अंजू वर्मा और उनके परिवार के अन्य सदस्य सितंबर 2020 में कोविड पॉजिटिव हुए। वह बचपन से अस्थमा से पीड़ित थीं इसलिए कोविड के असर का डर भी उन पर काफी ज्यादा था। वैसे, एक होम्योपैथिक प्रैक्टिसनर 47 वर्षीय अंजू को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कभी-कभार सांस लेने में दिक्कत को छोड़ दिया जाए तो वह अपने परिवार के बाकी लोगों की तुलना में बीमारी के दौरान बेहतर स्थिति में थीं। दुर्भाग्य से, ठीक होने के बाद भी उनके कटु अनुभव पूरी तरह खत्म नहीं हुए। वह उन लोगों में से हैं, जो अब वायरस से बीमार नहीं हैं, लेकिन फिर भी संक्रमण के बाद महीनों तक उसके दुष्प्रभावों से पीड़ित हैं। ऐसी स्थिति को मोटे तौर पर ‘लॉन्ग कोविड’ कहा जाता है।
वह कहती हैं, “कोविड -19 होने के बाद, पिछले छह महीनों में मुझे सांस संबंधी तकलीफों का ज्यादा सामना करना पड़ा है। उसके बाद से मुझे दमा के पांच अटैक आ चुके हैं। पहले इतनी जल्दी-जल्दी अटैक नहीं आते थे।” उनका यह भी कहना है, “कोविड -19 से पीड़ित होने बाद अस्थमा के अटैक की समस्या ज्यादा बढ़ गई है। दीवाली के आसपास जब मौसम में बदलाव होता है और प्रदूषण ज्यादा बढ़ जाता है, तब मेरी दिक्कत बहुत अधिक बढ़ जाती है।” दीवाली, भारत में हिंदुओं का प्रकाश का पर्व है, जिसमें लोग दीपक जलाते हैं, साथ ही देश के अधिकांश हिस्सों में आतिशबाजी भी करते हैं। इससे वायु प्रदूषण में वृद्धि होती है जिसका असर कई दिनों तक रहता है। भारत में कोविड -19 की एक नई लहर दस्तक दे चुकी है। दोबारा कोरोना की चपेट में आने के डर से अंजू, अपने घर में आइसोलेट हैं और उनको केवल ऑनलाइन परामर्श ही मिल पा रहा है।
भारत के वायु प्रदूषण और कोविड-19 के बीच संबंध
1990 से अस्थमा बोझ के रूप में लगातार बढ़ रहा है। साथ ही, भारत में वायु प्रदूषण के आंकड़े दुनिया में सबसे खराब हो गए हैं। पृथ्वी पर 10 सबसे प्रदूषित शहरों में से 9 भारत में हैं। इस महामारी से पहले भी, एक वैश्विक अध्ययन में पाया गया कि अकेले वर्ष 2019 में, 16.7 लाख मौतें वायु प्रदूषण के कारण हुईं। भारत में हुईं कुल मौतों का यह लगभग 18 फीसद है।
अब शोध में यह पता चल रहा है कि लंबे समय तक खराब वायु गुणवत्ता के कारण कोविड-19 से होने वाले खतरे और बढ़ सकते हैं। अक्टूबर 2020 में, यूनाइटेड किंगडम के लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स और लीड्स विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने अमेरिका में वायु प्रदूषण के चपेट में आने के स्तरों की तुलना कोविड-19 की स्थितियों से की। इसमें उन्हें पता चला कि वायु के प्रति क्यूबिक मीटर के फाइन पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5) के सिर्फ एक माइक्रोग्राम की वृद्धि से एक (यूएस) काउंटी में मीन केस रेट से पुष्टि होने वाले मामलों की संख्या में लगभग 2 फीसदी की वृद्धि है। खराब गुणवत्ता वाली वायु की अवधि के दौरान, कुल मामलों और पीएम 2.5- 2.5 माइक्रोमीटर्स या इससे कम के एक डायमीटर्स वाले अति सूक्ष्म कण जो फेफड़ों के जरिये रक्त प्रवाहों में पहुंच सकते हैं – के चपेट में आने के संबंधों के बारे में बात करें तो पाएंगे कि यह बहुत बदतर हो जाता है।
कोविड-19 के हालात में वायु प्रदूषण इम्यून सिस्टम को कमजोर कर सकता है। पीएम 2.5 पार्टिकल्स एक विषाणु वाहक जैसा व्यवहार भी कर सकता है।– देबाशीष नाथ, सन यात-सेन यूनिवर्सिटी, चीन
चीन में सन यात-सेन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ एटमॉस्फेरिक साइंसेस के एक शोधकर्ता देबाशीष नाथ कहते हैं कि महामारी में वायु प्रदूषण दो तरह से असर करता है। यह आपके इम्यून सिस्टम कमजोर कर सकता है जिससे कोविड-19 के चपेट में आने का खतरे बढ़ जाते हैं। लेकिन वातावरण में पीएम 2.5 पार्टिकल्स भी एक वाहक जैसा व्यवहार कर सकता है। वायरस उन पर बैठ सकता है और वातावरण में लंबे समय तक टिका रह सकता है।
प्रदूषण के साथ-साथ, 20 भारतीय शहरों पर नाथ के शुरुआती शोध, जो कि महामारी की शुरुआत में 500 से अधिक मामलों की गणना करते हैं, बताते हैं कि तापमान और आर्द्रता वायरस को पनपने के लिए एक उपजाऊ वातावरण बनाने में भी योगदान करते हैं। नाथ की टीम ने पाया कि प्रसार के प्रारंभिक चरण में, अधिकांश नए कोविड -19 मामले “तापमान और आर्द्रता पर क्रमशः 27 और 32 डिग्री सेल्सियस और 25 से 45% तक होते हैं।” नाथ इसी व्यख्या में कहते हैं कि क्योंकि यह हवा से फैलता है, इसलिए कोरोना वायरस की “तापमान और आर्द्रता जैसे पर्यावरणीय कारकों पर एक करीबी निर्भरता” है।
इन निष्कर्षों के तर्क में लेखक का कहना है कि इससे भविष्य के कोविड-19 विस्फोट और पर्यावरण की स्थिति के आधार पर संवेदनशील शहरों के मॉडल की भविष्यवाणी करने में मदद मिलेगी। लेकिन एक बार जब वायरस लोगों के बीच फैलना शुरू हो गया है, जिसे कथित तौर पर कम्युनिटी स्प्रेड कहा जा रहा है, तो दिल्ली जैसे शहरों के लिए तथ्य यह है कि देश की राजधानी में इस समय वायरस के जीवित रहने और बिना किसी रुकावट के प्रसार के लिए तापमान की सीमा बिलकुल सटीक है।
चिकित्सक क्या कहते हैं?
भारतीयों का जन्म के समय से ही फेफड़ों का वैल्यूम कम होता है। उसके बाद वायु प्रदूषण की चपेट में आने से फेफड़ों की स्थिति और भी कमजोर हो जाती है।दिनेश राज, होली फैमिली हॉस्पिटल, नई दिल्ली
वह कहते हैं, “यह कहना बहुत मुश्किल है कि प्रत्येक मामलों में स्थितियां खराब करने में में प्रदूषण का योगदान कितना है, लेकिन माता और बच्चे के कुपोषण, जैसे कारकों के कारण, भारतीयों का जन्म औसतन लोअर लंग वैल्यूम के साथ ही होता है। इसके बाद वायु प्रदूषण जैसे कारक फेफड़ों को कमजोर करने में अपनी भूमिका निभाते हैं।” दिनेश राज यह भी बताते हैं कि यूरोप में पैदा हुए एक 40 वर्षीय व्यक्ति का फेफड़ा जितना काम करता है, भारत में 40 वर्षीय व्यक्ति का फेफड़ा उतना काम नहीं कर पाता। वह कहते हैं कि इस स्थिति से हमें नुकसान होना स्वाभाविक है। हमने 30-40 आयु वर्ग वाले बहुत से युवाओं को देखा है जिनके फेफड़े कमजोर हैं और कोविड-19 होने पर उनकी हालत गंभीर हो गई।
राज यह भी बताते हैं कि भारत के साथ ही पड़ोसी देशों, जैसे बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी इस वायरस को कई कारणों से नियंत्रित करना कठिन है। वायु प्रदूषण के जोखिम से फेफड़ों की क्षमता कमजोर होने के अलावा एक ही कमरे में रहने वाले छह लोगों का कोई परिवार भला सोशल डिस्टेंसिंग कैसे बनाए रख सकता है? हम सबको अच्छी तरह से पता है कि इस वायरस का प्रसार कैसे होता है लेकिन मजबूरी में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन न कर पाने के कारण हम कुछ नहीं कर पाते। वह कहते हैं कि बाकी दुनिया की तुलना में भारत पर इस महामारी का प्रभाव ज्यादा घातक है और इसे रोक पाना बहुत मुश्किल है।