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बिहार में बाढ़ और बढ़ती हिंसा झेल रही हैं महिलाएं

जलवायु परिवर्तन के चलते बाढ़ की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं और इस आपदा के कारण उत्तर भारतीय राज्य बिहार में महिलाएं हिंसा और तस्करी की चपेट में आ रही हैं।
<p>जलवायु परिवर्तन के कारण हर साल आने वाली भयानक बाढ़, बिहार पर व्यापक प्रभाव डालती है। इस आपदा से विशेष रूप से गरीब और हाशिए के समुदायों की महिलाएं सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। (फोटो: Alamy)</p>

जलवायु परिवर्तन के कारण हर साल आने वाली भयानक बाढ़, बिहार पर व्यापक प्रभाव डालती है। इस आपदा से विशेष रूप से गरीब और हाशिए के समुदायों की महिलाएं सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। (फोटो: Alamy)

अगस्त 2017 में, बिहार में, आई विनाशकारी बाढ़ के बाद, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रभावित क्षेत्रों का हवाई सर्वेक्षण किया। उस समय, राज्य का लगभग 3,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पानी में डूबा हुआ था। बाढ़ प्रभावित यह क्षेत्र राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के आकार से दोगुना था। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, इस आपदा ने 815 लोगों की जान ले ली और लगभग 900,000 लोगों को बेघर कर दिया। कई लोगों के पास सड़कों, रेल की पटरियों और छतों पर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। हालांकि, प्रधानमंत्री के हेलीकॉप्टर सर्वेक्षण से आपदा के चलते क्षेत्र की लड़कियों और महिलाओं पर बढ़ती हिंसा और असुरक्षा के हालात अदृश्य रहे। 

अररिया जिले की एक किशोरी हेमा देवी*, इस खतरे की शिकार होने वाली महिलाओं में से एक थीं। बाढ़ से उनका गांव जलमग्न हो चुका था, जिससे उन्हें और उनकी मां को राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे एक अस्थायी तंबू में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा। वैसे, यह स्थिति लगभग, एक वार्षिक घटना बन गई थी। फरवरी 2018 में, बाढ़ के कुछ महीनों बाद, एक व्यक्ति ने हेमा की मां से संपर्क किया और उसे अपनी बेटी की शादी करने के लिए 5,000 रुपये का भुगतान करने की पेशकश की।

Woman in sari with face blurred to protect identity
हेमा देवी* की मां ने 2017 में विनाशकारी बाढ़ के बाद अपनी बेटी की शादी के लिए पैसे स्वीकार किए। यह ऐसा वक्त था जब वे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे। (फोटो: श्रेया रमन)

ऐसा प्रतीत होता है कि शादी ने हेमा के लिए एक बेहतर जीवन की संभावना पेश की होगी, जिसका बचपन बहुत कठिन था। अपनी बीमार मां की देखभाल और परिवार के लिए कमाने की मजबूरी में 11 साल की उम्र में हेमा की पढ़ाई छूट गई थी। हेमा ने बताया, “मेरी मां ने सोचा कि वह एक अच्छा आदमी है और अररिया में रहता है (इसलिए वे शादी के बाद पास ही रहेंगे)।”

लेकिन यह सोचना गलत साबित हुआ। अररिया में केवल एक महीने रहने के बाद, हेमा का पति उसको चंडीगढ़ ले गया, जहां उसके साथ शारीरिक दुर्व्यवहार किया। भागने से पहले उसने छह महीने तक इस दुर्व्यवहार को सहा।

हेमा ने बताया, “मैं रेलवे स्टेशन पहुंची और लोगों से पूछा कि ट्रेन कहां जा रही है। मैंने पूर्णिया स्टेशन (अररिया के पास) के लिए अपना रास्ता ढूंढ़ लिया और घर आ गयी।” वापस लौटने पर हेमा को अपनी मां से उलाहना इत्यादि का सामना करना पड़ा, लेकिन यह अब शांत हो गया है। हेमा अब हाईवे के किनारे एक दुकान चलाती हैं और कहती हैं कि फिर कभी शादी नहीं करना चाहती।

Pritha Devi (pseudonym), sat crossed legged in pink clothing. Face blurred to protect her identity
पृथा देवी* के चाचा ने एक व्यक्ति से उसके पहले पति की मृत्यु के बाद दोबारा विवाह के लिए पैसे लिए। शादी के दो महीने बाद, उसके “पति” ने उसे उत्तर प्रदेश के एक वेश्यालय में बेच दिया, जहां उसका शारीरिक और यौन शोषण किया गया। वेश्यालय की एक बूढ़ी औरत ने उसे भागने में मदद की और किसी तरह वह अपने घर लौट पाई। वह अब एक एनजीओ, भूमिका विहार, की मदद से हाईवे के किनारे एक दुकान चलाती है। (फोटो: श्रेया रमन)

आपदा के बाद, इस तरह की हिंसा के खतरे बढ़ने और हेमा जैसा अनुभव असामान्य नहीं है, और न ही अगस्त 2017 जैसी बाढ़ की घटनाओं तक ही ये सब सीमित है। बिहार के अररिया और कटिहार जिलों के दौरे के दौरान, साक्षात्कारकर्ताओं ने बताया कि क्षेत्र में हर साल बाढ़ आती है। इससे महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा के मामले बढ़ते जा रहे हैं। इस तरह के खतरे केवल बिहार या भारत के बड़े हिस्से तक सीमित हैं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।

जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ जैसी आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हुई है और महिलाओं के जीवन पर इनका बहुत ही नकारात्मक असर पड़ा है। दुनिया भर में, कई अध्ययनों से पता चलता है कि मौसम संबंधी आपदाओं के कारण महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा के मामले बढ़े हैं।

बाढ़ से लड़कों की प्राथमिकता बढ़ जाती है

भारत में मौसमी आपदाओं के कारण विशेष रूप से हाशिए के समुदायों का भारी प्रवासन होता है। पुरुष, अक्सर देश के अन्य हिस्सों में काम करने के लिए चले जाते हैं। महिलाओं को आय के कुछ मामूली अवसरों के साथ पीछे छूट जाती हैं। इस प्रकार, लड़कों को आय का स्रोत माना जाता है, जबकि लड़कियों को अक्सर बोझ के रूप में देखा जाता है। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि लड़कियों की शादी के लिए मां-बाप को दहेज देना पड़ता है। बेटों के लिए इस वरीयता के कारण, महिलाओं पर लड़कों को जन्म देने का अतिरिक्त दबाव पड़ता है और महिलाओं व लड़कियों के खिलाफ भेदभाव और हिंसा कायम रहती है।

कटिहार जिले के देवीपुर गांव की एक महिला बीना देवी की स्थिति कुछ ऐसी ही है। बीना देवी ने इस तरह के दबाव के बारे में बात की। तीन बेटों की मां, बीना देवी का कहना है कि अगर वह एक लड़का नहीं होता, तो वह मर जातीं, क्योंकि परिवार के लिए कोई कमाने वाला नहीं होता। पांच साल पहले, उनके पति की मृत्यु के बाद, उनके सबसे बड़े बेटे को परिवार के भरण-पोषण के लिए पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा, उस समय उसकी उम्र केवल 10 साल थी। अब वह 15 साल का है, और अपने दो भाइयों, एक बहन और मां का भरण-पोषण करता है।

Bina Devi with her 12-year-old daughter in Devipur village in Bihar’s Katihar district
बिहार के कटिहार जिले के देवीपुर गांव में बीना देवी अपनी 12 साल की बेटी के साथ। पांच साल पहले अपने पति को खो चुकी बीना का कहना है कि अगर उसके बेटे नहीं होते तो उसकी मौत हो जाती और बीना देवी को अपनी बेटी की शादी के लिए दहेज देने की चिंता है। (फोटो: श्रेया रमन)

बिहार में बाढ़ से जुड़ी लैंगिक संवेदनशीलता के हाल के एक अध्ययन में, लेखकों ने जाना कि अधिक बेटियों वाले परिवार सबसे अधिक असुरक्षित हैं। जब पूरे गांव जलमग्न हो जाते हैं, तो इस क्षेत्र के परिवार अक्सर अपनी झोपड़ियों को सहारा देने और अपनी संपत्ति की रक्षा के लिए मचान नामक, एक संरचना बनाते हैं। यह पुरुषों का काम माना जाता है, जिसमें महिलाओं को शारीरिक रूप से सक्षम होने पर भी काम करने की अनुमति नहीं है। इस प्रकार, ऐसे परिवार, जहां केवल महिलाएं हैं, वे उच्च भूमि पर जाने और अस्थायी शिविरों में रहने के लिए मजबूर होते हैं।

Men in Araria’s Damheli village make bamboo panels plastered with cow dung and mud to rebuild houses damaged by floods
अररिया के दम्हेली गांव में पुरुष, बाढ़ से क्षतिग्रस्त घरों के पुनर्निर्माण के लिए गाय के गोबर और मिट्टी के साथ बांस के पैनल बनाते हैं। घरों के पुनर्निर्माण का काम पुरुषों का माना जाता है। इस कारण, केवल महिलाओं वाले परिवारों को इस क्षेत्र में वार्षिक बाढ़ से उबरना और पुनर्निर्माण मुश्किल हो जाता है। (फोटो: श्रेया रमन)

बाढ़ के बाद घरों के पुनर्निर्माण को भी पुरुषों के काम के रूप में देखा जाता है। केवल महिलाओं वाले परिवारों को पुरुष रिश्तेदारों पर निर्भर रहना पड़ता है या गांव में पुरुषों को इस काम के लिए भुगतान करना पड़ता है। देवीपुर गांव की महिलाओं के अनुसार, किसी श्रमिक को इस काम के लिए रखने पर प्रति दिन 350 रुपये खर्च होंगे। यह बिहार जैसे राज्य में एक भारी लागत है, जहां प्रति व्यक्ति वार्षिक आय  34,000 रुपये या लगभग 90 रुपये रोजाना है।

दहेज के अलावा तस्करी का बढ़ता खतरा

शादी के लिए दहेज का दबाव भी महिलाओं और उनके परिवारों के लिए एक अतिरिक्त बोझ है। और इसके कारण अक्सर हिंसा व उत्पीड़न के मामले सामने आते हैं। बीना की सबसे छोटी बेटी 12 साल की है, लेकिन वह अभी से परेशान है। बीना ने बताया, “मुझे अभी से पैसे बचाना शुरू करना है ताकि कुछ सालों में बेटी की शादी हो सके। लोग दहेज में 4-5 लाख रुपये मांगते हैं। बिना दहेज के कोई उससे शादी नहीं करेगा। अगर हम दहेज नहीं देते हैं, तो वे उसे मार सकते हैं या तलाक दे सकते हैं।”

बिहार में लैंगिक संवेदनशीलता के पूर्वोक्त अध्ययन में दहेज देने के लिए उधार लेने को एक प्राथमिक कारण के रूप में उल्लेख किया गया था। यह वित्तीय जोखिम, बाढ़ के दौरान आजीविका और खाद्य सुरक्षा के नुकसान के साथ, युवा लड़कियों और अक्सर, उनके माता-पिता के जोखिम को और बढ़ा देता है।

कटिहार जिले की एक युवती चांदनी 18 साल की हैं, लेकिन उसके पिता से पहले ही, तीन अलग-अलग लोग विवाह का प्रस्ताव लेकर संपर्क कर चुके हैं। वह हालांकि अपने परिवार को अपनी शिक्षा जारी रखने की अनुमति देने के लिए राजी करने में सक्षम रही हैं। चांदनी को विवाह का प्रस्ताव लाने वालों पर तस्कर होने का संदेह था। चांदनी ने कहा, “वे हमेशा मेरे पिता के पास जाते थे और यह कहकर उन्हें समझाने की कोशिश करते थे कि ‘तुम्हारी तीन बेटियां हैं। विवाह का प्रस्ताव रखने वाला एक डॉक्टर था। यह कहा गया कि सभी खर्चों का ख्याल रखेगा और दहेज नहीं मांगेगा। विवाह के लिए ऐसे प्रस्ताव रखने वाले हमेशा उत्तर प्रदेश की सीमा (पड़ोसी राज्य) के पास मुजफ्फरपुर जैसे दूर-दराज के स्थानों से होते हैं जो उसके घर कटिहार से लगभग 300 किलोमीटर दूर है।”

कई लोगों के लिए, दहेज की इस तरह की छूट को ठुकराना बहुत अच्छा लग सकता है, लेकिन चांदनी का परिवार आर्थिक दबावों के बीच भी विरोध कर रहा है। बाढ़ इन दबावों को और बढ़ा देती है। चांदनी की मां कहती हैं, “यह एक भीषण बाढ़ वाला क्षेत्र है। इसलिए यहां खुद को बनाए रखना बहुत मुश्किल है। हम लगभग प्रतिवर्ष भूमि के पट्टे के लिए 20,000 रुपये देते हैं और फसलें उगाते हैं। लेकिन इस साल, हमने 1.5 बीघा जमीन में फसल खो दी। हम कमाने के लिए काम करते हैं, लेकिन अगर कमाई नहीं है तो हम क्या कर सकते हैं?”

टेंटों और शिविरों में विस्थापन और उत्पीड़न

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2010 से 2019 के बीच बिहार में बाढ़ के कारण पांच लाख से अधिक घर क्षतिग्रस्त हो गए। इस आपदा ने हेमा और उसकी मां जैसे लोगों को आश्रय स्थलों में जाने या राजमार्गों और रेलवे पटरियों के किनारे अस्थायी शिविर स्थापित करने के लिए मजबूर किया। इन शिविरों में, जहां तंबू बहुत करीब होते हैं, युवतियों और लड़कियों को अक्सर उत्पीड़न और हिंसा का शिकार बनाया जाता है।

बिहार में दलितों और महादलितों के कल्याण के लिए काम करने वाली एक एक्टिविस्ट सुधा वर्गीस कहती हैं, “शिविरों में रहने के कुछ दिनों के भीतर, लोगों को पता चल जाता है कि उनके बगल में कौन रहता है और वह कहां का है।” वर्गीस कहती हैं कि शिविरों में यौन उत्पीड़न और हिंसा के मामले सामने आए हैं, जिसमें युवा लड़कियों और महिलाओं का इसका शिकार बनाया गया।

 The road to a tribal hamlet in Bihar’s Katihar district, submerged in floodwater
2021 में बाढ़ शुरू होने के पांच महीने बाद, बिहार के कटिहार जिले में एक आदिवासी बस्ती की सड़क अभी भी पानी के नीचे है। लगभग हर साल यह बस्ती, जहां संथाल जनजाति के लोग रहते हैं, पूरी तरह से जलमग्न हो जाती है। (फोटो: श्रेया रमन)

बिहार में महिलाओं पर बाढ़ के प्रभाव पर 2016 के एक अध्ययन में भी इसी तरह के उदाहरण मिले। 16 वर्षीया रेखा यादव ने शोध के लेखक को बताया, “हमें छेड़खानी और उत्पीड़न की समस्या का सामना करना पड़ा क्योंकि हमारे माता-पिता ने हमें घर में अकेला छोड़ दिया था और कोई सुरक्षा नहीं थी।”

अधिक शोध और लक्षित नीतियों की आवश्यकता

विश्व स्तर पर, विभिन्न अध्ययनों ने महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा को बढ़ाने में जलवायु परिवर्तन की भूमिका पर प्रकाश डाला है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की 2020 की एक रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे पर्यावरण में गिरावट, लिंग आधारित हिंसा के विभिन्न रूपों जैसे, यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और जबरन वेश्यावृत्ति की स्थिति को बदतर कर सकती है। व्यापक दक्षिण एशिया में, 2010 के एक अध्ययन ने, श्रीलंका में लिंग आधारित हिंसा पर 2004 हिंद महासागर की सुनामी के प्रभाव को देखा, जबकि 2020 में प्रकाशित शोध ने पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र में बाढ़ और हिंसा के बीच इसी तरह के संबंधों का पता लगाया। दोनों अध्ययनों में पाया गया कि इस तरह की घटनाओं के बाद महिलाओं को शारीरिक, भावनात्मक और यौन हिंसा के बढ़ते जोखिम का सामना करना पड़ता है।

इस बीच, भारत में, 2020 के एक अध्ययन ने 2004 की सुनामी और अंतरंग साथी की तरफ से होने वाली हिंसा के बीच के संबंध को देखा, जबकि 2018 के एक पेपर ने दिखाया कि कैसे दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में वर्षा परिवर्तनशीलता और भूजल की कमी के कारण अधिक बोरवेल खोदने की जरूरत होती है, और इसकी लागत की भरपाई के लिए महिलाओं को अपने आभूषणों से हाथ धोना पड़ रहा है।

यूके की यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया में जेंडर एंड डेवलपमेंट की प्रोफेसर और पेपर की लेखकों में से एक, नित्या राव, कहती हैं, “यह महिलाओं से पुरुषों की तरफ शिफ्ट हो रही एक उपयुक्त शक्ति है।”

Ravina Devi, whose husband died in the 2020 floods, stands behind her two daughters
26 वर्षीय रवीना देवी के पति की 2020 की बाढ़ में मृत्यु हो गई थी। तीन बेटियों और एक बेटे की देखभाल करने की जिम्मेदारी उन पर है। वह कहती हैं कि अगर बेटियों के बजाय बेटे होते तो उनकी स्थिति कम अनिश्चित होती। (फोटो: श्रेया रमन)

ये छोटे अध्ययन अप्रत्यक्ष संबंधों को उजागर करते हैं, शोधकर्ताओं का कहना है कि इसके पीछे के प्रत्यक्ष संबंधों को सामने लाना असंभव है क्योंकि कई कारक हिंसा की घटनाओं को प्रभावित करते हैं। अनुसंधान और आंकड़ों की कमी, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी लिंग आधारित हिंसा के लिए ट्रिगर्स की समझ में बाधा बन रही है।

इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी में रिसर्च डायरेक्टर और ऐजंगक्ट एसोसिएट प्रोफेसर अंजल प्रकाश बताते हैं कि अपेक्षाकृत कम शोधकर्ता लैंगिक मुद्दों पर काम करते हैं। वह आंकड़े एकत्र करने की कठिनाइयों पर भी प्रकाश डालते हैं: “इन मुद्दों का पता लगाने के लिए किसी भी शोधकर्ता के लिए लैंगिक आंकड़ों को अलग-अलग करना होगा और इसमें ऐसे संकेतक शामिल होने चाहिए जो सामाजिक असमानता को उजागर करते हैं। ”

अंत में यह असमान शक्ति और शक्ति संबंधों के बारे में है।
नित्या राव, यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया में जेंडर एंड डेवलपमेंट की प्रोफेसर

वहीं, ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में कॉलेज ऑफ सोशल वर्क में एक असिस्टेंट प्रोफेसर और भारतीय सुनामी प्रभाव अध्ययन की लेखक स्मिता राव ने बताया कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की संरचना और कार्यप्रणाली में बदलाव के क्रमिक दौर की वजह से – देश का भारत में स्वास्थ्य, विवाह और घरेलू हिंसा पर आंकड़ों का सबसे व्यापक स्रोत – आंकड़ों की तुलना कठिन हो गई। साथ ही, इस सर्वेक्षण ने राज्य स्तर पर महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर आंकड़े प्रदान किये, जिससे अधिक बारीक स्तरों पर प्रभावों को समझना मुश्किल हो गया।

जलवायु परिवर्तन और आपदाओं पर वर्तमान सरकार की नीतियों में भी लैंगिक दृष्टिकोण का अभाव है। बाढ़ पर हाल ही में जारी संसदीय रिपोर्ट में महिलाओं का उल्लेख नहीं है, जबकि जलवायु परिवर्तन पर 28 कार्य योजनाओं में से 43 फीसदी में लिंग का कोई महत्वपूर्ण उल्लेख नहीं है। यहां तक कि जो नीतियां लिंग को संबोधित करती हैं, वे महिलाओं को एक श्रेणी के रूप में देखती हैं, और यह विश्लेषण करने में विफल रहती हैं कि लिंग, हाशिए के अन्य रूपों के साथ कैसे प्रतिच्छेद करता है। नित्या राव कहती हैं: “भारत के संदर्भ में, जाति (भी) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आखिरकार, यह असमान शक्ति और शक्ति संबंधों के बारे में है।” वह कहती हैं कि जलवायु संबंधी आपदाएं, दुनिया भर में महिलाओं के लिए बड़ी कीमत पर उन संबंधों को और अधिक असमान बना रही हैं।

*पहचान छिपाने के लिए नाम बदल दिए गए हैं

Rइस कहानी की रिपोर्टिंग की आंशिक फंडिंग Tableau and Equal Measures 2030 Data Fellowshipसे है।