कावेरी जल को लेकर उठे विवाद से दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य का बड़ा हिस्सा हिंसा की चपेट में है। इस हिंसा में अब तक 3 लोगों की मौत हो गई। कई गाड़ियों और दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया। इस घटना से पूरा दक्षिण भारत स्तब्ध है। भारत का आईटी हब, कर्नाटक राज्य की राजधानी बेंगलुरु 3 दिनों तक पूरी तरह से बंद रहा। इसके परिणामस्वरूप लगभग 25,000 करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान हुआ।
ये घटनाएं सितंबर माह के पहले सप्ताह में आए सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय से प्रारंभ हुई, जिसमें कर्नाटक सरकार को कावेरी का 15000 क्यूसेक पानी 20 सितंबर तक प्रतिदिन तमिलनाडु को देने की बात कही गई थी। हालांकि दो दिन की हिंसा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कानून-व्यवस्था का पालन न करवा पाने की वजह से कर्नाटक सरकार को फटराते हुए हस्तांतरित जल की मात्रा को 12000 क्यूसेक करने का फैसला लिया।
कावेरी जल विवाद का लम्बा एवं कड़वा इतिहास रहा है। अब इसके निहितार्थ भारत पड़ोसी देशों तक भी जा पहुचे हैं। और एक बार फिर राजकीय आदेशों का पालन न करवा पाने के कारण भारत के पड़ोसी देशों में निराशा है। ज्ञात हो कि पड़ोसी राज्य, भारत की अर्न्तराज्यीय नदियों गंगा और ब्रहमपुत्र के बेसिन के साथ जल संबंधित अनुबंध करने की योजना बना रहे हैं। लेकिन वे भारत सरकार एवं राज्य सरकारों का संधियों के प्रति नकारात्मक झुकाव और संधि लागू करने की क्षमता के प्रति आशंकित है।
एक तरफ कावेरी विवाद को लेकर हिंसा चरम पर चल रही थी, वहीं दूसरी ओर दिल्ली में नेपाल और बांग्लादेश के जल विशेषज्ञों की टीम अंर्तराष्ट्रीय जल परिसंवाद के लिए एकत्रित हुई थी। सभी सदस्य वर्तमान परिस्थिति में पानी के न्याय संगत जल निस्तारण संधि और सतत नदी बेसिन प्रबंधन को लेकर चिंतित थे। नेपाल से आए एक विशेषज्ञ के शब्दों में ‘‘भारत पहले पानी को लेकर अपनी आंतरिक समस्याओं का हल निकालें। और इससे पहले भारत से इस बारे में बात करने के कोई निहितार्थ नहीं रह जाता।’’
एक अन्य बांग्लादेशी विशेषज्ञ के अनुसार ‘‘भारत सरकार के विशेष प्रयासों के बावजूद तीस्ता जल संधि की असफलता की वजह अब समझ आती है। भले ही भारत का संघीय ढांचा कागजों में मजबूत हो, पर यह बांग्लादेश के लिए उपयुक्त नहीं दिखता।’’ ज्ञात हो कि तीस्ता संधि अंतिम समय में पश्चिम बंगाल सरकार की वजह से अनुमोदित नहीं हो पायी थी।
भारत के संघीय संविधान के अनुसार पानी राज्य का विषय है, लेकिन अर्न्तराज्यीय और अर्न्तराष्ट्रीय नदियां केन्द्र का विषय हैं। इन्ही कारणों से निर्णयों के क्रियान्वयन में भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए संविधानिक सुधार कमेटी ने पानी को समवर्ती सूची में रखने की सलाह दी। इससे केन्द्र के पास भ्रम की स्थिति में निर्णय लेने का अधिकार होगा। लेकिन राज्य सरकारें लगातार इसका विरोध करती आ रही हैं। हालांकि बीजेपी केन्द्र में आने के बाद भारत को और ज्यादा संघीय बनाने का स्वांग कर रही है, लेकिन हकीकत में इसके भविष्य में परिवर्तन की संभावना कम ही नजर आती है।
पानी देने से इनकार
हाल की हिंसा तमिलानाडु सरकार का कम बारिश के मानसून की वजह से पानी दूसरे राज्य को देने से इनकार करने से शुरू हुई। अभी तक इस वर्ष भारत में औसत मानसून रहा है। लेकिन कर्नाटक में यह राष्ट्रीय मानसून से 90 प्रतिशत कम रहा है, जो जून से सितम्बर माह तक रहता है। इसके परिणामस्वरूप कर्नाटक के कावेरी बेसिन जलाशय में जितना पानी होना चाहिए उतना नहीं हो सका। इससे मिलती-जुलती स्थिति तमिलनाडु राज्य की भी है क्योंकि यहां मानूसन छाया की वजह से ठण्ड के मौसम में ज्यादा वर्षा होती है।
इस स्थिति में सुप्रीम कोर्ट ने इस दर्द को दोनों राज्यों का समान रूप से बांटने का आदेश दिया था। हालांकि आदेश के बाद कर्नाटक की राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस, बीजेपी और जनता दल-यू ने कोर्ट के आदेश के बाद हिंसा होने की संभावना जताई थी। तमिलानाडु में एआईडीएमके एवं डीएमके बड़ी पार्टी है। जो हर बार मात्र उत्प्रेरक का ही काम करती है। एआईडीएमके इस समय सरकार में है, और हिंसा को लेकर उसके दृष्टिकोण में भी कोई परिवर्तन नहीं आया है।
कावेरी विवाद पर विशेषज्ञ, मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेन्ट स्टडीज के एस. जनकराजन के अनुसार राजनीतिक पार्टियों के अलावा इसका कोई दूरदर्शी समाधान नहीं है। तमिलनाडु में दो दिन की हिंसा के बाद www.thethirdpole.net से बात करते हुए जनकराजन कहते हैं, ‘‘कर्नाटक के किसान इसके लिए जिम्मेदार नहीं थे। उन पर गलत आरोप लगाया जा रहा था। यह हिंसा वोट बैंक की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों द्वारा उकसाया गया थी, जिसे प्रशिक्षित गुड़ों की मदद से और हवा दी गई। वे कौन से किसान हो सकते हैं, जो अपने गांव जाने वाली गाड़ी में आग लगाएंगे? कौन किसान बेंगलुरु में स्थायी रहता है और वो यहां की दुकानों में आग लगाएगा?
किसान समूहों के साथ संवाद ही एक मात्र समाधान
कावेरी विवाद पर समाधान तलाशने के लिए मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेन्ट स्टडीज ने 2003 से 2011 तक तमिलनाडु एवं कर्नाटक के किसानों से संवाद की श्रृंखला स्थापित करने की कोशिश की। इस बात का जिक्र करते हुए जनकराजन कहते हैं कि इस दौरान कोई हिंसा भी नहीं हुई। आगे वे कहते हैं कि नेताओं द्वारा किसानों को गलत सूचना देने की कुप्रथा को समाप्त करने की जरूरत है। उदाहरण के तौर पर कावेरी बेसिन के किसानों को कहा जाता है कि वे एक साल में तीन फसल ही उत्पादित करें। लेकिन किसानों के पास केवल आठ महीने से ज्यादा पानी नहीं रहता। इसलिए या तो किसान दो कम समय की फसल उत्पादित करते हैं या फिर एक लम्बी अवधि की फसल।
कर्नाटक के किसानों को कहा जाता है कि तमिलनाडु में सिंचाई के लिए भूजल स्तर बहुत अच्छा है। लेकिन केंद्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार वहां का अधिकतम भूजल उपयोग किया जा चुका है और उसका अब अत्यधिक दोहन किया जा रहा है। गलत सूचना के परिणाम स्वरूप कर्नाटक के किसान चाहते है कि तमिलनाडु के किसान चावल के बजाय कम जल में उत्पादित होने वाली फसलों का उत्पादन करें। लेकिन डेल्टा क्षेत्र में मिट्टी में अधिक लवणता होने की वजह से यह हर प्रकार की फसल के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती। किसानों के बीच इस प्रकार की गलत सूचना के प्रसार को समाप्त करने की जरूरत है। लेकिन राजनेता इस क्षेत्र में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाते।
कावेरी विवाद का कड़वा अतीत
कावेरी जल को लेकर 1892 और 1924 में अनुबंध हो हुआ था। यह अनुबंध कभी भी सतत और प्रभावी नहीं रहा। आधुनिक भारत में इसे 1974 के बाद से देखा जा सकता है। जब कर्नाटक राज्य ने 1924 के अनुबंध के नवीनीकरण से मना कर दिया। और केन्द्र सरकार के मना करने एवं योजना आयोग के पैसे देने से इनकार करने के बावजूद कावेरी की सहायक नदियों में चार जलाशय बनाए गए।
कई वर्षों की उथल-पुथल के बाद 1990 में कावेरी जल विवाद अधिनियम बना और जिसने 2007 में अपना अंतिम निर्णय दिया। कर्नाटक एवं तमिलनाडु सरकार ने इसके विरोध में अपील दायर की, तब से यह मामला कोर्ट में है। इसमें दोनों के वकील अपनी-अपनी मांग के आधार पक्ष रखते रहते है।
इस विवाद का अभी तक कोई कानूनी समाधान नहीं निकल पाया। इसके बाद प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कावेरी नदी प्राधिकार का गठन किया गया, जिसके सदस्य प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को बनाया गया। लेकिन न ही अधिकरण और न ही निगरानी संस्था ने इस क्षेत्र में कोई सकारात्मक कार्य कर पाई, यहां तक कि विवाद की स्थिति में भी कोई कारगर समाधान नहीं निकाल पाया।
जाने-माने पानी विशेषज्ञ रामास्वामी अयंगर के अनुसार इस विवाद का समाधान राज्यों के अधिकारों और मांगों के आधार को ध्यान में रखकर नहीं किया जा सकता बल्कि इसका उपलब्ध जल का न्यायसंगत वितरण ही एकमात्र समाधान है। जनकराजन के अनुसार कावेरी बेसिन में पानी की कमी है, और राज्यों की मांग और उपलब्ध पानी से दो गुनी है। और यह पानी की मात्रा में कमी कॉफी उत्पादन में परिवर्तन करने के कारण भी हो रही है। सभी विशेषज्ञों की राय के अनुसार कावेरी जल विवाद पानी के उचित उपयोग और किसानों के समूहों से संवाद से ही सुलझाया जा सकता है।