10 अक्टूबर, 1968 की कोसी नदी की बाढ़ की यादें, दक्षिण-पूर्व नेपाल के एक जिले सुनसरी के निवासियों के मन में अभी भी ताज़ा हैं। सिंधुर टप्पू गांव में, नदी ने सुबह होने से पहले ही अपने तट को तोड़ दिया था और सैकड़ों घर बह गये थे। लोगों ने अपने को बचाने के लिए छतों पर शरण ली थी।
उन पलों को याद करते हुए प्रहलाद थापा कहते हैं, “बाढ़ सुबह करीब 3 बजे आई। कितने लोग हताहत हुए, ये तो हमें याद नहीं लेकिन हमारी बस्ती में जबर्दस्त पानी भर गया था और और लगभग सभी मवेशी बह गए थे। हम घंटों तक अपने घरों की छतों पर फंसे रहे। हम वहीं शौच करने के लिए मजबूर थे। स्थानीय लोगों ने हमें शाम 4 बजे तक बचाया।” आज, सिंधुर टप्पू का अस्तित्व नहीं है। इसका एक बड़ा हिस्सा नदी में बह गया।
थापा उन सैकड़ों लोगों में से एक हैं, जो कोसी के इतिहास में दर्ज सबसे भयानक बाढ़ को देख चुके हैं। लेकिन 52 साल बीत जाने के बाद भी विस्थापित स्थानीय लोगों को मुआवजा नहीं मिला है।
चार-पीढ़ी का संघर्ष
जब थापा के गांव में उस दिन कोसी की बाढ़ आई, तब परिवार के मुखिया उनके दादा दिल बहादुर थापा होते थे। उन्होंने अपनी खोई हुई संपत्ति का मुआवजा पाने की पूरी कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली और 1972 में उनकी मृत्यु हो गई। अब एक स्थानीय एक्टिविस्ट समूह, कोसी इनन्डैशन विक्टिम स्ट्रगल कमेटी की अध्यक्षता करने वाले थापा बताते हैं, “मेरे दादा एक संपत्ति के मालिक थे। उन्होंने हमारे परिवार के कृषि कार्यों में सहयोग के लिए मजदूरों को भी लगाया हुआ था।” वह कहते हैं, “बेहद दुख की बात है कि एक समय में एक संपत्ति के मालिक रहे, मेरे दादा जी अपनी मृत्यु के समय भूमिहीन थे।”
थापा के दादा के निधन के बाद, उनके पिता, मान बहादुर थापा ने मुआवजे के लिए बहुत कोशिश की। लेकिन उनके हाथ भी कुछ नहीं आया। साल 2006 में 87 साल की उम्र में उनका भी निधन हो गया। अपने दादा और पिता दोनों को खोने के बाद, थापा भी अब अपने परिवार के लिए मुआवजे के संघर्ष का नेतृत्व कर रहे हैं।
कोसी नदी का भयानक बाढ़ का इतिहास है, जो हर साल हजारों लोगों को विस्थापित कर देती है। इसलिए इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों का दुख लगातार बढ़ता जाता है। सुनसरी में बाढ़ पीड़ितों के आंकड़े इकट्ठा करने वाली बराहक्षेत्र नगरपालिका के अनुसार, 2020 के मानसून तक कोसी नदी से 2,743 परिवार प्रभावित हुए हैं।
नगर पालिका की डिप्टी मेयर कमला मागर का कहना है, “हमारी नगर पालिका ने कोसी से पीड़ितों के रूप में 13,605 लोगों की पहचान और सत्यापन किया है। कोसी नदी से कुल 3,166 बीघा, 19 कट्ठा और 18 धुर (तकरीबन 2,617 हेक्टेयर) निजी जमीन प्रभावित हुई है।”
The Third Pole से थापा कहते हैं, “जब भी मैं अपने पूर्वजों की भूमि में कोसी के पानी को देखता हूं तो भावुक हो जाता हूं और कभी-कभी अपने आंसुओं को नियंत्रित नहीं कर पाता।”
ऐसी ही स्थिति कई अन्य लोगों के साथ भी है जो 1968 की बाढ़ में बच गये थे। इनमें गणेश कुमार लिंबू भी हैं। लिंबू को तो 1954 की कोसी की बाढ़ भी याद है लेकिन वह कहते हैं कि 1968 की बाढ़ ज्यादा दुखद थी क्योंकि तब हमारी पैतृक संपत्ति नष्ट हो गई।
लिंबू कहते हैं, “मेरे पिता शेर बहादुर लिंबू को मुआवजा नहीं दिया जा सका। मैं अब 81 साल का हूं और मुझे कम ही उम्मीद है कि मेरे पोते को मुआवजा मिल पाएगा।” लिंबू कहते हैं कि जिले के निवासियों ने मुआवजे के लिए नेपाल के “सभी नेताओं और प्रधानमंत्रियों” और “यहां तक कि कोसी के पूर्व राजाओं और सत्ताधीशों” से संपर्क किया हुआ है।
लिंबू बताते हैं, “हमारे निर्वाचन क्षेत्र से दो प्रधानमंत्री (गिरिजा प्रसाद कोइराला और मन मोहन अधिकारी) भी बने। लेकिन हम लोगों को मुआवजा देने के मामले में वे भी अपने वादे पर खरे नहीं उतरे।”
कोसी की बाढ़ और कटाव से प्रभावित बस्ती धाराहरा तपन की निवासी मागर कहती हैं कि कोसी का जलमार्ग स्थिर नहीं है। यह लगातार बदलता रहता है। वह कहती हैं, “यह आने वाले वर्षों में और अधिक नुकसान और विनाश ला सकती है। चूंकि यह एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है, इसलिए नेपाल और भारत को जल्द से जल्द इस समस्या का समाधान करना चाहिए। स्थानीय सरकार अकेले इसे हल नहीं कर सकती है।”
कोसी समझौता
पीड़ितों का कहना है कि नेपाल और भारत के बीच 25 अप्रैल, 1954 को कोसी समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। उसके बाद 1962 तक 1,150 मीटर लंबे और 10 मीटर चौड़े कोसी बैराज का निर्माण हो गया। लेकिन 1968, 1978, 1980, 1982, 1984 और 1986 में लगातार आई बाढ़ों ने बस्तियों और उपजाऊ खेतों को नष्ट कर दिया। कोसी इनन्डैशन विक्टिम स्ट्रगल कमेटी के उपाध्यक्ष जोनी लिंबू कहते हैं कि 1982 की बाढ़ में उनके परिवार की 12 बीघा (लगभग 8 हेक्टेयर) भूमि नदी में समा गई। वह कहते हैं कि कोसी समझौते के आधार पर उन्हें भारत सरकार द्वारा मुआवजा दिया जाना है। दुख की बात है कि न तो भारत और न ही नेपाल की सरकारों ने हमारे संकट को दूर करने के लिए पर्याप्त प्रयास किये।
अगस्त 2019 में लिंबू जैसे सैकड़ों बाढ़ पीड़ितों ने भूख हड़ताल करके अपनी दुर्दशा की तरफ प्रशासन का थोड़ा ध्यान आकर्षित किया लेकिन उसका भी नाममात्र असर ही पड़ा। पीड़ितों का कहना है कि मुख्य रूप से भारतीय पक्ष की अनिच्छा और नेपाल द्वारा मजबूत पैरवी की कमी के कारण यह स्थिति बरकरार है।
संतोष लिंबू, कोसी परियोजना के लिए लाइजन-सह-भूमि अधिग्रहण अधिकारी और नेपाली प्रतिनिधि हैं। 2012 में उन्होंने कहा कि नेपाल और भारत ने संयुक्त रूप से दो नेपाली जिलों- उदयपुर और सप्तरी- में जमीनों पर अध्ययन किया, जिसमें लगभग 7,663 बीघा (5,190 हेक्टेयर) का सत्यापन किया गया था। इस पर लगभग 10,000 लोगों का मालिकाना हक था जो जमीन डूब गई थी। सुनसरी में जमीन का सत्यापन नहीं हुआ है।
लिंबू कहते हैं, “1 लाख 5,000 नेपाली रुपये प्रति बीघे जमीन के हिसाब से लोगों को मुआवजा देने का प्रावधान था।” लिंबू ने यह भी बताया कि मूल रूप से भारत की अनिच्छा के कारण अन्य बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के सत्यापन और सत्यापित भूमि के मुआवजे का भुगतान दोनों लंबित हैं। लिंबू का यह भी दावा है कि भारत ने अपने कोसी परियोजना के कामों के लिए तीन साल तक कर का भुगतान नहीं किया है, जिसकी कीमत लगभग 140 मिलियन एनपीआर (1.2 मिलियन अमेरिकी डॉलर) है। वह कहते हैं, “वे लोग एक छोटे से कर का भुगतान करने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे में हम आसानी से मुआवजे की बड़ी राशि के भुगतान की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
The Third Pole ने भारत में कोसी प्रोजेक्ट के मुख्य अभियंता प्रकाश दास से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। कोसी परियोजना के लिए जिम्मेदार भारतीय एजेंसी, बिहार सरकार का जल संसाधन विभाग है। इस विभाग से भी इस मामले में टिप्पणी का अनुरोध किया गया है। उनकी प्रतिक्रिया प्राप्त होने पर इस लेख को अपडेट किया जाएगा।
बाढ़ वाली भूमि के लिए भी कर देते हैं लोग
बाढ़, जिसकी वजह से लोगों की संपत्तियां तबाह हो जाती हैं, के बावजूद ये पीड़ित लोग, नेपाली सरकार को भूमि कर देना जारी रखते हैं। गणेश कुमार लिंबू के पास 6.5 बीघा (4.4 हेक्टेयर) भूमि है। उन्होंने अपना कर देने में निरंतरता बनाये रखने के लिए हाल ही में 625.75 नेपाली रुपये का भुगतान किया है। वह कहते हैं, “मैंने इस उम्मीद में कर भुगतान किया है कि एक दिन हमें मुआवजा मिलेगा। भूमि के स्वामित्व के बिना हम मुआवजे के हकदार नहीं रहेंगे।”
आनंद प्रसाद गौतम, जो 15 कट्ठा (0.8 हेक्टेयर) जमीन के मालिक हैं, कहते हैं, “मैं अपनी जमीन पर न तो कुछ उगा सकता हूं और न कोई राजस्व ले सकता हूं। फिर भी, अपनी पैतृक भूमि के स्वामित्व का प्रमाण देने के लिए मैं कर का भुगतान कर रहा हूं।”
विकट स्थिति
कोसी बैराज के निर्माण का मतलब नदी का प्राकृतिक बहाव न होना है। कोसी पीड़ितों का कहना है कि इसकी वजह से बार-बार सैलाब आता है, कटाव होता है और बस्तियां बाढ़ का शिकार बन जाती हैं।
शोधकर्ताओं का कहना है कि नदी पिछले 220 वर्षों में लगभग 115 किलोमीटर पश्चिम की ओर खिसक गई है। आईसीआईएमओडी के शोधकर्ताओं के अनुसार, इसमें एक साल में औसतन 100-135 मिलियन टन गाद होती है। इसके बारे में कहा जाता है कि कोसी में “असाधारण उच्च तलछट क्षमता है”।
प्रह्लाद थापा कहते हैं कि पिछली आधी सदी से नेपाल और भारत दोनों ने कोसी पीड़ितों के संकट पर ध्यान नहीं दिया है। वह कहते हैं, “2008 की नवीनतम बाढ़ और कटाव का मुआवजा लगभग सभी पीड़ितों को दिया गया है। लेकिन उससे पहले 1968 से लेकर आई बाढ़ों में पीड़ितों के दस्तावेजों का सत्यापन तो हो चुका है लेकिन उनको मुआवजा नहीं मिला है।”
वह कहते हैं कि कोसी पीड़ितों की मांग है कि यो तो उन्हें मौद्रिक क्षतिपूर्ति दी जाए या खोई जमीन के बराबर जमीन दी जाए। थापा चेतावनी देते हुए कहते हैं कि यह जितना अधिक लम्बा होगा, उतना ही यह सरकार और नागरिकों, दोनों के लिए गंभीर होता जाएगा।”
Birat Anupam नेपाल की नेशनल न्यूज एजेंसी में अंग्रेजी भाषा के सीनियर रिपोर्टर हैं। वह पूर्वी नेपाल के Itahari शहर के रहने वाले हैं जो कि कोसी नदी के नजदीक है। इनसे @birat_anupam ट्विटर हैंडल से संपर्क किया जा सकता है।