चंपावत के जिला अस्पताल को रोजाना अपनी जरूरत के लिए कम से कम 67,500 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। लेकिन उत्तराखंड में पानी की लगातार कमी होती जा रही है। इसके कारण कुमाऊं क्षेत्र के इस अस्पताल को नियमित रूप से उतना पानी नहीं मिल पा रहा है, जितना स्थानीय लोगों को सुरक्षित रूप से स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए आवश्यक है।
चंपावत जिले के एक छोटे से हिमालयी गांव रुइयां के मुखिया भुवन सिंह कहते हैं, “गर्मियों में, अस्पतालों में पानी नहीं होने के कारण हमारे गांव वालों को भर्ती करने से मना कर दिया जाता है।” वह बताते हैं कि प्रचंड गर्मी के महीनों के दौरान, रुइयां की 330 वयस्कों की आबादी में से तीन या चार लोगों को अस्पताल में भर्ती से मना कर दिया जाता है। ऐसा कई बार हुआ है, जब गांव की प्रसव पीड़िता ने घर लौटते समय रास्ते में बच्चे को जन्म दे दिया क्योंकि पानी की कमी के कारण उसे अस्पताल में भर्ती नहीं कराया जा सका।
भुवन सिंह बताते हैं, “हर साल [गर्मियों के दौरान] पास के किसी भी सरकारी स्वास्थ्य केंद्र या यहां तक कि जिला अस्पताल में भी इलाज कराना वास्तव में मुश्किल हो जाता है।”
प्रसव सहित अस्पताल में हर बड़ी सर्जरी के लिए कम से कम 200-300 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। साल के ज्यादातर समय, अस्पताल में पानी की निरंतर आपूर्ति होती है। लेकिन गर्मियों के दौरान, पानी के पाइप सूख जाते हैं, ऐसे में महत्वपूर्ण चिकित्सा प्रक्रियाओं को अंजाम देना खतरनाक हो जाता है।
200-300 लीटर
चंपावत के जिला अस्पताल में प्रसव सहित हर बड़ी सर्जरी के लिए कम से कम 200-300 लीटर पानी की आवश्यकता होती है।
चिकित्सा से संबंधित विभिन्न कामों के लिए पानी बहुत आवश्यक है। हाथ धोने, वार्डों को स्टरलाइज़ करने और सर्जिकल उपकरण, सफाई उपकरण और कपड़े धोने इत्यादि के लिए इसकी आवश्यकता होती है। यदि स्वास्थ्य केंद्र ऐसे बुनियादी स्वच्छता कार्य नहीं कर सकते हैं, तो रोगी की सुरक्षा- विशेष रूप से बच्चे और माता के स्वास्थ्य- के लिए जोखिम है।
चंपावत के जिला अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी हर्ष सिंह एरी ने द् थर्ड पोल के साथ इस बात की पुष्टि की कि पानी की कमी के कारण सर्जरी स्थगित और रद्द हो जाती हैं।
चंपावत में पानी की किल्लत
हर साल की तरह इस साल भी रुइयां गांव के भुवन सिंह को बेहतर बारिश की उम्मीद है। सिंह के ऊपर स्थानीय जल निकाय के स्तर की निगरानी की जिम्मेदारी है। इसके अलावा, उन्हें अधिकारियों को तब सूचना देने की भी जिम्मेदारी है जब अतिरिक्त पानी को टैंकरों के माध्यम से लाने की आवश्यकता होती है। उत्तराखंड में मार्च में ही तापमान काफी बढ़ गया। इसलिए सिंह परेशान हो रहे हैं। 14 अप्रैल तक रुइयां को दो सप्ताह से पाइप से पानी नहीं मिला था।
गर्मियों में, जब मुख्य जलापूर्ति बंद हो जाती है, तब गांव की महिलाएं स्थानीय तालाब से घर के लिए पानी लाती हैं। वहीं, उत्तराखंड के ग्रामीण अपने स्थानीय जल स्रोत के सूख जाने पर पैदल चलकर झरनों से पानी लाते हैं। लेकिन अस्पताल गर्मियों के दौरान राज्य जल निकाय से मिलने वाले वाटर टैंकरों पर निर्भर रहते हैं।
एरी की चिंता यह है कि इस साल की शुरुआती लू से स्पष्ट है कि यह मौसम बहुत कठिन होने वाला है। उन्होंने द् थर्ड पोल को बताया कि उन्हें उम्मीद थी कि अप्रैल के तीसरे सप्ताह तक अस्पताल को नियमित जलापूर्ति के लिए जिला जल विभाग पर निर्भर रहना होगा। वह कहते हैं, “हमारे पास समर्पित प्रशासनिक कर्मचारी हैं जो जल विभाग के अधिकारियों के साथ लगातार बातचीत करते रहेंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि पानी की आपूर्ति निर्बाध हो। लेकिन जल विभाग एक सीमा तक ही ऐसा कर सकता है क्योंकि अधिकांश प्राकृतिक झरने सूख रहे हैं।”
चंपावत जिले में 300,000 से अधिक लोग इस अस्पताल पर निर्भर हैं; यहां रोजाना 250-300 लोग आते हैं।
इस साल, इन हालातों से निपटने के संभावित उपायों पर, एरी पहले ही जिलाधिकारी से चर्चा कर चुके हैं। वह जिला अस्पताल से लगभग 30 किलोमीटर दूर कोइराला घाटी में एक नए जल स्रोत से पानी निकालने की संभावना पर बात करते हैं। इसका ट्रायल 20 अप्रैल से शुरू होने वाला था (हालांकि इंजीनियर्स द् थर्ड पोल से इस बात की पुष्टि करने में असमर्थ थे कि क्या यह परियोजना समय पर शुरू हो सकेगी)। इससे सीधे पाइप के जरिए अस्पताल में पानी नहीं पहुंचाया जा सकेगा, लेकिन सबसे शुष्क महीनों के दौरान पानी के दूसरे स्रोतों की तरह यह मददगार साबित हो सकता है।
उत्तराखंड जल विभाग के एक इंजीनियर परमानंद पुनेठा कहते हैं, “हर साल जलाशय सूख रहे हैं। चंपावत, लोहाघाट और पाटी के तीन प्रमुख अस्पतालों में नियमित रूप से निरंतर जल आपूर्ति बनाए रखना बहुत मुश्किल हो जाता है। हम अपना सर्वश्रेष्ठ करते हैं लेकिन कुछ चीजें हमारे नियंत्रण में नहीं होती हैं; कभी-कभी भूस्खलन या निर्माण कार्यों के कारण काफी देरी हो जाती है और पानी अस्पतालों तक नहीं पहुंच पाता है।”
हर दिन, 3,500 लीटर पानी ले जाने वाला एक टैंकर तीन अस्पतालों के बीच यात्रा करता है। यह प्रत्येक स्टॉप के बाद पानी भरता है। 18 अप्रैल से शुरू सप्ताह से पुनेठा, स्थिति की बारीकी से निगरानी कर रहे। वह यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि जब तक जुलाई में बारिश शुरू न हो जाए तब तक इन तीन महीनों तक उनके विभाग में कोई भी छुट्टी न ले।
अस्पतालों को पानी की निरंतर आपूर्ति की आवश्यकता
भारतीय मानक ब्यूरो, वह प्राधिकरण है, जो देश में सभी उत्पादों के लिए मानक निर्धारित करता है। इसके निर्धारण के अनुसार 100 से अधिक बिस्तरों वाले अस्पतालों में प्रतिदिन 450 लीटर पानी तक की आपूर्ति 24 घंटे होनी चाहिए। इसमें एयर कंडीशनिंग और अग्निशमन के लिए आवश्यक पानी शामिल नहीं है।
47 लीटर
वर्ष के सबसे शुष्क मौसम के दौरान अधिकांश दिनों में चंपावत जिला अस्पताल को प्रति बिस्तर 47 लीटर प्रतिदिन पानी की औसत मात्रा प्राप्त होती है। सरकार के दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि यह प्रतिदिन 450 लीटर प्रति बिस्तर होना चाहिए।
ऐरी कहते हैं कि चंपावत जिला अस्पताल में 150 बिस्तर हैं और काम करने के लिए कम से कम तीन टैंकर (10,500 लीटर) पानी की जरूरत होती है। इसका मतलब है कि औसत आवंटन प्रतिदिन प्रति बिस्तर 50 लीटर से कम है।
एरी द् थर्ड पोल को बताते हैं कि गर्मियों के दौरान अस्पताल को आवश्यक मात्रा की तुलना में केवल आधा पानी ही मिलता है। सबसे शुष्क दिनों में इसे केवल दो टैंकर (7,000 लीटर) मिलते हैं और कभी-कभी सिर्फ एक ही मिलता है।
वह बताते हैं, “जब हम चार टैंक ऑर्डर करते हैं, तो हमें केवल दो मिलते हैं और हम इस जिले के मुख्य अस्पताल हैं। इसलिए मैं कल्पना कर सकता हूं कि प्राथमिक [या सामुदायिक] स्वास्थ्य केंद्र और भी कठिन परिस्थितियों का सामना करते हैं।” एरी कहते हैं स्थिति “गंभीर” हो जाती है क्योंकि लगातार पानी की आपूर्ति के बिना, अस्पताल पहले से निर्धारित सर्जरी को नहीं कर सकता है।
जब हम चार टैंकर ऑर्डर करते हैं, तो हमें केवल दो मिलते हैं। हम इस जिले के मुख्य अस्पताल हैं।– चम्पावत के जिला अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी हर्ष सिंह एरी
डेवलपमेंट कंसल्टेंसी, ऑक्सफोर्ड पॉलिसी मैनेजमेंट में हेल्थ पॉलिसी एक्सपर्ट एंड सिस्टम्स लीड राकेश पाराशर कहते हैं, “एक निजी अस्पताल में किसी रोगी के प्रति बिस्तर पर प्रतिदिन 200-300 लीटर पानी उपयोग होता है। लेकिन अधिकांश सरकारी अस्पताल कभी-कभी कम रखरखाव और प्रति वर्ग मीटर अधिक रोगियों के कारण [साथ] 100-150 लीटर/दिन/बिस्तर का प्रबंधन करते हैं। लेकिन फिर भी ऑपरेशन थियेटर और डिलीवरी वार्ड के जरूरत की पानी की कटौती नहीं कर सकते।
पाराशर ने कहा कि कुछ अस्पताल बार-बार हाथ धोने की आवश्यकता को कम करने के लिए पानी के बजाय अल्कोहल सैनिटाइजर का उपयोग करते हैं, लेकिन इसका नाममात्र प्रभाव पड़ता है। उन्होंने कहा कि चूंकि पानी का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि अस्पतालों में जल-संचयन और संरक्षण प्रणालियां हों।
पुनेठा का कहना है कि राज्य के जल विभाग का जिला जल निकाय अस्पताल की समस्या से अवगत है और सीजन की तैयारी के लिए किराए पर टैंकर देने वालों के साथ अनुबंध पर हस्ताक्षर करके पहले से ही कमर कस रहा है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए पानी की कमी एक व्यापक समस्या
कम से कम 20 वर्षों से, उत्तराखंड ने पानी की कमी का अनुभव किया है। हाल के वर्षों में समस्या विकराल हो गई है। 2009 और 2018 के बीच, अध्ययनों से पता चलता है कि देहरादून, ऊधम सिंह नगर, हरिद्वार, नैनीताल और चंपावत जिलों में लगभग 70 फीसदी कुओं में जल स्तर गिर गया है। चंपावत में भूजल स्तर में सबसे तेज गिरावट आई है।
उत्तराखंड स्थित ग्रामीण विकास संगठन चिराग के संस्थापक और प्रमुख बद्रीश सिंह मेहरा ने द् थर्ड पोल को बताया कि अल्मोड़ा जिले के 300 प्राकृतिक झरनों में से, जो चंपावत की सीमा में है, वर्तमान में केवल 36 ही चालू हैं।
द् थर्ड पोल ने राज्य के स्वास्थ्य विभाग से स्वास्थ्य देखभाल के प्रावधान पर पानी की कमी के प्रभाव के बारे में पूछा, लेकिन बताया गया कि आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
उत्तराखंड में राज्य स्वास्थ्य सेवा की महानिदेशक तृप्ति बहुगुणा ने कहा कि कुमाऊं क्षेत्र (जिसमें चंपावत जिला शामिल है) और पौड़ी गढ़वाल जिले में स्वास्थ्य सेवाएं सबसे अधिक प्रभावित है। उन्होंने यह भी कहा, “हम इन क्षेत्रों में जल विभागों के साथ नियमित समन्वय सुनिश्चित करते हैं।”
बहुगुणा का कहना है, “हिमालय में पानी की कमी हमारे नियंत्रण से परे कारणों से होती है, जैसे भूस्खलन। लेकिन हम यह सुनिश्चित करते हैं कि स्वास्थ्य सेवाएं बिना किसी रुकावट के चलती रहें। मुझे उप-केंद्रों में पानी की कमी के बारे में पता है जहां उपचार बाधित हो जाता है, जिला स्तर पर इसी तरह के मुद्दे कम हैं। वह यह भी कहती हैं, “ज्यादातर अस्पताल पानी खरीदते हैं”।
उत्तराखंड में पानी की इतनी कमी क्यों है?
जलवायु परिवर्तन पर उत्तराखंड सरकार की कार्य योजना बताती है कि राज्य, पहले से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से किस तरह जूझ रहा है। इनमें घटते ग्लेशियर और बढ़ती हिम रेखाएं, अनिश्चित वर्षा और बारहमासी धाराओं का सूखना इत्यादि शामिल हैं। चिराग के मेहरा का कहना है कि पिछली सदी में इस क्षेत्र में बारिश में 12-17 फीसदी की गिरावट आई है।
सबसे गंभीर बात यह है कि राज्य भर में लगातार निर्माण कार्यों के कारण जलदायी स्तर बाधित हुए हैं। इसके अलावा ऐसी प्रक्रियाएं भी बाधित हुई हैं जो स्वाभाविक रूप से पानी का भंडारण करते हैं और छोड़ते हैं। इन सबसे पानी की कमी बढ़ जाती है।
मेहरा कहते हैं, “वनों की कटाई, निर्माण कार्य और जंगल की आग एक साथ [जमीन] की सतह को सख्त कर देते हैं जिससे शून्य रिसाव होता है और संसाधनों का पुनर्भरण नहीं होता है। इसका परिणाम यह है कि अधिकांश प्रमुख झरने अब सूख गए हैं, या उन पर निर्माण हो गया है, जिससे गांव की महिलाओं के पानी लाने के लिए यात्रा का समय बढ़ गया है। इससे उनका स्वास्थ्य और भी अधिक प्रभावित हो रहा है।”