2019 की शुरुआती सर्दियों में एक ठंडी सुबह, शेखर चौहान, अपना रोजमर्रा का जीवन शुरू करने के लिए अपने छोटे से गन्ने के खेत में पहुंचे, तो खेत को पानी में डूबा पाया। उत्तर भारतीय राज्य, उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में एक नाले की बाउंड्री टूट गई थी जिससे आसपास के खेतों में पानी भर गया था। इससे चौहान की फसल का एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो गया। चौहान ने जिले की आठ चीनी मिलों में से एक के प्रबंधन से इसकी शिकायत की थी। उन्होंने कहा कि मिल संकरे नाले में पानी छोड़ रही है। चीनी मिल के अधिकारियों ने नाले को ठीक कर दिया था लेकिन जब अगले साल मिल ने फिर से काम करना शुरू किया, तो फिर वही कहानी थी।
चौहान कहते हैं कि इस बार किसी ने नाला ठीक नहीं किया। उनकी यह समस्या कोई अपवाद नहीं है। मार्च 2020 में, 48 वर्षीय राम बीर ने भी अपने खेतों को पानी से भरा पाया। वह कहते हैं, “रातों-रात मेरे गेहूं के खेत में पानी भर गया। लगभग एक सप्ताह में पानी तो कम हो गया, लेकिन मेरी फसल नहीं बची। (पौधे एक सप्ताह के भीतर नष्ट हो गए)।
दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक
भारत, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक देश है। भारतीय चीनी और गुड़ – एशिया और अफ्रीका में लोकप्रिय एक अपरिष्कृत सुगर – श्रीलंका, मलेशिया, नाइजीरिया, तंजानिया और अमेरिका सहित अन्य देशों में भेजी जाती है।
देश में अधिकांश गन्ने की खेती, उत्तर प्रदेश में की जाती है, जिसे ‘भारत का चीनी का कटोरा’ कहा जाता है। 155 चीनी मिलों के साथ, यह राज्य भारत में दूसरे सबसे बड़े प्रसंस्करण उद्योग का भी स्थल है। चीनी, स्थानीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, लेकिन इसके बढ़ते पर्यावरणीय प्रभावों की अनदेखी की जा रही है। इससे विनाशकारी परिणामों का खतरा बन गया है।
चीनी मिलें और डिस्टिलरी भारत के 17 सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में से एक हैं, जो गंगा नदी में अपना पानी छोड़ते हैं। अपशिष्ट जल की मात्रा को निकालने के मामले में लुगदी/कागज और रसायन क्षेत्रों के बाद चीनी उद्योग तीसरे स्थान पर है। पूरे चक्र के दौरान भारी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है, जो गन्ने के उत्पादन से शुरू होता है और मिलों से निकलने वाले अपशिष्ट के साथ समाप्त होता है। मानव स्वास्थ्य, आजीविका और स्थानीय जल निकायों की पारिस्थितिकी के लिए गंभीर प्रभाव के साथ इस प्रक्रिया का भूजल स्तर पर भी असर पड़ता है।
उत्तर प्रदेश में, सबसे बड़ी 56 चीनी मिलें, राज्य के अपशिष्ट जल का लगभग 32 फीसदी उत्पन्न करती हैं और प्रति दिन 85.7 मिलियन लीटर (एमएलडी) नदी प्रणाली में छोड़ती हैं।
2014 के बाद से, अकेले उत्तर प्रदेश में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के लिए चीनी मिलों के खिलाफ लगभग 23 अदालती मामले दर्ज किए गए हैं। 2014 में एक ऐतिहासिक फैसले में सिम्भावली चीनी मिल, जिसकी दैनिक उत्पादन क्षमता 1,000 मिलियन टन है, पर गंगा नदी को प्रदूषित करने के लिए 5 करोड़ रुपये (670,000 डॉलर) का जुर्माना लगाया गया। त्रिवेणी की रामकोला और हाल ही में रामपुर की मिलों पर पर्यावरण नियमों के कथित उल्लंघन के लिए कई अदालती मामले सामने आए।
विकास के आगे प्रदूषण पीछे छूट गया
एक चीनी कारखाने से उत्पन्न कचरा ज्यादातर कार्बनिक होता है जिसमें कम मात्रा में अकार्बनिक सामग्री होती है। प्रदूषकों में अपशिष्ट जल, खोई, प्रेसमड और शीरा शामिल हैं।
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अनुसार प्रत्येक उद्योग को अपशिष्ट जल को बाहर छोड़ने से पहले उसको ट्रीट करना चाहिए। सही तकनीक के साथ, एक बहिःस्राव उपचार संयंत्र (ईटीपी) इकाई को रसायनों से भरे अपने जहरीले अपशिष्ट जल का उपचार करने में सक्षम होना चाहिए।
चीनी मिलें जो पानी छोड़ती है, वह उतना जहरीला नहीं है जितना कि अन्य केमिकल-इंटेंसिव कंपनियों से आता है लेकिन इनसे जलधाराओं और भूजल पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करके जल निकायों के प्रदूषित होने खतरा बहुत ज्यादा है।अपशिष्ट जल क्षेत्र के एक व्यवसायी अंकित ठाकुर
नई दिल्ली स्थित अपशिष्ट जल क्षेत्र के एक व्यवसायी अंकित ठाकुर कहते हैं, “इनमें शामिल दूषित पदार्थों के आधार पर, अपशिष्ट जल के उपचार के लिए विभिन्न प्रक्रियाओं का उपयोग किया जा सकता है।” वह बताते हैं, इसमें सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके कार्बनिक पदार्थों का अपघटन शामिल है। ठाकुर का कहना है, “चीनी मिलें जो पानी छोड़ती हैं, वह उतना जहरीला नहीं है जितना कि अन्य केमिकल-इंटेंसिव कंपनियों से आता है लेकिन इनसे जलधाराओं और भूजल पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करके जल निकायों के प्रदूषित होने खतरा बहुत ज्यादा है।”
एक तरीका, जिससे औद्योगिक अपशिष्ट, स्वस्थ झीलों और नदियों को प्रदूषित करते हैं, वह है पानी में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि करना, जो तब बैक्टीरिया और अन्य सूक्ष्मजीवों द्वारा विघटित हो जाता है। इस प्रक्रिया में बहुत अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, जो ऑक्सीजन की प्राकृतिक उपस्थिति को कम करके जल निकाय को धीरे-धीरे बंद कर देती है। वैज्ञानिक इस घटना को जैविक ऑक्सीजन मांग (बीओडी) या ऑक्सीजन की मात्रा का उपयोग करके मापते हैं जो बैक्टीरिया को प्रदूषित पानी में मौजूद कार्बनिक पदार्थों को डिजॉल्व करने के लिए आवश्यकता होती है।
भारत के पर्यावरण नियमों में कहा गया है कि मीठे पानी की धाराओं में प्रवाहित किये जाने वाले औद्योगिक डिस्चार्ज का बीओडी 30 मिलीग्राम प्रति लीटर (मिलीग्राम / लीटर) से कम होना चाहिए, जबकि भूमि पर डाले जाने वाले औद्योगिक डिस्चार्ज के लिए 100 मिलीग्राम / लीटर की अनुमति है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, चीनी मिलों के औसतन अनुपचारित अपशिष्ट प्रवाह में लगभग 1,000-1,500 मिलीग्राम / लीटर का बीओडी होता है, जो रुक जाने की स्थिति में काला और दुर्गंधयुक्त हो सकता है। यदि अनुपचारित अपशिष्ट को पानी में छोड़ा जाता है, तो सूक्ष्मजीवों को प्रदूषकों को तोड़ने के लिए अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता होगी, जिससे अन्य जलीय जीवन के लिए बहुत कम ऑक्सीजन बचेगी। यदि इसे भूमि पर डाल दिया जाता है, तो अनुपचारित कचरे में मौजूद क्षयकारी कार्बनिक पदार्थ प्राकृतिक रूप से रिसाव को जमीन की सतह पर रोक सकते हैं, जिससे अपशिष्ट की परत के माध्यम से वर्षा जल की थोड़ी सी मात्रा जलभृत में रिस जाती है। यह प्रक्रिया भूजल की गुणवत्ता को प्रभावित करती है और फिर पानी पीने के उद्देश्यों के लिए इस पर निर्भर लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है।
जहरीला पानी
मुजफ्फरनगर जिले के शेखपुरा गांव में स्थानीय लोग अपनी कहानी बताने के लिए बेताब हैं। 35 वर्षीय निवासी कुसुम का कहना है कि उचित स्वच्छता सेवाओं के अभाव में, अपने घर के अंदर जाने के लिए उनको एक नाले को पार करना पड़ता है जो कि त्रिवेणी चीनी मिल के ठीक बगल में है। उसने कुछ घंटे पहले अपने बच्चे के कपड़े धोए, लेकिन बाहर तेज धूप के बावजूद, उसने उन्हें अपने छोटे से कमरे के अंदर सुखाने के लिए लटका दिया।
ग्रामीणों का कहना है कि बाहर कपड़े सुखाना असंभव है, क्योंकि “सब कुछ धूसर सा हो जाता है और राख की तरह गंध आती है”। चीनी मिल की राख कुसुम के घर के फर्श पर चिपक जाती है। नवविवाहिता होने के नाते पहले कुसुम दिन में चार-पांच बार फर्श पर झाडू लगाती थी। अब वह परवाह नहीं करती हैं। वह कहती हैं, “आखिर कितनी बार मुझे इस घर की सफाई करते रहना चाहिए?”
गन्ने के प्रसंस्करण से एक निश्चित मात्रा में राख निकलती है जो मिल के चारों ओर फैल सकती हैं लेकिन मिलों में वेस्ट-टू-एनर्जी संयंत्र भी हैं जो जैविक कचरे के अधूरे दहन के कारण कालिख उत्पन्न करती हैं। वेस्ट-टू-एनर्जी संयंत्रों का उपयोग आमतौर पर मिल के ठोस कचरे को संसाधित करने के लिए किया जाता है। बिजली पैदा करने के लिए इसकी आवश्यकता होती है, लेकिन अगर गीला कचरा होता है, तो प्रदूषण बहुत ज्यादा होता है।
त्रिवेणी चीनी मिल के आसपास रहने वाले ग्रामीणों की शिकायत है कि कंपनी के वेस्ट-टू-एनर्जी संयंत्र से गांव के चारों ओर भारी मात्रा में राख फैलती है। उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी अंकित सिंह का कहना है कि मिल को राख को ऐसी जगह डंप करना होता है जो हरियाली से ढका हो। या फिर बाउंड्री के भीतर डंप करना होता है। इसके अलावा उस पर पानी का छिड़काव करना चाहिए, ताकि वह हवा के साथ न उड़े और राख हमेशा नम रहे। लेकिन गांव के अपने दौरे के दौरान, इस पत्रकार ने पाया कि हर जगह राख उड़ रही थी।
कुसुम और उनके परिवार के वहां जाने से काफी पहले 1933 में मिल का संचालन शुरू हो गया था, लेकिन पिछले कुछ दशकों में मिल की गतिविधियों के विस्तार के साथ पर्यावरणीय प्रभाव बढ़ गए हैं।
अपने घर के अंदर एक हैंडपंप से, वह बीयर की तरह दिखने वाले पीला तरल द्रव एक गिलास भरती हैं। यह दूषित भूजल है, जो कई निवासियों के लिए पीने के पानी का एकमात्र स्रोत है। ये वो लोग हैं बोतलबंद पानी हमेशा नहीं खरीद सकते। सरकार ने कुछ साल पहले एक जल- शोधन सुविधा का निर्माण किया था, जो जब से खराब हो गया है और तब से उसकी कभी मरम्मत नहीं की गई है।
The Third Pole ने कुसुम, उसके परिवार और कई अन्य लोगों द्वारा उपभोग किए जाने वाले पानी का प्रयोगशाला में परीक्षण करवाया। दो नमूने -एक उसके घर से और एक पास के एक समान हैंडपंप से- एकत्र किए गए। इसमें पाया गया कि कोलीफॉर्म बैक्टीरिया, जो रोगजनकों की उपस्थिति का संकेत दे सकता है, पीने के पानी में पाया गया। साथ ही कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम, नाइट्रेट्स और अन्य जैसे अकार्बनिक लवणों का स्तर 1,190 मिलीग्राम / लीटर तक पहुंच गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मानकों के अनुसार, इन टोटल डिजॉल्व्ड सॉलिड्स (TDS) का स्तर 300 mg/l से कम ही स्वीकार्य माना जाता है, लेकिन 900 mg/l से ऊपर की कोई भी चीज़ खराब गुणवत्ता की होती है।
उच्च टीडीएस वाले पानी के लंबे समय तक सेवन से लीवर और किडनी की क्षति के साथ-साथ प्रतिरक्षा प्रणाली के कमजोर होने का खतरा बढ़ जाता है। विश्लेषण किए गए पानी में 0.02 मिलीग्राम / लीटर लेड भी था। यह एक ऐसा तत्व है जो तंत्रिका तंत्र, गैस्ट्रोइन्टेस्टनल ट्रैक्ट को नुकसान पहुंचा सकता है। यहां तक कि इसे व्यवहार और सीखने संबंधी दिक्कतें भी पैदा हो सकती हैं। लेकिन लेड के इन असुरक्षित स्तरों को मिल की गतिविधि से जोड़ने का कोई सबूत नहीं है।
कुसुम का भूजल एक हैंडपंप से आता है जिसकी गहराई लगभग 35-40 फीट है। उसकी पड़ोसी सीमा सैनी ने अपने बोरवेल को “अजीब रंग” और “तीखी गंध” वाला पानी न पाने की उम्मीद में काफी गहरा खोदा। फिलहाल सैनी को अपना पानी 110 फीट की गहराई से मिलता है। लेकिन गहरी खुदाई करना ही काफी नहीं है। वह कहती हैं, “आप पानी को कुछ घंटों के लिए खुले में रखते हैं, और यह पीला भी हो जाता है। यहां के निवासी मजाक में कहते हैं कि यहां का पानी चमत्कारी है।
सैनी द्वारा आपूर्ति किए गए पानी पर www.thethirdpole.net द्वारा किए गए परीक्षणों में थोड़ा टीडीएस स्तर, लगभग 760, पाया गया, जिसे डब्ल्यूएचओ द्वारा ‘फेयर’ माना जाता है। लेकिन इस पानी में क्लोरपाइरीफॉस के रूप में कीटनाशक अवशेष भी पाए गए।
ट्रस्ट इंडिया वॉश फोरम के एक सीनियर डेवलपमेंट एक्सपर्ट दीपिंदर कपूर, जिन्होंने पानी की रिपोर्ट देखी, बताते हैं कि आम तौर पर “कीटनाशक अवशेष जेनेटिक म्यूटेशन और हार्मोनल असंतुलन का कारण बन सकते हैं और यह अपरिवर्तनीय क्षति का भी कारण बन सकते हैं। हालांकि हम अभी भी स्पष्ट रूप से नहीं कह सकते कि किन रसायनों का हमारे शरीर पर क्या-कुछ प्रभाव हो सकता है।
क्या कहते हैं कानून बनाने वाले
उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) के एक क्षेत्रीय अधिकारी विवेक रॉय ने 2017 के एक वीडियो में उत्तर प्रदेश के जल निकायों में जल प्रदूषण पर चर्चा करते हुए बताया था, “हैंड पंपों से आने वाले रंगीन पानी की समस्या लेड और लोहे के संदूषण के कारण हो सकती है।” कपूर के अनुसार, “भूजल प्रदूषण पूरे देश में चिंता का विषय है और उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट भारत के कई हिस्सों में भूजल की गुणवत्ता को गंभीर रूप से प्रभावित करते पाए गए हैं।”
यूपीपीसीबी की मुजफ्फरनगर जिला शाखा के रीजनल ऑफिसर अंकित सिंह का कहना है, “हर तीन महीने में एक बार सभी उद्योगों का निरीक्षण किया जाता है, और चीनी मिलों जैसे रेड जोन्स में आने वाले उद्योगों का अक्सर महीने में एक बार निरीक्षण किया जाता है।” भारत अपने औद्योगिक समूहों की उनके पर्यावरणीय प्रभावों के आधार पर कलर कोडिंग करता है। 60 और उससे अधिक के प्रदूषण सूचकांक स्कोर के साथ, चीनी उद्योगों को रेड कलर के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
सिंह कहते हैं कि हर उद्योग और उसके ईटीपी आउटलेट, एक केंद्रीय निगरानी प्रणाली से जुड़े हैं, जो लगातार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अधिकारियों को डाटा भेजता है। सिंह का कहना है, “अगर प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को कोई भी आंकड़ा मिलता है जो अनुमेय सीमा से अधिक है, तो उद्योग को एक नोटिस भेजा जाता है और गंभीर कार्रवाई की जाती है।” उनका यह भी कहना है कि सभी उद्योगों के लिए पांच मानकों की जांच की जाती है: बीओडी (बॉयोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड), टीडीएस (टोटल डिजॉल्व्ड सॉलिड्स), पीएच वैल्यू, सीओडी (केमिकल ऑक्सीजन डिमांड) और टीएसएस (टोटल सस्पेंडेड सॉलिड्स)। अगर हमें अन्य प्रदूषकों की उपस्थिति के बारे में कोई शिकायत मिलती है, तो ही अन्य मापदंडों, जैसे कि हैवी मेटल्स या अन्य रसायनों की उपस्थिति की जांच की जाती है।
हालांकि, एक पर्यावरण कार्यकर्ता और गैर-लाभकारी संस्था साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (SANDRP) के वाटर एक्सपर्ट हिमांशु ठक्कर का कहना है कि प्रदूषण एजेंसियों में विश्वसनीयता की कमी है। उनके अनुसार, क्योंकि सीपीसीबी की निगरानी करने वाले पैरामीटर जनता के लिए उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए संस्थानों में विश्वास बनाए रखना मुश्किल है।
खतौली का वेनिस
नालों और छोटी नहरों के जाल से घिरी, इस्लामाबाद की बस्ती, त्रिवेणी चीनी मिल की ईटीपी इकाई के पास स्थित क्षेत्र है, जो एक लैंडलॉक राज्य के एक गांव की तुलना में, एक छोटे से द्वीप जैसा दिखता है। घरों की एक लंबी कतार, एक मध्यम आकार के नाले के साथ फैली हुई है, जहां मिल अपना अपशिष्ट जल छोड़ती है। यह तैरती हुई प्लास्टिक की बोतलों और डिब्बों से भरा हुआ है। इमारतों से निकलने वाले प्लास्टिक के बड़े-बड़े पाइप, एक ही नाले में शौचालयों और रसोई दोनों का पानी छोड़ते हैं।
ईटीपी के पीछे, गांव के बीच के तालाबों में मच्छर, कीड़े और मक्खियां पैदा होती रहती हैं। यह पहले खेत हुआ करता था। मिल द्वारा इसे खरीदने के बाद यह जगह प्रदूषित हो गई और यहां सड़ी हुई सब्जियों के पानी से बदबू आती रहती है लेकिन पहले यह कृषि योग्य भूमि थी।
73 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता और इस्लामाबाद गांव के निवासी अहमद अंसारी बताते हैं कि मिल से कई आउटलेट निकल रहे हैं। कुछ पाइप अपशिष्ट जल को मिल के ठीक बाहर छोड़ देते हैं, लेकिन अन्य इसे 3-4 किलोमीटर दूर जाकर नालियों में छोड़ते हैं।
मोहम्मद आरिफ का घर इस्लामाबाद से बाहर, मिल से अपशिष्ट जल ले जा रही एक नहर के किनारे स्थित है। उनका कहना है कि मिल अप्रत्याशित रूप से, दिन के अलग-अलग समय पर और अलग-अलग रंगों में पानी आता है। मिल अक्सर इतना अधिक जहरीला पानी छोड़ती है कि नालियां ओवरफ्लो हो जाती हैं और पानी हमारे घरों में घुस जाता है। मैंने कई बार गहरे भूरे से लेकर लाल रंग तक का पानी देखा है। पानी कभी-कभी गर्म होता है। इससे आप भाप को भी निकलते हुए देख सकते हैं।
9 फरवरी 2021 की रात को किसान शेखर चौहान द्वारा एकत्र किए गए पानी के नमूने में 637 मिलीग्राम/ली का बीओडी और 2,149 मिलीग्राम/ली का सीओडी मिला जो अनुमेय सीमा से 1,000% अधिक है।
www.thethirdpole.net ने ईटीपी इकाई से जमीन पर बहाये जाने वाले गहरे तरल अपशिष्ट के नमूने एकत्र किए। दिन के समय एकत्र किए गए एक नमूने में बीओडी और सीओडी क्रमशः 87 और 370 रहा। ये दोनों ही कानून का अनुपालन करते हैं। हालांकि, किसान चौहान द्वारा 9 फरवरी 2021 की रात 2 बजे एकत्र किए गए दूसरे नमूने में 637 मिलीग्राम/लीटर का बीओडी और 2,149 मिलीग्राम/लीटर का सीओडी पाया गया, जो अनुमेय सीमा से 1,000% अधिक है। जब पानी को जल स्रोतों में छोड़ा जाता है, तो सुरक्षित बीओडी की सीमा 30 मिलीग्राम/लीटर होती है। जमीन पर छोड़े जाने वाले पानी की सुरक्षित सीमा 100 मिलीग्राम/लीटर है।
The Third Pole के एक ई-मेल के जवाब में, त्रिवेणी मिल के एक प्रवक्ता ने कहा कि अपशिष्ट जल के उपचार के लिए सक्रिय स्ल्ज प्रोसेस टेक्नोलॉजी के साथ तीन चरण ईटीपी का उपयोग किया जाता है। मिल ने दिन और रात के बीच पानी की गुणवत्ता में विसंगति के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया।
सक्रिय स्ल्ज प्रोसेस को औद्योगिक और शहरी अपशिष्ट जल के उपचार के लिए डिज़ाइन किया गया है, जिसमें सूक्ष्मजीवों का उपयोग तरल कचरे में मौजूद कार्बनिक पदार्थों और पोषक तत्वों को डिग्रेड करने के लिए किया जाता है, जिससे पर्यावरण के लिए कम हानिकारक अपशिष्ट उत्पन्न होता है। स्ल्ज में विभिन्न प्रकार के जीव होते हैं, जिसमें बैक्टीरिया से लेकर छोटे अकशेरूकीय तक शामिल हैं, जिन्हें नियंत्रित वातावरण में अपशिष्ट जल में जोड़ा जाता है।
ठक्कर और कुछ अन्य अपशिष्ट जल विशेषज्ञ, इन निष्कर्षों से हैरान नहीं हैं। www.thethirdpole.net से अपशिष्ट जल और प्रदूषण से जुड़े 10 विशेषज्ञों ने कहा कि वाटर ट्रीटमेंट पर आने वाले खर्च से बचने के लिए आंकड़ों की हेराफेरी की जाती है और प्रदूषण नियंत्रण से जुड़ी एजेंसियों को भ्रामक सूचनाएं दी जाती हैं। भारत और अन्य जगहों पर यह सब हमेशा से चलता आया है।
गैर-लाभकारी संस्था SANDRP के एसोसिएट कॉर्डिनेटर भीम सिंह रावत कहते हैं कि आंकड़ों को गढ़ना और इस तरह के व्यवहार को जारी रखना बहुत मुश्किल नहीं है। भ्रष्टाचार बहुत बड़ा है और जवाबदेही कम है। कई कारखानों और अपशिष्ट उपचार संयंत्रों में मैंने देखा है कि उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा किए गए निगरानी उपायों को दरकिनार करके साफ पानी में जांच कर ली जाती है। लैब के परिणाम आने के तुरंत बाद, चौहान ने 3 मार्च 2021 को भारत की पर्यावरण अदालत, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में एक मामला दायर किया।
न्यायालय ने शिकायत को गंभीरता से लिया है। मामला दर्ज होने के बाद, एक न्यायाधीश ने खतौली का दौरा करने और पानी के नमूने एकत्र करने के लिए एक डेडिकेटेड टीम बनाने का आदेश दिया है।
सर्वोच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने वाले पर्यावरण वकील संजय उपाध्याय ने The Third Pole को बताया कि प्रक्रिया का पालन करते हुए प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को जो सैंपल भेजा गया है, उसी सैंपल की कॉपी जांच के लिए भेजी जानी चाहिए। यह नियामक का काम है कि उद्योगों की निगरानी के लिए नमूने इकट्ठे किए जाएं। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि एक नियामक के दृष्टिकोण से, हमारे पास निरंतर निगरानी करने के लिए पर्याप्त (अधिकारी), सिस्टम, सुविधाएं, तरीके और डाटा नहीं हैं। सर्वोत्तम प्रथाओं को लागू करना एक शक्तिशाली कार्य है।
उपाध्याय बताते हैं कि अगर हम [देश में] हर उद्योग को विनियमित और निगरानी करना चाहते हैं, तो चक्र को पूरा करने में चार साल से अधिक समय लगेगा।
अन्य एक्टिविस्ट्स के साथ, अंसारी 1990 से अधिकारियों से कोई फायदा नहीं होने की शिकायत कर रहे हैं। उनका कहना है कि जब ईटीपी इकाई 1990 के दशक की शुरुआत में बनाई जा रही थी। उस समय स्थानीय बस्तियां बढ़ और फल-फूल रही थीं। हालांकि ईटीपी के निर्माण की अनुमति दी गई थी, लेकिन इसके पीछे शर्त यह थी कि यह पर्यावरण नियमों का पालन करेगा। हालांकि उस समय ग्रामीणों से कभी परामर्श नहीं किया गया। 1990 से 2017 तक त्रिवेणी चीनी मिल और सरकारी अधिकारियों दोनों को कई पत्र, नोटिस और शिकायतें भेजी गईं। 2000 में, पर्यावरणीय मानदंडों का उल्लंघन करने के लिए अदालतों ने मिल पर 100,000 रुपये (वर्तमान विनिमय दर के साथ लगभग 1,350 अमेरिकी डॉलर) का दैनिक जुर्माना लगाया। जब मिल के प्रबंधन से इन शिकायतों के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने सभी आरोपों से इनकार किया और www.thethirdpole.net को बताया कि उन्हें कभी भी ग्रामीणों या किसी सक्षम प्राधिकारी से “कोई वास्तविक शिकायत” नहीं मिली है।
स्वास्थ्य पर प्रभाव
सूर्यास्त के बाद खतौली में बाहर रहना एक कष्टदायक अनुभव है। जैसे ही प्रकाश खत्म होता है और तापमान गिरता है, रुके हुए पानी से मच्छरों का फौज निकलने लगती है। नाम न छापने की शर्त पर, शहर के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से एक डॉक्टर का कहना है कि त्वचा पर चकत्ते और अन्य त्वचा संबंधी बीमारियों की शिकायत के साथ काफी रोगी स्वास्थ्य केंद्र में आते हैं। उनका मानना है कि यह औद्योगिक प्रदूषण का प्रत्यक्ष परिणाम है।
दिल्ली की एक ईएनटी विशेषज्ञ चंचल पाल, जो स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रदूषण के प्रभाव का अध्ययन करती हैं, स्थानीय डॉक्टर की चिंताओं को प्रतिध्वनित करते हुए कहती हैं कि कुछ भी शरीर के एक हिस्से तक सीमित नहीं रहता है। अगर कोई मिल द्वारा उत्पादित जहरीली गैसों को अंदर सांसों के जरिये लेता है या वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट में कचरे के दहन से निकलने वाली गैसों को सांसों के जरिए शरीर के अंदर ले जाता है तो वैसे तो यह नाक से शुरू होता है लेकिन यह फेफड़ों तक पहुंचता ही है।
जब कोई व्यक्ति लगातार हवा में जहरीले घटकों के संपर्क में आता है, तो वह जिन छोटे कणों को सांसों में लेते हैं, वे अंततः रक्तप्रवाह में प्रवेश कर जाते हैं, जो गुर्दे, आंतों और शरीर के अन्य हिस्सों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। लंबे समय तक इस तरह की स्थिति से कैंसर होने का भी खतरा बढ़ जाता है। प्रदूषण का स्रोत हवा या पानी हो सकता है, लेकिन पूरे मानव शरीर पर इसके प्रभावों को व्यापक रूप से जाना जाता है।
एक गैर-लाभकारी सामाजिक संस्था सोशल एक्शन फ़ॉर फ़ॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट के संस्थापक विक्रांत तोंगड कहते हैं कि भारत में, मानव स्वास्थ्य पर औद्योगिक कचरे के प्रभाव पर केवल सीमित अध्ययन हैं। औद्योगिक अपशिष्टों और मानव स्वास्थ्य के बीच एक कड़ी स्थापित करने के लिए, स्वतंत्र और विस्तृत शोध की आवश्यकता है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रदूषणकारी उद्योगों से होने वाले संभावित पर्यावरणीय नुकसान की सीमा निर्धारित करने के लिए व्यक्तिगत पानी के नमूने पर्याप्त नहीं हैं। जल परीक्षण एक अच्छा प्रारंभिक बिंदु है लेकिन इसे मिट्टी परीक्षण, पूरे क्षेत्र में हैंडपंप और बोरवेल से पानी की गुणवत्ता का विस्तृत मानचित्रण और जहां संभव हो, निवासियों के स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए रक्त परीक्षण चाहिए। इस तरह के विस्तृत परीक्षण कभी नहीं किए जाते।
सीमित पानी, असीमित मांग
खेत में परिपक्व होने के लिए एक किलो गन्ने के लिए 1,500-2,000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। कटाई के बाद, एक टन गन्ने की पेराई के लिए 1,500-2,000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, जिससे लगभग 1,000 लीटर अपशिष्ट जल निकलता है। जहां क्षेत्र में गन्ने का उत्पादन बढ़ा है, वहीं वार्षिक वर्षा कम हो रही है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने उत्तर प्रदेश के लिए 1989 से 2018 तक वर्षा के आंकड़ों का एक सेट संकलित किया है और पाया कि वार्षिक वर्षा का स्तर, मुख्य रूप से मानसून की बारिश से प्रेरित, काफी कम हो गया है। अध्ययन में कहा गया है कि औसत वर्षा पैटर्न में परिवर्तन के साथ-साथ क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं की तीव्रता और आवृत्ति में परिवर्तन, जलवायु परिवर्तन के कारण हो सकते हैं।
पीके सिंह, जो भारत सरकार के अधीन काम करने वाले एक स्थानीय कृषि कार्यालय, कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) के प्रमुख हैं, बताते हैं कि यह क्षेत्र जलवायु परिवर्तन और पानी की कमी सहित कई चुनौतियों का सामना करता है। उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में, तापमान “असामान्य रूप से फरवरी के आसपास” बढ़ना शुरू हो गया है, जिससे गेहूं जैसी फसलों का उत्पादन प्रभावित हुआ है। कम वर्षा के बावजूद, किसान अभी भी गन्ने की खेती कर रहे हैं क्योंकि वे अपने खेतों की सिंचाई के लिए भूजल भंडार का दोहन कर सकते हैं।
गांव में, एक स्थानीय मैकेनिक, पंकज, एक नया बोरवेल खोदना चाहते हैं। वह कहते हैं कि पहले, पानी लगभग 40-50 फीट (12-15 मीटर) पर आसानी से पाया जा सकता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। भूजल का स्तर बहुत गिर गया है और अब हमें पानी खोजने के लिए 100 फीट (50 मीटर) से अधिक नीचे कुएं खोदने होंगे। किसान विकास केंद्र के पी.के. सिंह इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं कि पिछले एक दशक में औसत भूजल स्तर 96 सेमी प्रति वर्ष नीचे चला गया है।
संकट की घड़ी में पानी की बर्बादी
यह क्षेत्र पानी की बढ़ती कमी से प्रभावित है, लेकिन तालाबों और कृत्रिम झीलों में मिल का अपशिष्ट जल भर रहा है। यूपीपीसीबी अधिकारी अंकित सिंह का कहना है कि त्रिवेणी की खतौली मिल जैसे बड़े चीनी उद्योग के लिए ईटीपी से निकलने वाले पानी की प्रतिदिन की अनुमेय सीमा 1,935 किलोलीटर और चीनी प्रसंस्करण मिल से प्रतिदिन निकलने वाले पानी की अनुमेय सीमा 600 किलोलीटर है।
कुल मिलाकर, मिल को प्रति दिन लगभग 2,500,000 लीटर पानी छोड़ने की अनुमति है। लेकिन अक्सर बीर और चौहान जैसे किसानों के खेतों में बाढ़ आ जाती है। ज़ीरो लिक्विड डिस्चार्ज जैसी तकनीकें, जो अपशिष्ट जल को रिकवर करती हैं और दूषित पदार्थों को ठोस कचरे में बदल देती हैं, ऐसे प्रभावों को रोक सकती हैं, लेकिन भारत सरकार उन्हें अपनाने का आदेश नहीं देती है।
The Third Pole ने त्रिवेणी चीनी मिल के प्रबंधन से इस बारे में विवरण मांगा कि स्ट्रक्चर को हर दिन कितना पानी छोड़ने की अनुमति है, साथ ही कितना पानी छोड़ा गया है, लेकिन कंपनी ने इस पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। यदि एक जल निकाय, जहां कचरा डंप किया जा रहा है, पर्याप्त बड़ा नहीं है या कचरे का कंसन्ट्रेशन कम करने के लिए पर्याप्त ताजा पानी नहीं मिलता है, तो कचरे के घटक जमीन के अंदर रिस सकते हैं और भूमि और भूजल को प्रभावित कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए, पुणे में कंसल्टेंसी सैनीवर्स एनवायर्नमेंटल सॉल्यूशंस के निदेशक धवल पाटिल कहते हैं कि 100 मिलीग्राम / लीटर की बीओडी कन्सनट्रेशन के साथ एक मिलियन लीटर उपचारित अपशिष्ट से लगभग 100 किलोग्राम जैविक अपशिष्ट उत्पन्न होगा। अगर भूमि का टुकड़ा, जहां कचरा डंप किया जाता है, सीमित है, या यदि जल निकाय को पर्याप्त ताजा पानी नहीं मिलता है, तो कचरे की मात्रा टूटने में सक्षम नहीं होगी और निश्चित रूप से भूमि और जल निकाय प्रभावित होंगे। और भूजल की गुणवत्ता पर असर पड़ेगा।
मुजफ्फरनगर के स्टॉर्म ड्रेन्स को इस हिसाब से डिजाइन किया गया है कि वे बारिश के पानी को नदियों, झीलों और आखिर में समुद्र तक पहुंचाने के लिए कारगर हों। लेकिन वे इसके बजाय, शहरी और औद्योगिक दोनों प्रदूषकों को ले जाते हैं। मुजफ्फरनगर से छोड़ा गया अधिकांश अपशिष्ट जल काली पूर्वी नदी या नागिन नदी में जाकर गिरता है, जो खतौली से 13 किमी दूर अंतवाड़ा से निकलने वाली एक वर्षा-आधारित नदी है, जो अंततः गंगा नदी में विलीन हो जाती है। उत्तर प्रदेश में उद्योगों से 27% से अधिक अपशिष्ट जल अकेले काली नदी में छोड़ा जाता है। सिंचाई के लिए पानी की सीमित पहुंच के कारण, किसान अपनी फसलों की सिंचाई के लिए नालों के प्रदूषित पानी का उपयोग करते हैं।
नीति आयोग की एक रिपोर्ट में पाया गया कि उत्तर प्रदेश में 70% पानी प्रदूषित है। यह भी कहा है कि गन्ने की अंधाधुंध खेती भी इसका एक संभावित कारण है। हालांकि, गैर-लाभकारी संस्था ऑक्सफैम के एक अध्ययन से पता चलता है कि निगरानी एजेंसियों से जानकारी की कमी से जांच प्रक्रिया मुश्किल हो जाती है और राज्य की लगभग 60% आबादी की फसल पर आर्थिक निर्भरता, मिलों को कड़े पर्यावरणीय नियमों का पालन करने से बचाती है।
चीनी उद्योग भारत की कृषि अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह खतौली जैसे क्षेत्रों को सस्टेन रखता है। इस उद्योग को बड़े पैमाने पर किसानों और समुदाय दोनों का समर्थन है। हालांकि, आर्थिक प्रगति के साथ-साथ इससे पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, जल स्रोत जहरीले हो रहे हैं, जिससे हजारों लोगों के स्वास्थ्य और जीवन पर खतरा है। धवल पाटिल कहते हैं कि जबकि सरकार अपशिष्ट कचरे पर सीमा निर्धारित करती है, लेकिन यह जल निकाय या स्थानीय पर्यावरण की पुनर्जनन क्षमता को ध्यान में नहीं रखती है, जहां कचरा डंप किया जाएगा। हालांकि भारत में कुछ बेहतरीन पर्यावरण कानून हैं, लेकिन उनका खराब कार्यान्वयन उनकी सबसे बड़ी कमी है।