हिमनद विज्ञान की दुनिया में, वर्ष 2007, एक बड़ी गलती के लिए जाना जाएगा। इसी वर्ष एक प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट की छोटी सी गलती ने हिमालय के हिमनदों के सम्बन्ध में हमारी समझ में भारी बदलाव किये थे। अलगोर की डाक्यूमेंट्री ऐन इनकनवीनिएंट ट्रुथ, जिसकी वजह से एन्थ्रोपोजेनिक (मानव निर्मित) ग्लोबल वार्मिंग चर्चा शुरू हुई, के ठीक एक साल बाद, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने अपनी चौथी आकलन रिपोर्ट प्रकाशित की। यह जलवायु परिवर्तन के बारे में दुनिया को सूचित करने का सबसे भरोसेमंद मानक था। रिपोर्ट में एक छोटी सी लेकिन गंभीर त्रुटि थी। इसमें कहा गया था कि हिमालय के सभी ग्लेशियर वर्ष 2035 तक खत्म हो जाएंगे।
इस घटना ने कई नए अनुसंधानों की झड़ी लगा दी, जिसमें मेरा अनुसंधान भी शामिल है। अब हम देख सकते हैं कि कुछ हिमालयी हिमनद अगली सदी तक भी बचे रहेंगे। नवीनतम आंकड़े हमें बताते हैं कि यदि हम अपने ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को कम करते हैं तो हिमालयी बर्फ का एक तिहाई से आधे के बीच का हिस्सा 2100 तक गायब हो जायेगा। अगर हम अब भी नहीं माने, और इसी ढंग से कार्य करते रहे तो हिमालयी बर्फ का दो तिहाई हिस्सा इस सदी के अंत तक लुप्त हो जायेगा।
लेकिन विश्व के प्रमुख वैज्ञानिक संगठन द्वारा इस तरह की त्रुटि को तथ्य के रूप में कैसे प्रस्तुत किया गया? टाइपिंग में त्रुटि की बात बार-बार कही गई है जिससे विश्वसनीयता पर असर पड़ा है। आईटीसीसी ने वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फण्ड की एक रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसने न्यू साइन्टिस्ट के एक इंटरव्यू में हिमालय के पिघलने की तारीख़ बताई थी। उस साक्षात्कार में एक हिमनद वैज्ञानिक द्वारा अटकलें लगायी गयी थीं, जिन्होंने स्पष्ट रूप से एक अन्य वैज्ञानिक के कार्य को गलत तरीके से उदधृत किया था कि दुनिया भर में हिमनद 2350 तक 80% तक कम हो जाएंगे।
आईपीसीसी ने अंततः इस त्रुटि की पहचान करने में अपनी विफलता के लिए माफ़ी मांगी। हालांकि यह शर्मनाक है, परन्तु इसने मूल निष्कर्ष को कमजोर नहीं किया। आईपीसीसी ने 2013 में अपनी अगली रिपोर्ट से पहले अपनी सहकर्मी-समीक्षा की प्रक्रिया में सुधार किया।
हिमालय पर्वत पवित्र है। संस्कृत में इस नाम का अर्थ है “बर्फ का वास”। लेकिन मध्य एशिया में हिमनद राजनीतिक मुद्दा है। हिमनद से नदियां सिंचित होती हैं। खाद्य उत्पादन और जल विद्युत के लिए एक अरब से अधिक लोगों को पानी उपलब्ध होता है। भारत और नेपाल विशेष रूप से गर्मियों में मानसून से पहले मौसमी सूखे से निपटने के लिए हिमनद के पिघले पानी पर निर्भर हैं। ये देश तेजी से औद्योगिक विकास कर रहे हैं और आम तौर पर अपने कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने का विरोध करते हैं।
आईपीसीसी की रिपोर्ट के बाद, भारत सरकार ने एक विवादास्पद डिस्कशन पेपर के जरिए इस घबराहट को दबाने के लिए तेजी से काम किया, जिसमें उत्तर भारत और पाकिस्तान में ग्लेशियरों के बारे में ऐसे चुनिंदा साक्ष्य मौजूद थे, जिनसे पता चलता है कि इन क्षेत्रों में हिमनद स्थिर थे या विस्तार भी कर रहे थे। हालांकि, ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप अधिक शीतकालीन बर्फ़बारी और ठंडक वाली गर्मियों से काराकोरम ग्लेशियरों को लाभ होता है, इस पर संदेह है। काराकोरम की यह विसंगति किस तरह से लगातार अज्ञात रहेगी।
हिमालय की उलझन का समाधान
हिमनद वैज्ञानिक उत्सुकता में रह गए कि हिमालय के हिमनदों का भविष्य क्या होगा। एक छोटा अनुसंधान पूरा हुआ जिसके आंकड़े बहुत कम थे। राजनीतिक रूप से अस्थिर, दूर-दराज क्षेत्रों में, अधिक ऊंचाई वाले हिमनदों तक पहुंचने में समस्याएं, फील्ड वर्क को प्रभावित करती हैं। नेपाल में हो रहे गृहयुद्ध, पाकिस्तान में तालिबान, और चीन एवं भारत में विदेशी वैज्ञानिकों के प्रति संदेह ने इन पहाड़ों को अनुसंधान करने की लिए मुश्किल जगह बना दी है।
जमीनी स्तर पर हुए अवलोकन और सर्वेक्षणों से पता चला कि हिमनदों में उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है। हिमनद वैज्ञानिकों ने जल्द ही महसूस किया की हिमनद की कई बड़ी सतहों पर पत्थरों के मलबे के कारण बर्फ की मात्रा में हुए परिवर्तन छिप गए। इसलिए हिमनद क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तनों को मापना भ्रामक था और बर्फ के नुकसान के पैमाने का सही पता न चला।
फिर, 2010 की शुरुआत में पृथ्वी अवलोकन वाले उपग्रह की प्रौद्योगिकी में तेजी से प्रगति हुई और शीत युद्ध के दौर में उपग्रह से ली गईं तस्वीरों को जांचने से दूर-दराज के पहाड़ों के बारे में पता चला। पूरे हिमालय में ग्लेशियर के परिवर्तनों के स्केल को पहली बार देखा जा सकता है। नए उपग्रह के आंकड़ों ने हिमनद वैज्ञानिकों को 40 साल की अवधि में ग्लेशियर की मात्रा में बदलाव को मापने का मौका दिया। इससे पता चला कि हिमालय के लगभग सभी ग्लेशियर एक सामान दर पर सिकुड़ रहे थे।
हिमालय के हिमनदों का भविष्य
नए शोध से पता चला है कि हिमालय से हिमनद की बर्फ गिरने की दर पिछले 20 वर्षों में दोगुनी हो गयी है और यह विश्व स्तर पर बर्फ के गलने की दर के समान है। हालांकि, अत्यधिक उंचाई वाले ग्लेशियर को जलवायु परिवर्तन से बचाने के लिए सोचा गया था, अब हमें पता चला है कि उच्च पर्वत, अन्य की तुलना में दोगुना तेजी से गर्म हो रहे हैं।
आंकड़ों की भरमार ने हिमनद वैज्ञानिकों को ऐसे कंप्यूटर मॉडल्स को प्रशिक्षित करने का मौका दिया जो यह पता लगा सकें कि भविष्य में ग्लेशियर कैसे बदलेंगे। ये मॉडल हमें बताते हैं कि हिमालय में हिमनद की बर्फ एक तिहाई से आधे के बीच, 2100 तक गायब हो जाएगी। यदि हम महत्वाकांक्षी पेरिस समझौते के लक्ष्य यानी जलवायु परिवर्तन को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक के भीतर बनाये रखने के लिए कार्य नहीं करते हैं, तो इसी समय अंतराल में हिमनद बर्फ का दो तिहाई भाग खो देंगे।
ग्रीष्म मानसून के कमजोर होने और वायुमंडल के प्रदूषण से हिमनद की जीवन प्रत्याशा प्रभावित हुई है। बढ़ते हुए वैश्विक तापमान से हिमालय के हिमनद सिकुड़ रहे हैं। ये भविष्यवाणियां उन एक अरब लोगों के लिए बुरी खबरें हैं जो कृषि के मौसम में पानी के लिए हिमनद से भरी नदियों पर निर्भर हैं।
जैसे-जैसे हिमनद कम हो रहे हैं, वैसे-वैसे गर्मियों में होने वाली बारिश से पहले सूखे की स्थितियां बढ़ रही हैं, जिससे दक्षिणी और मध्य एशिया की जनसंख्या पर गहरा दबाव पड़ रहा है। मानवजनित संकट से बचने के लिए दुनिया को वैश्विक तापमान की एक सीमा तय करनी होगी जिससे हिमनद के नुकसान को सीमित किया जा सके।
Ann Rowan, University of Sheffield में एक ice and climate research fellow हैं।
यह लेख मूल रूप से The Conversation प्रकाशित हुआ है