बनारस के दुर्गाकुंड में रहने वाले आकाश अपने बाथरूम के नल से आने वाले गंदे पानी को लेकर बेहद सतर्क हैं। 18 साल के आकाश, थोड़ी देर तक गंदे बदबूदार पानी को नल से बहने के लिए छोड़ देते हैं ताकि साफ पानी आ जाए। उनका परिवार भी इसको लेकर बहुत सतर्क है ताकि वे कहीं गलती से गंदा पानी न इस्तेमाल कर लें। हालांकि ये भी पाया गया है कि वहां आने वाला साफ पानी भी सुरक्षित नहीं है। आकाश के परिवारवालों को एक चिकित्सक ने बताया है कि वहां आने वाले साफ पानी में भी सीवेज से आने वाले बैक्टीरिया की कुछ मात्रा हो सकती है जो कि आकाश के बार-बार डायरिया से पीड़ित होने का कारण हो सकता है।
उत्तर प्रदेश में गंगा के किनारे बसा वाराणसी, दुनिया के सबसे पुराने शहरों में एक है। 2011 की जनगणना के मुताबिक इस शहर की आबादी तकरीबन 14 लाख है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यहां से सांसद चुने जाने के बाद हिंदुओं का सबसे प्रमुख तीर्थस्थल बनारस का राजनीतिक महत्व और भी बढ़ गया।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान गंगा की सफाई का वादा किया था। शहर में कई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स स्थापित करना उनकी इस योजना का प्रमुख हिस्सा है। जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि गंगा में पानी की कमी जल प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है और इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
शहरी विकास मंत्रालय की अक्टूबर, 2013 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक शहर में कुल जल आपूर्ति में 38 फीसदी हिस्सेदारी गंगा की है जबकि बाकी आपूर्ति 220 ट्यूबवेल्स के जरिये भूमिगत जल से होती है। रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि तकरीबन 69 फीसदी परिसंपत्तियों में ही पानी के कनेक्शन हैं। वहीं, झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाकों में केवल 32,900 कनेक्शन हैं जो इस क्षेत्र का 42 फीसदी है। बाकी लोग 352 सार्वजनिक नलों, 750 हैंडपंप्स, 41 ट्यूबवेल्स और 16 मिनी ट्यूबवेल्स पर निर्भर हैं।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग के अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि अध्ययनों से स्पष्ट है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अधिकृत प्रति व्यक्ति जल उपभोग मानक और बनारस में वास्तविक जल आपूर्ति में काफी अंतर है।
Ground water in the City of Varanasi, India: present status and prospects शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि शहर को रोजाना 27 करोड़ लीटर पानी गंगा और भूजल से प्राप्त होता है लेकिन तकरीबन शहर की कुल आबादी का पांचवें हिस्से को अभी तक पीने लायक साफ पानी मयस्सर नहीं है।
पुराना बुनियादी ढांचा एक बड़ी समस्या
जल आपूर्ति में कमी ही एक मात्र समस्या नहीं है। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) द्वारा वित्त पोषित गंगा अनुसंधान कार्यक्रम के चेयरपर्सन बी. डी. त्रिपाठी के मुताबिक पाइपों में रिसाव के कारण सीवेज वाला पानी, शोधित पानी में मिल जाता है।
त्रिपाठी thethirdpole.net से बातचीत में बताते हैं, “शहर में जल आपूर्ति की प्रमुख साधन वाटर पाइपलाइनें हैं जो कई जगहों पर टूटी हुई हैं और सीवर लाइनें उनके बिलकुल बगल में हैं। दिन के वक्त जल के दबाव के चलते सीवेज, साफ पानी में नहीं मिल पाता लेकिन जब रात में पंप बंद हो जाते हैं, दबाव कम हो जाता है तब सीवर वाला पानी, शोधित पानी में मिल जाता है। इसी वजह से सुबह के वक्त बहुत से घरों में सीवर मिला हुआ बदबूदार गंदा पानी आता है।“
जवाहर लाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन (जेएनएनयूआरएम) के तहत बनारस के लिए तैयार शहरी विकास योजना में भी जल वितरण को प्रमुख विषय बताया गया क्योंकि एक सदी पहले बनी जल आपूर्ति पाइप लाइनों का संचालन और उनका रखरखाव अब बेहद कठिन हो गया है।
त्रिपाठी कहते हैं, “जल आपूर्ति का ये तंत्र बहुत पुराना पड़ चुका है और एक तथ्य ये भी है कि इसको ठीक करने के लिए अब तक नाममात्र का काम या मरम्मत कार्य हुआ है। इस वजह से शहर का जल वितरण तंत्र बुरी तरह से प्रभावित है। नतीजतन साफ पानी की काफी बरबादी होती है। कई स्थानों पर पानी की पाइप लाइनें, सीवेज लाइनों, खुले और बड़े नालों से होकर गुजरती हैं और इनमें रिसाव के कारण साफ पानी में सीवेज व गंदगी मिल जाती है।“
बनारस के मेयर राम गोपाल मोहले कहते हैं, “जल शोधन संयंत्र की अपर्याप्त क्षमता और पर्याप्त जल भंडारण वाली टंकियों की कमी की वजह से शहर में जल आपूर्ति की समस्या बढ़ गई है।“ वह कहते हैं कि जल आपूर्ति के लिए जवाबदेह इकाई जल निगम जेएनएनयूआरएम के तहत मिलने वाली राशि उपयोग में लाने में अब तक समक्ष नहीं हुई। वैसे नई पाइप लाइनें डाली गई हैं लेकिन रिसाव बरकरार है। पानी की बड़ी-बड़ी टंकियां बनाई गई हैं लेकिन अभी उनका संचालन शुरू नहीं हुआ है। एक अन्य जल शोधन संयंत्र परियोजना भूमि अधिग्रहण संबंधी विवाद की वजह से लटक गई है।
फिलहाल, भेलूपुर स्थित जल शोधन संयंत्र गंगा से प्रतिदिन 250 करोड़ लीटर पानी शोधन करता है। दिसंबर, 2014 से फरवरी, 2015 के बीच द् एनर्जी एंड रिसोर्सस इंस्टीट्यूट (टेरी) द्वारा कराये गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक बनारस के 80 फीसदी लोग मानते हैं कि गंगा के पानी गुणवत्ता खराब है और इसका असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।
बढ़ता गया गंगा में प्रदूषण
लोगों की चिंता वाजिब है। बनारस में गंगा का पानी समय के साथ लगातार खराब होता गया है। गंगा की धारा में सफाई गुणवत्ता संकेतक कोलीफॉर्म बैक्टीरिया जनवरी,1988 में प्रति 100 मिलीग्राम पानी में 14,300 मापा गया था। यह बढ़कर जनवरी 2008 में 140,000 हो गया और जनवरी, 2014 में यह 24 लाख के बेहद उच्च स्तर तक पहुंच गया।
जल गुणवत्ता का एक अन्य मानक बॉयोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) है। बीओडी, कार्बनिक पदार्थों को तोड़ने के लिए जरूरी घुलित ऑक्सीजन की वह मात्रा है, जिसकी जैविक प्राणियों को जरूरत होती है। अपशिष्ट जल शोधन संयंत्रों की प्रभावशीलता जांचने या किसी जलाशय में कार्बनिक प्रदूषण, जैसे सीवेज की मात्रा का पता लगाने में इसे एक मापक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
आदर्श रूप में, बीओडी पीने वाले पानी के स्रोत के रूप में कीटाणुशोधन के बिना प्रति लीटर पानी में 2 मिग्रा से कम होना चाहिए। इस साल अप्रैल में दर्ज आंकड़ों के हिसाब से गंगा जब वाराणसी में प्रवेश करती है तब बीओडी प्रति लीटर पानी में 2.8 मिग्रा है और गंगा जब वाराणसी से बाहर निकलती है तो ये बीओडी बढ़कर प्रति लीटर 4.9 मिग्रा पाई गई। इससे पता चलता है कि बहुत बड़ी मात्रा में शहर का अशोधित सीवेज नदी में डाला जाता है।
शहर की आबादी बढ़ने के साथ-साथ भूजल पर निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। साथ ही जल प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। दिक्कत ये है कि घरों और उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्टों को शहर के निचले हिस्सों में नष्ट किया जाता है जहां भूजल को दोबारा रिचार्ज करने वाले कई टैंक और तालाब मौजूद हैं। इन अपशिष्ट से निकलने वाले खतरनाक रसायन और बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया धीरे-धीरे भूजल में समाहित हो जाते हैं।
इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस, बीएचयू में असिस्टेंट प्रोफेसर ललित प्रशांत मीना हर हफ्ते डायरिया से पीड़ित ऐसे कई मरीजों का इलाज करते हैं जिन्हें स्थानीय चिकित्सक बीएचयू में भेज देते हैं। वह बताते हैं, “इन मरीजों में सबसे बड़ी समानता ये होती है कि ये सभी अशोधित पानी के शिकार हैं। हालांकि दूषित पानी के कारण होने वाली दस्त तक का इलाज तो स्थानीय चिकित्सक कर लेते हैं लेकिन ज्यादा परेशानी होने पर वे इन्हें इंस्टीट्यूट भेज देते हैं।“ वह कहते हैं कि लक्षण के आधार पर और स्वास्थ्य परीक्षण कराने के बाद इन मरीजों से ये पता चलता है कि ये सभी बैक्टीरिया के इंफेक्शन से प्रभावित हैं।
बनारस में पीने से होने वाली बीमारियों से बचने के लिए लोग निजी जल शोधन प्रणाली अपनाने पर मजबूर हो गए हैं। वाराणसी में निजी तौर पर जल शोधन का काम करने वाले सागर का कहना है, एक दशक पहले यहां केवल दो कंपनियां लोगों को पानी शोधन की सुविधा देती थीं, अब मांग बढ़ने के कारण तकरीबन 30 कंपनियां ये काम कर रही हैं।
बेहतर कल की उम्मीद
वैसे, मेयर मोहले को भरोसा है कि जो बदलाव जेएनएनयूआरएम के तहत जल निगम नहीं कर पाया वो अब केंद्र सरकार की एक अन्य योजना अटल मिशन फॉर रेजुवेन्शन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (एएमआरयूटी) के जरिये हो सकेगा। पहले वाली योजना पिछली सरकार ने शुरू की थी। जल आपूर्ति के लिए मौजूदा सरकार ने ये फ्लैगशिप प्रोग्राम शुरू किया है।
मोहले ने वाराणसी महानगर पालिका को निर्देश दिया है कि वो शहर के बुनियादी ढांचे की बेहतरी के लिए निजी कंपनियों के साथ मिलकर प्रस्ताव तैयार करे जिसमें जल आपूर्ति, सीवरेज और स्टार्म वाटर ड्रेंस शामिल हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून 2015 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर स्मार्ट सिटी परियोजना के साथ एएमआरयूटी शुरू किया।
केंद्र सरकार ने भी हाल ही में जापान सरकार से बनारस में बुनियादी सुविधाओं के आधुनिकीकरण में सहयोग मांगा है। अगस्त-सितंबर, 2014 में प्रधानमंत्री मोदी की जापान यात्रा के दौरान वाराणसी और क्योटो के बीच एक पार्टनर सिटी एफिलिएशन एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर हुए।
इस समझौते का उद्देश्य बनारस के आधुनिकीकरण के लिए जापान से तकनीक और विशेषज्ञता का सहयोग लेना है। आधुनिकीकरण में जल प्रबंधन और सीवेज सुविधा को उन्नत करना, अपशिष्ट प्रबंधन और शहरी परिवहन शामिल हैं। हालांकि अफसोसजनक बात ये है कि अभी ये स्पष्ट नहीं है कि बनारस का पानी कब तक क्योटो जितना साफ हो सकेगा। जब तक ये नहीं हो जाता तब तक आकाश जैसे लाखों लोग साफ पानी के लिए जद्दोजहद करते रहेंगे।