूप में देखा जाता है, चाहे उसका चरित्र कुछ भी हो।” मछुआरे और कार्यकर्ता ने जुलाई 2024 में एनजीटी में एक मामला दायर किया, जिसमें तटरेखा प्रबंधन योजना के बिना करिकट्टुकुप्पम के ग्रॉयन के निर्माण के चेन्नई के फैसले को चुनौती दी गई।

एजेंसियों की भूमिका

क्षेत्रीय सरकारों ने तटरेखा प्रबंधन योजनाएँ विकसित करने में मदद के लिए कुछ एजेंसियों को चुना है। राष्ट्रीय तटीय अनुसंधान केंद्र (एनसीसीआर) को तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और पुडुचेरी के लिए योजनाएँ तैयार करने और उन्हें अद्यतन करने का काम सौंपा गया है।

एनसीसीआर के निदेशक एमवी रमण मूर्ति कहते हैं कि आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के लिए मसौदा योजनाएँ अंतिम स्वीकृति के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के पास हैं। केरल और पुडुचेरी की योजनाएँ अभी भी तैयार की जा रही हैं। रमण मूर्ति कहते हैं, “ये योजनाएँ तटीय कटाव को रोकने के लिए प्रकृति-आधारित समाधानों के महत्व को उजागर करती हैं।”

“हालांकि, राज्य सरकारें अक्सर इन तरीकों को अपनाने में नहीं दिखाती क्योंकि इनका रखरखाव बहुत ज़्यादा होता है और समय भी ज़्यादा लगता है, जिससे इनके कार्यान्वयन की सीमा अनिश्चित हो जाती है।”

Crowd of people in colorful clothing on a sandy beach with waves and boats nearby.
तमिलनाडु के अरिचल मुनई समुद्र तट की कठोर समुद्री सुरक्षा भी पर्यटकों को नहीं रोक पाई है (फोटो: मणिवन्नन थिरुगनासम्बंदम / अलामी )

उन्होंने कहा कि एनसीसीआर ने भारत के समुद्र तट पर बस्तियों का मानचित्रण किया है ताकि सबसे उपयुक्त कटाव-नियंत्रण विधियों का पता लगाया जा सके: “घनी आबादी वाले क्षेत्रों के लिए, अगर ज़रूरत ज़्यादा हो तो हमने कठोर इंजीनियरिंग समाधानों की सिफारिश की। मध्यम आबादी वाले क्षेत्रों में, हमने एक बीच का रास्ता चुना। जबकि कम आबादी वाले क्षेत्रों के लिए, हमने प्रकृति-आधारित समाधानों को प्राथमिकता दी। हमने कटाव दरों पर भी विचार किया और इन निर्णयों को निर्देशित करने के लिए संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान की।”

याचिकाकर्ता के सरवनन का कहना है कि एनसीसीआर उपग्रह इमेजरी पर बहुत अधिक निर्भर रहा है, जबकि उसे जमीनी सर्वेक्षण करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि उचित परामर्श के बिना योजनाएँ बनाई जा रही हैं, तमिलनाडु में मछुआरे संघों ने भी डायलॉग अर्थ को बताया।

एनसीसीआर ने इन आरोपों का खंडन किया, रमण मूर्ति ने कहा: “हमें मत्स्य संघों से इनपुट मिल रहे हैं।”

आगे बढ़ने का रास्ता

तटीय कटाव पूरे क्षेत्र में एक चिंताजनक समस्या है। 2017 के एक अनुमान से पता चलता है कि इंडोनेशिया के लगभग 35% तटीय क्षेत्र में मध्यम, उच्च या बहुत उच्च कटाव दर का अनुभव हो रहा है; मलेशिया के 29% तटीय क्षेत्र में कटाव हो रहा है; और फिलीपींस में 50% मानचित्रित क्षेत्र पीछे हट रहे हैं। कुछ देश सूचित कार्रवाई कर रहे हैं। मलेशिया की एकीकृत तटरेखा प्रबंधन योजना को हितधारकों की भागीदारी के बाद राज्य-दर-राज्य लागू किया जा रहा है। फिलीपींस भी इसी तरह के कदम उठा रहा है।

तुलना में, डायलॉग अर्थ द्वारा परामर्श किए गए कई स्रोतों को डर है कि भारत पिछड़ रहा है। उनका कहना है कि देश के तटीय कटाव को संबोधित करने वाली राज्य-स्तरीय योजनाओं को तेजी से कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय सरकार से सहमति की आवश्यकता होगी। महत्वपूर्ण रूप से, स्थानीय समुदायों की शिक्षा स्थायी समाधानों को प्रेरित करेगी। विशेषज्ञों और मछुआरों का कहना है कि ज़्यादातर मामलों में यह स्थानीय मछुआरे ही होते हैं जो अपनी सरकार से सख्त सुरक्षा बनाने का आह्वान करते हैं।

“जब इस तरह की संरचनाएं एक तटीय बस्ती में बनाई जाती हैं, तो कटाव आस-पास के गाँव में स्थानांतरित हो जाता है। और इसलिए, इन्हें यहाँ भी बनाया जाना चाहिए,” चेंगलपट्टू के तटीय गांव आलमपराई कुप्पम के मछुआरे एस सतीश कुमार कहते हैं।

क्योंकि क्षेत्रीय सरकारें व्यापक तटरेखा प्रबंधन योजनाओं के विकास और कार्यान्वयन पर विचार कर रही हैं, इसलिए भारत के कई रेतीले समुद्र तटों का भविष्य अनिश्चित है।

केरल के कोचीन में मछुआरे गणेशन वी कहते हैं: “पानी पहले से ही मेरे घर तक पहुँच रहा है। मैं बस इसे रोकने के बारे में सोच सकता हूँ। मेरे पास एक अच्छा इंसान होने और अगले गांव में कटाव या इन कठोर संरचनाओं को लगाने के पर्यावरणीय प्रभावों के बारे में चिंता करने की सुविधा नहीं है।”