वैज्ञानिकों ने अब यह स्थापित कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से आर्कटिक में बर्फ तेजी से पिघलती है और इसका दक्षिण एशिया के ग्रीष्मकालीन मानसून पर प्रभाव पड़ता है। यह बात स्थापित होने के बाद भारत सरकार इस क्षेत्र में अधिक जानकारी हासिल करना चाहती है। भारत और नॉर्वे के वैज्ञानिक जलवायु प्रभावों, समुद्री प्रदूषण, मछलियों के अत्यधिक पकड़े जाने जैसे मुद्दों और इनको लेकर क्या किया जा सकता है, इस दिशा में अध्ययन के लिए बहुत समन्वय के साथ काम कर रहे हैं। भारत में नॉर्वे के राजदूत Hans Jacob Frydenlund के साक्षात्कार के अंश:
भारत और नॉर्वे के बीच सहयोग कैसा चल रहा है?
महामारी के बावजूद यह शानदार है। काफी विपरीत परिस्थितियों में भी, हमने सितंबर में एक संयुक्त आयोग की बैठक की थी। ब्लू इकोनॉमी वार्ता जारी है। हमने समुद्री कूड़े पर एक संचालन समिति की बैठक की। मैंने अभी फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) में ब्लू इकोनॉमी पर वेबिनार में अपनी बात रखी। मैं इस बात पर सकारात्मक हूं कि समुद्रों के दोहन और सुरक्षा दोनों में नार्वे के अनुभवों से सीखने के भारतीय पक्ष की रुचि के साथ एकीकृत महासागर प्रबंधन पर चीजें आगे बढ़ रही हैं।
एकीकृत महासागर प्रबंधन योजना पर ठोस प्रस्ताव या परिणाम क्या हैं?
हम समुद्री स्थानिक योजना पर काम कर रहे हैं, जो इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। यह पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय, राष्ट्रीय तटीय अनुसंधान केंद्र, पर्यावरण मंत्रालय और कुछ अन्य सहयोगियों के साथ है। इसका उद्देश्य भारत सरकार के अपने समुद्री संसाधनों का टिकाऊ तरीके से दोहन करने के लक्ष्य के लिए योगदान करना है।
हम नॉर्वे और भारत में जनता को क्या दिखा पाएंगे?
समुद्री कूड़े पर चार प्रमुख परियोजनाएं आगे बढ़ रही हैं और एकीकृत महासागर प्रबंधन और अनुसंधान पहल ने भारत और नॉर्वे के विभिन्न विशेषज्ञों के बीच वर्चुअल बैठकें की हैं। हालांकि मार्च 2020 से तस्वीरों के अवसर संभव नहीं हो पाए हैं। इससे पहले हम मुंबई गए थे। हमने वर्सोवा समुद्र तट से प्लास्टिक उठाया। हम अहमदाबाद गए, जहां हम जल उपचार की परियोजनाओं और कचरे से बिजली बनाने की तीन परियोजनाओं को सहयोग करते हैं।
क्या आप इन अंतिम बातों पर विस्तार से बता सकते हैं?
समुद्री कूड़े को कम करने के एक प्रमुख घटक अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार करना है। हम समुद्र तटों से प्लास्टिक उठा सकते हैं, लेकिन आपको इसके बाद भी कुछ करने की जरूरत है। एक तरीका यह है कि इससे ऊर्जा पैदा की जाए। अधिक प्रदूषण पैदा करने से बचने के लिए आपको बहुत अधिक तापमान पर कचरे को जलाना होगा। नदियों में कूड़े को कम करने के लिए, जो अंततः समुद्र में जाता है, हम आगरा और मुज़फ़्फ़रपुर में, अपशिष्ट प्रबंधन में नगरपालिकाओं के क्षमता निर्माण को सहयोग करते हैं। गुजरात में, नदियों में सूक्ष्म प्लास्टिक प्रदूषकों पर भारतीय और नार्वे के शोधकर्ताओं के बीच एक शोध सहयोग जनता और नीति निर्माताओं के लिए महत्वपूर्ण जानकारी और ज्ञान उपलब्ध कराता है।
जैसा कि आपने कहा, महामारी ने योजनाओं को बाधित किया है, लेकिन क्या हमारे सहयोग की संस्थाएं पर्याप्त रूप से मजबूत हैं?
सहयोग की हमारी संरचनाएं मजबूत हैं और भारत ने अनुसंधान और कर्मियों में निवेश किया है। भारत ने आर्कटिक में काम करने के लिए युवा शोधकर्ताओं को भेजा है। अब दोनों देशों से और दोनों देशों में काफी महत्वपूर्ण लोगों का आना-जाना है। पेशेवर कारणों से यूरोप के बाहर से नॉर्वे आने वालों में सबसे ज्यादा संख्या भारतीयों की ही है।
आर्कटिक में भारत की आर्कटिक मसौदा नीति को किस तरह देखा गया है?
इसे अच्छी तरह देखा गया है। इसका एक विशेष कारण यह है कि स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आर्कटिक में सभी तरह की गतिविधि अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के सम्मान के साथ होनी चाहिए और आर्कटिक परिषद इसका केंद्र होगा। आर्कटिक बहुत नाजुक क्षेत्र है और किसी तरह के संघर्ष से बचने के लिए अंतर्राष्ट्रीय ढांचा होना बहुत जरूरी है।
भारत में आकर यह पता लगाना आकर्षक था कि यहां आर्कटिक को लेकर कितनी रुचि है। आर्कटिक क्षेत्रों में अनुसंधान करके, भारत सरकार मानसून की बेहतर भविष्यवाणी करने में सक्षम है। इससे यह भी पता चलता है कि हिमालय में जलवायु कैसे बदल रही है। इससे पता चलता है कि दुनिया किस तरह से जुड़ी हुई है। भारत सरकार ने इस शोध में भारी निवेश किया है। कोविड महामारी से पहले मुझे गोवा स्थित नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड ओशन रिसर्च में जाने का मौका मिला था। हमें नॉर्वे में भारतीय शोधकर्ताओं की मेजबानी करने में सक्षम होने पर गर्व है।
आर्कटिक के संबंध में चीन की नीतियों को किस तरह लिया गया है? मसलन, पारिस्थितिकीय सभ्यता जैसी चीजों को किस तरह से लिया गया है?
पर्यावरण के लिए और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत और चीन दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। हम आर्कटिक काउंसिल में पर्यवेक्षकों के रूप में दोनों का स्वागत करते हैं। हम आशा करते हैं कि वे आर्कटिक में पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने के लिए काम करेंगे। हम पारिस्थितिकीय सभ्यता की अवधारणा के विवरण के बिना पारिस्थितिकी पर चीन के जोर देने का स्वागत करते हैं।
पेरिस समझौते और जलवायु परिवर्तन पर काम करने के लिए अमेरिकी प्रशासन की वापसी को आप कैसे देखते हैं?
यह बेहद महत्वपूर्ण है। हम अमेरिका को केवल अपने उत्सर्जन से निपटने के लिए नहीं बल्कि अधिक वैश्विक दृष्टिकोण के लिए भी याद कर रहे हैं। हम कैलिफोर्निया जैसे राज्यों के साथ सहयोग कर रहे हैं, लेकिन यह संघीय सरकार को एक मंच पर लाने के लिहाज से तुलनीय नहीं है। अब हम जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास में एक साथ आ सकते हैं।
राष्ट्रवाद में निर्णय बदलने जैसी स्थितियां भी कई देशों में देखी गई हैं?
आर्थिक शक्ति का बदलाव पूर्व की तरफ हुआ है। चीन और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। साथ ही अन्य देशों द्वारा राष्ट्रीय मुखरता भी आई है। यूरोप में भी अपकेंद्रीय ताकतें हैं। ब्रेक्सिट का बड़ा प्रभाव पड़ा है। नॉर्वे को ब्रिटेन के साथ कुछ हजार द्विपक्षीय समझौते करने पड़े हैं। व्यावहारिक रूप से ये काम थोड़ा उबाऊ है। पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति के बाद से बहुत कुछ बदल गया है और वैश्विक सहयोग के लिए नए सिरे से प्रोत्साहन की आवश्यकता है।
इसमें भारत-नॉर्वे सहयोग कहां फिट बैठता है?
हमारे पास भारत की एक कार्यनीति क्यों है? क्योंकि हम भारत के बिना सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त नहीं करेंगे। हमें आगे चलकर पारिस्थितिक रूप से स्थायी रास्ता खोजने की जरूरत है। भारत और नॉर्वे की अर्थव्यवस्थाएं अब अधिक परस्पर जुड़ी हुई हैं और पारंपरिक व्यापार आंकड़ों से एक-दूसरे के लिए महत्वपूर्ण हैं। हम साथ मिलकर काम कर सकते हैं। भारतीय शोध एवं विकास अकसर विकसित देशों की तुलना में अधिक केंद्रित और कम लागत वाला है। भारतीय शोधकर्ताओं को बुनियादी ढांचे और कम संसाधनों की बाधाओं को दूर करना होगा। भारत से निकलने वाले नवाचार हम सभी के लिए फायदेमंद हैं।