विकृत अर्थ में कहें तो, ट्रंप प्रशासन कड़वी दवा की तरह हो सकता है, जो वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रयासों को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यक है। इससे पहले कि आप गुस्सा हों, मैं आपको यह स्पष्ट कर दूं कि मैं खुद को दक्षिण एशियाई हरित समाजवादी समझता हूं। पिछले तीन दशकों से मैंने हाइड्रोपावर, बायोगैस और सौर ऊर्जा जैसी नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए काम किया है। मेरा घर और कार्यालय दोनों ही बहुत समय से सौर ऊर्जा से संचालित हैं। मैं अपने विरोधियों द्वारा “कार्यकर्ता पर्यावरणविद्” – जो कि अधिकांश वैश्विक दक्षिण में राजनीतिक रूप से अपमानित शब्द है, एक के तौर पर उपेक्षित किया गया हूं।
जब एक बहुराष्ट्रीय पेट्रोलियम कंपनी को मुख्य कार्यकारी अधिकारी शीर्ष राजनायिक और अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी पर बार-बार मुकदमा करने वाला वकील उसी एजेंसी का प्रमुख बन जाता है- मैं इन घटनाओं पारिस्थिकीय तंत्र के सर्वनाश के करीब मानता हूं, जिसकी कल्पना कोई भी पर्यावरणविद् कर सकता है।
इसलिए कहां मैं अंधेरे, जो कि अमेरिकी चुनाव (और यूनाइटेड किंगडम के ब्रेक्सिट वोट) को घेरे हुए है, में सकारात्मक उम्मीद करूं? संभावना है कि ट्रंप की अध्यक्षता वैश्विक उत्तरी में पर्यावरणीय सक्रियता को मजबूत करेगी, जो कि बदले में वैश्विक दक्षिण विशेषकर नेपाल में पर्यावरण अनुकूल विकास को बढ़ावा देने के लिए विदेशी सहायता आधारित प्रयासों को सुधार सकता है।
कोई भी देश जलवायु परिवर्तन जैसी जटिल समस्याओं के समाधान के लिए अपने आप से उम्मीद नहीं कर सकता है। इन समस्याओं के समाधान के लिए सम्मिलित अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत पड़ती है और नेपाल में, समाधान के लिए विवेकपूर्ण विदेशी सहायता और अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसियों को भी होना होगा। पिछले कुछ दशकों में, हालांकि ये एजेंसियां प्रक्रियात्मक अंधभक्ति में अक्सर अपना रास्ता भटक गई हैं, और जमीनी वास्तविकता पर तेजी से आप्रासंगिक गई हैं।
मेरे सहयोगी सुधींद्र शर्मा ने नेपाल में छह दशकों की विदेशी सहायता का विश्लेषण किया है और देखा कि प्रत्येक दशक में सहायता नीति में एक अहम बदलावा आया है। आयात प्रतिस्थापन पर सबसे अधिक जोर दिया गया है, इसके बाद निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था पर, फिर सरंचनात्मक संयोजन, फिर बुनियादी जरूरतों को पूरा करना, फिर गरीबी उन्मूलन पर। नवीनतम मुद्दा, सदी की शुरुआत से प्रचलित, जलवायु परिवर्तन है। आज लगभग प्रत्येक विकास गतिविधि यहां तक कि दूर-दराज के गांवों, जहां ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव कम या लगभग नहीं है, में पीने के पानी का संरक्षण जैसी गतिविधियों को भी जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के संदर्भ में न्यायसंगत बनाने के लिए दबाव दिया जाता है।
हाल ही में हुए एक अध्ययन में यह पता लगाया गया है कि क्यों हिमालय के आस-पास के बसंत सूख रहे थे और शहर बस्तियों को प्रवास के लिए क्यों बढ़ावा दे रहे थे? अनुमान यह था कि इसके लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराया गया था, लेकिन अध्ययन में कुछ अलग पाया गया। अध्ययन के तहत आने वाले क्षेत्रों में वर्षा में कोई महत्वपूर्ण गिरावट नहीं पाई गई। बल्कि अन्य शक्तिशाली कारक जिम्मेदार थे। पशुधन में गिरावट आई थी, और इससे भैसों के लोटने वाले तालाबों में भूजल पुनर्भरण के कम योगदान दे रहा था। किसान मक्का जैसी सूखी फसलों की जगह टमाटर जैसी जल गहन फसलों का रुख कर रहे थे। सबसे अहम चीज, पानी को बर्तन और बाल्टियों में हाथ से उठाने की बजाय इलेक्ट्रिक मोटर और पीवीसी पाइप जैसी शक्तिशाली तकनीकों से अधिक पंप किया जा रहा था। अगर इन समस्याओं का समय रहते समाधान नहीं किया गया तो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अब से लेकर तीन या चार दशक तक और भी गंभीर हो जाएंगे, यदि विनाशकारी नहीं रहा तो, गांव पानी आपूर्ति की समस्या और अधिक साफ हो जाएगी। दुर्भाग्य से, गांव के पानी आपूर्ति की सुरक्षा जैसी वर्तमान चुनौतियों से निपटने के लिए कुछ या कोई भी धन उपलब्ध नहीं है।
जलवायु निधि को सेमिनार, अस्पष्ट ‘नीति प्रभावों’ और अंग्रेजी में रिपोर्टों, जिन्हें कोई भी व्यक्ति नहीं पढ़ता है, पर व्यय किया जाता है। यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID) या अंतरराष्ट्रीय विकास के लिए यूनाइटेड किंगडम के विभाग में काम करने वाले ठेकेदारों और उप-ठेकेदार वास्तविक बुनियादी राहत पैमानों पर पैसा खर्च करने के लिए व्यवहारिक तौर पर मना करते हैं, उन्हें अनुकूलन और नीति प्रभावों पर विशेष रूप से काम करना होगा।
2009 में कोपेनहेगन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में नेपाल की उपस्थिति इसका प्रतिकूल उदाहरण था। विभिन्न खातों के अनुसार, कुछ आठ मंत्रियों को मिलाकर लगभग 600 नेपाली इस सम्मेलन में उपस्थित थे। यह सोचने के लिए किसी को भी माफ किया जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन में काम करने के लिए नोबेल योग्य काम को दिखाने के लिए इतने लोग वहां मौजूद थे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। सच्चाई यह थी कि प्रत्येक विदेशी सहायता एजेंसी प्रत्येक मंत्रालयों (लिंग और जलवायु परिवर्तन, न्याय और जलवायु परिवर्तन, शिक्षा और जलवायु परिवर्तन और अन्य भी) में कुछ जलवायु परिवर्तन परियोजनाओं या अन्य का संचालन कर रही थी। बिना खर्च हुए पैसों के साथ, एक एनजीओ के लिए नीति प्रभाव की अच्छी छवि बनाने के लिए सरकारी मंत्रियों और उसको उच्च अधिकारियों को एक विदेशी भोज पर ले जाने से बेहतर तरीका क्या होगा?
यह और भी खराब होता जा रहा है। पिछले दर्जनों वर्षों में विकास एजेंसियों द्वारा जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिए जितना भी समय, पैसा और विशेष संसाधन निर्देशित किए गए हैं, उनका परिणाम अनुकूलन की राष्ट्रीय योजनाओं, अनूकूलन की स्थानीय योजनाओं, राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना, और भी ऐसे- नेपाल, कुछ ठोस, जलवायु प्रतिरोधक भविष्य से दूर, जीवाश्म ईंधन के नरक की ओर आसानी से बढ़ रहा है। पिछले आधा दर्जन सालों में नेपाल में जीवाश्म ईंधन की खपत पहले से लगभग दोगुनी से भी अधिक हो गई है। यद्वपि देश हाईड्रोपावर से संपन्न है, स्वच्छ ऊर्जा में गिरावट आई है- नेपाल में प्रयोग होने वाली आधे से अधिक बिजली की आपूर्ति भारत के बिहार राज्य में गंदे कोयले आधारित संयत्रों से की जाती है।
पिछले दशकों में, नेपाल में 2,00,000 से अधिक बायो गैस संयंत्रों को स्थापित करने में सफलता हासिल की है। पिछले कुछ वर्षों में यह सफलता थम गई है और शायद वापस पिछड़ रही हैं। इलेक्ट्रिक वाहनों की भी यही कहानी है। 1990 के दशक का एक सफल पर्यावरण अभियान को काठमांडू की गलियों से डीजल संचालित तीनपहिया वाहनों जो काले धुएं फेंकता है और इलेक्ट्रिक मॉडलों से बदल दिया है। लेकिन पेट्रोलियम आधारित उद्योगों- कारों, बसों, पेट्रोल पंपों और पेट्रोल टैंकरों समेत, अपने पैसों और नीतियों का उपयोग कर बिजली वाहन उद्यगों को धीरे-धीरे दबा दिया है। रोपवे के साथ भी यही कहानी है-केबल हाइड्रो इलेक्ट्रिसिटी से संचालित होते हैं, जो माल ढुलाई के लिए जलवायु अनुकूल और पहाड़ अनुकूल माध्यम है। लेकिन नेपाल की अधिकारिक आर्थिक योजना में रोपवे को दरकिनार कर दिया गया है, यहां तक कि कमजोर हिमालयी पहाड़ी क्षेत्रों में सस्ती सड़क के निर्माण के लिए खोदा गया है। यह निर्माण की ही गड़गड़ाहट है कि ग्रामीण लगातार भूस्खलन से जूझ रहे हैं, जिसे ‘बुलडोजर आंतकवाद’ का नाम दिया जा रहा है। यूएसएआईडी ने पश्चिमी काठमांडू में 1964 में एक समान ढोने का रोपवे बनाया था। यूरोपियन यूनियन ने 1995 में दक्षिण में एक बनाया था। लेकिन न ही किसी संगठन के पास उस सफलताओं की कोई संस्थागत स्मृति है और न ही उन्हें दोहराने की योजना है।
लगभग दो दशकों की नेपाल जैसे निम्न विकसित देशों की जलवायु अनुकूलन निधि का यह परिणाम है तो डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका का राष्ट्रपति निर्वाचित होने के कारण क्यों कोई दक्षिणी पर्यावरणविद् कष्ट सहेगा ? चीजें और कितनी खराब हो सकती हैं? कुछ हफ्तों पहले, क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क के तत्वावधान में आयोजित बैठक में वरिष्ठ नेपाली जलवायु अधिकारी और कार्यकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि जलवायु परिवर्तन पर 2016 का पेरिस समझौता और यूएन स्थायी विकास लक्ष्यों का एजेंडा 2030 दोनों निरुपयोगी जनादेश है, जिसने नेपाल के पूर्व विकास लक्ष्यों, भविष्य में न कोई सार्थक कोष का वादा, ट्रंप या बिना ट्रंप दिया है। क्योटो,1997 से पेरिस, 2016 तक की जलवायु यात्रा ने मुख्य रूप से राष्ट्रीय जिम्मेदारियां समान लेकिन विभेदित हैं, का विचार खत्म कर पाया है, इसलिए अगर हिलेरी क्लिंटन राष्ट्रपति बन जातीं तो विकासशील देश बेहतर और अधिक अर्थपूरण जलवायु निधि के लिए क्या सौदा कर सकते हैं।
ऑक्सफैम और ग्रीनपीस जैसे कुछ अपवादों के अतिरिक्त उत्तरी गैर सरकारी संगठन कोई मदद नहीं कर रहे हैं। इनमें से अधिकांश पर्यावरण संतुलन के लिए अर्थपूर्ण अभियानों की बजाय अपने बड़े संगठनों को चलाने के लिए धन जुटाने में अधिक व्यस्त हैं। उन्हें अनिवार्य रूप से पालतू बना दिया गया है। मुझे याद है कि अंतरराष्ट्रीय नदी नेटवर्क के एक कार्यकर्ता ने 1999 में मुझे कड़ाई से कहा था कि वह चाहता है कि 1992 में राष्ट्रपति चुनाव बिल क्लिंटन हार जाए ओर जार्ज डब्ल्यू बुश जीत जाएं। आश्चर्य की बात है, जब मैंने उससे पूछा क्यों, तब उसने कहा कि अगर बुश जीत जाते हैं तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि वह किसके खिलाफ लड़ रहा था। जैसा कि चीजें समझी गईं, शर्मिंदगी के कारण नहीं, बल्कि व्हाइट हाउस में अब सब गोरे हैं इसलिए कार्यकर्ता को उनके अभियानों को धीरे करने को कहा गया था और दाताओं ने उन कार्यकर्ताओं को धन देने से मना कर दिया था, जो बहुत आक्रामक थे।
ट्रंपियन समय, जिसमें हम रह रहे हैं, के लिए एक यहां एक संदेश हैं, अगर लाखों महिलाएं अपने अधिकारों के लिए एक प्रेरक अभियान चला सकती हैं, और अगर टाउन हॉल की बैठकों में ओबामाकेयर को रद्द करने के प्रयासों को चुनौती दी जा सकती है, तो शायद उत्तर के पर्यावरणीय कार्यकर्ता प्राथमिक धन जुटाने से भी रोक सकते हैं और टाउन हॉल से बाहर आ सकते हैं या लाखों पर्यावरणविद् अभियान चला सकते हैं। यदि उत्तर के पर्यावरणविद अपने स्थानियत्व, सक्रियता मुक्त, प्रक्रियात्मक निष्क्रियता से जगे तो, डोनाल्ड ट्रंप वहीं डॉक्टर होगा, जो जलवायु परिवर्तन के आदेश दिया है, फिर चाहे वह दवा कितनी ही कड़वी ही क्यों न हो। यदि कार्यकर्ता नहीं जागृत होते हैं, तो वैश्विक दक्षिण में कोई अंतर नहीं पड़ेगा कि व्हाइट हाउस में कौन है।
(दीपक ग्यावली नेपाल जल संरक्षण फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं और नेपाल के जल संसाधन मंत्री के तौर पर काम कर चुके हैं।)