उर्जा

सौर ऊर्जा के सहारे एवरेस्ट की ओर एक पर्वतारोही

मुंबई के एक इंजीनियर एवरेस्ट पर चढ़ने की तैयारी कर रहे हैं। इस दौरान वह सौर ऊर्जा का ही इस्तेमाल करेंगे। उनकी इस कोशिश से सौर ऊर्जा को लेकर नई उम्मीदें जगी हैं।
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<p>Harshvardhan Joshi is on a mission to help transform mountain climbing into a solar powered adventure [image courtesy: Harshvardhan Joshi]</p>

Harshvardhan Joshi is on a mission to help transform mountain climbing into a solar powered adventure [image courtesy: Harshvardhan Joshi]

हर्षवर्धन जोशी दो मिशनों पर हैं। सबसे पहले माउंट एवरेस्ट पर चढ़ना है। दूसरा अधिक से अधिक लोगों को सतत जीवन जीने के लिए प्रेरित करना है। उन्होंने अप्रैल में एवरेस्ट पर चढ़ने की योजना बनाई थी। इस यात्रा में वह सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाले थे। इसका उद्देश्य नवीकरणीय ऊर्जा के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देना और दूरदराज के समुदायों को सौर पैनल वितरित करना था। उन्हें कोविड -19 महामारी के कारण इसे स्थगित करना पड़ा है, लेकिन उनका उत्साह पूर्ववत बना हुआ है।

कैंप में रोशनी के लिए सौर पैनल का उपयोग [image courtesy: Harshvardhan Joshi]
मुंबई में अपने घर से, जोशी ने अपनी योजनाओं और आशाओं के बारे में The Third Pole से बातचीत की।

द् थर्ड पोल (टीटीपी): अपने अभियान और उसके उद्देश्य के बारे में बताइए?

हर्षवर्धन जोशी (एचजे): एवरेस्ट पर चढ़ने में लगभग दो महीने लगते हैं। यह मेरे शेरपा और सौर ऊर्जा पर पूरी तरह से निर्भर होगी। हम खुद द्वारा कार्बन उत्सर्जन की भरपाई करने की कोशिश करने जा रहे हैं। मैं यह साबित करना चाहता हूं कि लोग उन जगहों को नुकसान पहुंचाए बिना भी एडवेंचर कर सकते हैं जहां वे जाते हैं।

टीटीपी: यात्रा को लेकर आपको क्या उम्मीद है?

एचजे: भारत में, 200 मिलियन से अधिक लोगों के पास बिजली नहीं है। मैं यह बताना चाहता हूं कि हमें बड़े सौर क्षेत्रों की आवश्यकता नहीं है। जीवन स्तर को सुधारने के लिए सरकारों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। हर कोई आत्मनिर्भर, हरित रह सकता है और धन की बचत कर सकता है।

हिमलुंग हिमाल बेस कैंप (2019) में सोलर पैनल का उपयोग [image courtesy: Harshvardhan Joshi]
सोशल मीडिया और मेरे व्यक्तिगत नेटवर्क के माध्यम से मेरे पास पहले से ही 100,000 से अधिक लोगों की पहुंच है, लेकिन इस प्रयास के साथ मैं पचास लाख से अधिक को प्रेरित करने का इरादा रखता हूं। यहां तक ​​कि अगर एक छोटे से अनुपात को स्वच्छ ऊर्जा पर स्विच करने के लिए प्रेरित किया जाता है, तो यह लंबे समय में बहुत बड़ा बदलाव लाएगा।

मैंने अपने अभियान को संघर्ष मिशन माउंट एवरेस्ट कहा है। मैं चाहता हूं कि और लोग इसमें शामिल हों। इसने पहले से ही कुछ और लोगों को पहाड़ों पर चढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया है, जैसे कि मयूर दुमसिया, एक पैरा एथलीट हैं, जिसका मैं उल्लेख कर रहा हूं, जो अगले तीन वर्षों में एवरेस्ट पर चढ़ना चाहते हैं।

टीटीपी: आपका अभियान “सौर ऊर्जा संचालित” कैसे है?

एचजे : मैं अपने बेस कैंप को बिजली देने के लिए बैटरी सिस्टम के साथ कुछ 40 वाट के सोलर पैनल का इंतजाम कर रहा हूं, जो कम से कम छह हफ्तों के लिए होगा। फिर मैं 6,400 मीटर (21,000 फीट) पर दूसरे शिविर तक एक छोटा, पोर्टेबल सिस्टम ले जाऊंगा। और अंतिम शिविर के लिए मैं एक पावर बैंक (जो सौर ऊर्जा के साथ चार्ज किया जाएगा) ले जाऊंगा, जिससे मैं शिखर पर अपने फोन और कैमरे का उपयोग कर सगूंगा। ऐसा करने से मुझे यह गणना करने में मदद मिलेगी कि यात्रा पर कितनी ऊर्जा का उपयोग करूंगा। मेरे शेरपा गाइड, टीम और बेस कैंप कुकिंग स्टाफ कितनी ऊर्जा का इस्तेमाल करेंगे। बेस कैंप में अपनी यात्रा के दौरान मैं अपने द्वारा उत्सर्जित कार्बन की प्रति संतुलित कर पाऊंगा। अगर मैं पृथ्वी पर ऐसे वातावरण में अक्षय ऊर्जा का उपयोग कर सकता हूं, तो यह दिखाता है कि हम शहरों में अधिक जिम्मेदार होने के चमत्कार कर सकते हैं।

टीटीपी: सौर ऊर्जा स्थानीय समुदायों की मदद कैसे कर सकती है?

एचजे: खुम्बू घाटी का एवरेस्ट क्षेत्र ज्यादातर ऑफ-ग्रिड है और इसमें अधिक बुनियादी ढांचा नहीं है। जब मैं अपने प्रयास के लिए क्राउडफंडिंग कर रहा था, कुछ संगठनों ने मुझे सौर उपकरण की पेशकश की। मैंने नेपाल में अपने अभियान दल को कुछ पैनल भेजे और बाकी जरूरतमंदों को दे दिए। सौर पैनल बनाने वाली कंपनी मेरा उजाला ने 10 घरों को पर्याप्त बिजली प्रदान करने वाले उपकरण दान किए हैं। मेरे सहयोगियों की मदद से, पैनल हिमालय के कुछ सबसे दूरदराज के क्षेत्रों में परिवारों तक पहुंच गए। इनमें भारत में तुर्तुक और लद्दाख और नेपाल में मकालू क्षेत्र शामिल हैं। बिहार के धरहरवा गांव में अंग्रेजी स्कूल के लिए एक गैर-लाभकारी संगठन श्लोक मिशनरीज को छह सिस्टम दान किये।

ट्रैकिंग के दौरान पीठ के ऊपर रखा जा सकता है सौर पैनल [image courtesy: Harshvardhan Joshi]
चोटी पर पहुंचने के बाद मैं उन सौर पैनलों का दान करने जा रहा हूं, जिनका उपयोग हम अपने अभियान के दौरान करते हैं। ये हमारे यात्रा के रास्ते के वे गांव हैं जहां बिजली नहीं है। मैं कुछ और पैनल भेजने की भी योजना बना रहा हूं, जो एक व्यक्तिगत दान होगा। हालांकि यह एक बहुत छोटी कोशिश है लेकिन यह भविष्य में काफी प्रभाव डालेगा। भारत में एक सामान्य घर में एक दिन में 3-5 किलोवाट-घंटा बिजली की खपत होती है। यह 500 वाट से 1 किलोवाट तक की सौर प्रणाली से हासिल की जा सकती है। बिजली ग्रिड से जुड़े 1 किलोवाट सिस्टम को प्रति संतुलित करने के लिए और सालाना 1,500 किलोवाट-घंटा बिजली उपयोग के लिए, आपको हर साल 12,000 वर्ग फुट से अधिक में पेड़ लगाने की आवश्यकता होगी। 30 वर्षों में यह नौ एकड़ जंगल लगाने के बराबर होगा।

टीटीपी: सस्टैनिबिलिटी मूवमेंट से क्या निकला?

एचजे: मैं मुंबई से एक आईटी इंजीनियर हूं, लेकिन मैंने पिछले सात वर्षों में अपना ज्यादातर समय हिमालय में बिताया है। मैं सस्टैनिबिलिटी को लेकर बहुत भौतिकवादी और बेपरवाह हुआ करता था। जब मैंने हिमालय की खोज शुरू की, तो मुझे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अनुभव हुआ, जिसे मैंने शहर में अपने घर पर नहीं देखा था। हर साल पहाड़ों में महीनों बिताने से, मुझे पता चला कि सबसे अलग-थलग घाटियों को भी इसने छू लिया है। इस तरह धीरे-धीरे मुझे सतत विकास के महत्व का एहसास हुआ।

अभियान के सहयोगी सौर पैनल निर्माता के एक गोदाम में [image courtesy: Harshvardhan Joshi]
टीटीपी: स्वच्छ ऊर्जा और सामाजिक समानता कैसे जुड़ी हैं?

एचजे: स्वच्छ ऊर्जा, गरीबी उन्मूलन और सतत विकास का एकमात्र तरीका है। स्थायी ऊर्जा की सुंदरता यह है कि यह स्वास्थ्य और शिक्षा को लोकतांत्रिक बनाने के साथ-साथ लोगों को सशक्त बनाती है। जिन स्थानों पर बिजली नहीं है, लोग हर दिन 12 घंटे का समय गंवाते हैं। वे पढ़ नहीं सकते हैं। काम नहीं कर सकते हैं। बाहरी दुनिया के साथ संवाद नहीं कर सकते हैं। डॉक्टर अक्सर कहते हैं कि अगर उन तक बिजली की बहुंत होती, तो वे ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक सेवाएं दे सकते थे। दूर-दराज के स्कूलों में अगर सौर ऊर्जा से चलने वाले प्रोजेक्टर हों, तो बच्चों को शिक्षा के लिए बाहर जाने की जरूरत नहीं होगी। भारत “अल्ट्रा-मेगा सोलर प्लांट्स” के साथ स्वच्छ ऊर्जा के लिए एक मजबूत रुख कर रहा है। बड़ी परियोजनाओं की बात निश्चित रूप से समझ में आती है, लेकिन यह तभी कारगर होगा जब ट्रांसमिशन की लाइनें नजदीक हों। मेरे लिए, विकेन्द्रीकृत ऊर्जा, बिजली प्रदान करने का सबसे स्थायी तरीका है। यह ट्रांसमिशन और वितरण अधिकारों को अस्वीकार करता है और इसे उपयोगकर्ता की जरूरतों और इच्छाओं के लिए अनुकूलित किया जा सकता है।

टीटीपी: कोविड –19 का हिमालय पर क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या पर्यावरणीय दबाव कम होगा?

एचजे: कोविड -19 ने पहाड़ों को ही नहीं पूरी दुनिया को रोक दिया है। लेकिन अधिकांश पहाड़ उतने गंदे नहीं हैं जितना मीडिया बताता रहता है। पर्वतारोही अपने द्वारा उपयोग से निकले कचरे के प्रति सजग हैं। जागरूकता और सुविधाओं की कमी के कारण कुछ क्षेत्रों में दिक्कत है।  लेकिन कई लोग इसे साफ करने के लिए काम कर रहे हैं। अगर महामारी के बाद जलवायु परिवर्तन का असर कम हो जाए तो निश्चित रूप से पहाड़ों को फायदा होगा। लॉकडाउन के कारण, मैं इस साल शिखर पर चढ़ने का मौका चूक गया हूं। मैं निश्चित रूप से 2021 में एवरेस्ट पर चढ़ने का प्रयास करूंगा।

टीटीपी: आपको क्या लगता है कि भविष्य की ऊर्जा क्या है?

एचजे: पहली बार, अक्षय ऊर्जा प्रतिष्ठानों ने भारत में कोयले से चलने वाले नए संयंत्रों को पीछे छोड़ दिया है। लेकिन चूंकि भारत पूरी तरह से कोयला से पैदा हुई बिजली छोड़ने से इनकार करता है, इसलिए वह अपनी ऊर्जा जरूरतों के तीन-चौथाई से अधिक जीवाश्म ईंधन का उपयोग करता है। खराब नीतियों के कारण बढ़ती सौर क्षमता को कम किया जा रहा है। हमारे पास सूरज मुफ्त में उपलब्ध है और उससे साफ, सस्ती बिजली उपलब्ध हो सकती है। आखिरकार हम उस तरफ शिफ्ट होने वाले हैं, तो अभी क्यों नहीं?

 

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