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मॉनसूनी बारिश बढ़ने के कारण बढ़ सकता है कश्मीर में बाढ़ का खतरा

शोधकर्ताओं का कहना है कि शहरीकरण से कश्मीर घाटी में मॉनसूनी बारिश में इजाफा हो रहा है और खराब नगर नियोजन की वजह से भयावह बाढ़ की आशंका बढ़ रही है।
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<p><span style="font-weight: 400;">जम्मू में मॉनसून की बारिश, जुलाई 2019। हाल के शोध से पता चलता है कि कश्मीर में बारिश के पैटर्न में बदलाव &#8220;क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ सकता है&#8221;। (फोटो: अलामी)</span></p>

जम्मू में मॉनसून की बारिश, जुलाई 2019। हाल के शोध से पता चलता है कि कश्मीर में बारिश के पैटर्न में बदलाव “क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ सकता है”। (फोटो: अलामी)

सितंबर 2014 में कश्मीर घाटी को विनाशकारी बाढ़ का सामना करना पड़ा। असामान्य रूप से उच्च स्तर की वर्षा के बाद आई भयानक बाढ़ के कारण भारी तबाही हुई। इस आपदा के चलते घाटी में 190 से अधिक लोगों की मौत हुई। अनुमान है कि इससे 1 ट्रिलियन रुपये का नुकसान हुआ।

कश्मीर में, ऐतिहासिक रूप से, दक्षिण एशियाई मॉनसून के मौसम (आमतौर पर जून से सितंबर) के दौरान वर्षा का स्तर निम्न रहा है। लेकिन हाल के शोध से पता चलता है कि यह स्थिति बदल सकती है और अगर सरकार की तरफ से बेहतर योजना और तैयारी नहीं होती है तो भयावह बाढ़ के हालात पैदा हो सकते हैं। 

घाटी में दस्तक देता मॉनसून

हाल ही में एक शोध ने 1980 से 2017 तक कश्मीर घाटी में 30 सालों के बारिश के आंकड़ों का विश्लेषण किया।

कश्मीर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और पेपर के पांच लेखकों में से एक, मोहम्मद मुस्लिम ने कहा, “हमने भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून में बढ़ी हुई गतिविधि देखी।” उनके शोध में पाया गया कि 1980-1990 और 2010-2017 के बीच ग्रीष्मकालीन मॉनसून से कश्मीर घाटी में समग्र वर्षा का योगदान लगभग 10 फीसदी बढ़ गया।

अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट क्या है?

एक ही जलवायु में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में, शहरों और शहरी क्षेत्रों में आमतौर पर बहुत ज्यादा कंक्रीट और अन्य सतहें होती हैं, जो गर्मी को सोख लेती हैं।

इसके अलावा छाया प्रदान करने और हवा को ठंडा करने के लिए जरूरी वनस्पतियां, ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरी क्षेत्रों में कम होती हैं।

इन कारणों से होने वाले उच्च तापमान को ‘अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट’ के रूप में जाना जाता है।

शोध से पता चलता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में बारिश लाने वाली भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसूनी हवाएं अब तेजी से घाटी में अपना रास्ता बना रही हैं। ये हवाएं पहले घाटी की दक्षिणी सीमा पर रुक जाया करती थी। मोहम्मद मुस्लिम बताते हैं, “हमारी समझ यह है कि यह कश्मीर के भीतर के कुछ कारणों की वजह से हो रहा है।” उन्होंने आगे बताया, “कश्मीर क्षेत्र में भूमि उपयोग में एक बड़ा बदलाव आया है। श्रीनगर शहर में हमारे पास कृषि और बागवानी की जमीन भी हुआ करती थी। अब यह सब खत्म होता जा रहा है। यहां अब निर्माण हो चुका है और इसकी वजह से अब यहां हीट आइलैंड इफेक्ट को देखा जा सकता है।” वह समझाते हैं कि उच्च तापमान का मतलब है कम दबाव विकसित होना, जो भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसूनी हवाओं को घाटी की ओर खींचती है। 

जलवायु परिवर्तन पर शोध करने वाले मोहम्मद मुस्लिम वर्षा के पैटर्न में बदलाव के बारे में चिंतित हैं क्योंकि गर्मियों के महीनों में अधिक वर्षा का मतलब है हिमालयी घाटी में नदियों में अतिरिक्त पानी होना। ये नदियां इस दौरान पहले से ही ग्लेशियर और पिघलती हुई बर्फ से बड़ी मात्रा में पानी ले जा रही हैं। 

वह कहते हैं, “अगर [गर्मियों और शरद ऋतु में बारिश] बहुत अधिक है, तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते है, जैसे बाढ़ और फसलों को नष्ट होना। हम सितंबर 2014 में शरद ऋतु में बारिश के परिणाम पहले ही देख चुके हैं।”

शहरीकरण और वेटलैंड के विनाश से बाढ़ का खतरा

अधिक मॉनसूनी बारिश का संभावित प्रभाव घाटी के शहरी क्षेत्रों में काफी बुरा हो सकता है क्योंकि इस क्षेत्र की प्राकृतिक जल निकासी और बाढ़ से बचाव वाली प्रणालियों पर भारी अतिक्रमण और निर्माण कार्य किये गए हैं।

कश्मीर विश्वविद्यालय से भू-सूचना विज्ञान में पीएचडी करने वाली शेख अनीस घाटी में वेटलैंड यानी आर्द्रभूमि की स्थिति पर नजर रख रही हैं। एक शोध, जिसमें वह सह-लेखिका हैं, में उन्होंने बताया कि श्रीनगर में शेष शहरी आर्द्रभूमियों में से एक, नरकारा आर्द्रभूमि के 37 फीसदी हिस्से पर निर्माण हो चुका है। इस शोध ने 1965 और 2016 के बीच निर्मित क्षेत्र में 2,663 फीसदी की वृद्धि दर्ज की।

Kashmir Wetlands
कश्मीर के श्रीनगर और उसके आसपास की आर्द्रभूमियों को दर्शाने वाला नक्शा। ग्राफिक: द् थर्ड पोल

कश्मीर घाटी की वेटलैंड का नेटवर्क एक प्राकृतिक बाढ़ रोकथाम प्रणाली के रूप में कार्य कर सकता है क्योंकि अपनी प्राकृतिक अवस्था में वेटलैंड अतिरिक्त पानी को सोख सकता है। और अगर एक में पानी बढ़ता है तो उससे जुड़े जल निकायों में बाकी का पानी बहने लगता है। इससे बाढ़ से बचने में मदद मिलती है। 

शेख अनीस कहती हैं, “नरकारा में लापरवाह तरीके से हुआ शहरीकरण इस महत्वपूर्ण अर्ध-शहरी आर्द्रभूमि की हाइड्रोलॉजिकल कनेक्टिविटी और ईकॉलजी को प्रभावित करता है जो इस हिमालयी वेटलैंड के जलग्रहण क्षेत्र में बाढ़ के प्रति लोगों के जोखिम को बढ़ाता है।” 

श्रीनगर में एक और आर्द्रभूमि, खुशाल सर, इसी तरह से प्रभावित हुआ है, जिसके अधिकांश क्षेत्र में अब निर्माण हो चुका है। अनीस ने कहा, “मार कनैल को भड़वाना [जो खुशाल सर में बहती है] और शहरीकरण ने न केवल इस आर्द्रभूमि की जल धारण क्षमता को कम किया है बल्कि अन्य पड़ोसी जल निकायों के साथ हाइड्रोलॉजिकल कनेक्टिविटी को भी प्रभावित किया है। इससे आर्द्रभूमि की प्राकृतिक स्थिति गंभीर रूप से प्रभावित हुई है।” 

वह बताती हैं कि सितंबर 2014 की बाढ़ में वेटलैंड्स के आसपास के क्षेत्र गंभीर रूप से जलमग्न हो गए थे।

वो कहती हैं, “कश्मीर में किसी भी आर्द्रभूमि, चाहे वह संरक्षित है या नहीं, में कुछ न कुछ अतिक्रमण है। या तो आसपास के क्षेत्रों में या फिर जल निकासी वाले क्षेत्रों में घर बन गए हैं।”

होकरसर एक अंतरराष्ट्रीय महत्व वाली वेटलैंड है जो प्रवासी पक्षियों के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। वहां बाढ़ चैनल की वजह से समस्याएं आ रही है। इस चैनल को बाढ़ की स्थिति में शहर से अतिरिक्त पानी निकालने के इरादे से बनाया गया था लेकिन इसका नियोजन खराब था। इस चैनल की वजह से इलाके में इतना खीचड़ और मिट्टी आने लगा कि वेटलैंड भी इसे नहीं संभाल पाया।  

क्षेत्र के वाइल्डलाइफ वार्डन राशिद नकाश के अनुसार, “होकरसर आर्द्रभूमि का 60 फीसदी अभी भारी कीचड़ के अधीन है।” वह बताते हैं कि श्रीनगर सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण विभाग, ड्रेजर्स का उपयोग करके क्षेत्र से गाद को साफ करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन यह एक नियोजित समाधान नहीं है, बल्कि यह केवल एक समस्या का प्रबंधन है जो फिर से परेशानी लाएगी।

कश्मीर के शहरीकरण में नियोजन का अभाव

आवास एवं शहरी विकास विभाग के क्षेत्रीय नगर योजनाकार, रमजान अहमद डार, जो इस क्षेत्र के अधिकांश शहरी क्षेत्रों की योजना बनाने में शामिल रहे हैं,  बेतरतीब शहरीकरण के लिए वैज्ञानिक आंकड़ों की कमी को जिम्मेदार ठहराते हैं, जो अब कश्मीर और इसके बाढ़ बचाव के लिए परेशानी का कारण बन गया है। वह कहते हैं, “हम इसके साथ जुड़े जोखिमों के बारे में नहीं जानते हैं, इसलिए हम बस इस तरह की योजना बनाते हैं।” 

डार द् थर्ड पोल से कहते हैं, “हमें इलाकों के संवेदनशीलता और खतरे के नक्शे बनाने की आवश्यकता है, ताकि हम उन इनपुट का उपयोग अपने मास्टर प्लान में कर सकें। हमारी भूमि उपयोग नीति को जोखिमों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाना चाहिए था, लेकिन यह हमारे पास उपलब्ध नहीं है … हम शायद ही कभी जोखिम वाले कारकों पर ध्यान देते हैं।” 

उन्होंने यह भी कहा कि शहरी योजनाकारों को कश्मीर में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि यह उच्च भूकंपीय गतिविधि के क्षेत्र में है और भूस्खलन की आशंका वाला क्षेत्र भी है। उन्होंने वर्तमान शहरी नियोजन को “आने वाले समय में एक पर्यावरणीय आपदा” के रूप में वर्णित किया।

: A patch of wetland left amidst a housing development in
श्रीनगर में मकानों को बनाने के बीच छूट गया आर्द्रभूमि का एक टुकड़ा। (फोटो: फुरकान लतीफ़ खान)

शहरी मास्टर प्लान में कोई तालमेल नहीं

डार कहते हैं कि नगर नियोजन में शामिल कई विभाग एक समन्वित योजना में कम रुचि दिखाते हैं, जिससे अंधाधुंध भवन निर्माण की अनुमति जारी रहती है। वह बताते हैं, “[शहरी] मास्टर प्लान, सरकार का एक समन्वित क्षेत्रीय दृष्टिकोण है। हम विभिन्न विभागों के बीच समन्वय और जुड़ाव की कोशिश करते हैं। दुर्भाग्य से, जब हम इन दस्तावेजों को तैयार करते हैं, तो विभाग अपनी रुचि नहीं दिखाते हैं, [और] जब दस्तावेज बन जाता है, तो यह कई खामियों के साथ खत्म होता है।” 

इनमें आवास कॉलोनियों के लिए कितनी भूमि की आवश्यकता होगी, और क्षेत्रों (जैसे महत्वपूर्ण आर्द्रभूमि) के स्पष्ट सीमांकन की कमी के बारे में अपर्याप्त आंकड़े शामिल हैं, जिन पर निर्माण नहीं किया जाना चाहिए।

डार कहते हैं कि श्रीनगर और अन्य शहरों के लिए 1970 के बाद से बनाए गए सभी मास्टर प्लान के लिए यह सच है।

“हम शायद ही कभी जोखिम वाले कारकों पर ध्यान देते हैं”
– रमजान अहमद डार, आवास एवं शहरी विकास विभाग के क्षेत्रीय नगर योजनाकार

शेख अनीस, शहरी योजनाओं से गायब पक्षों के बारे में बात करती हैं। वह कहती हैं, “पर्यावरण प्रभाव आकलन की कमी एक विसंगति है जो हर मास्टर प्लान में मौजूद है। आप हाउसिंग कॉलोनियां बनाने के लिए योजनाकारों को अंतहीन जमीनें नहीं दे सकते। उन्हें कुछ नियमों का पालन करना होता है। लेकिन वे वैज्ञानिक कारण नहीं सुनते।”

Fires set in a patch of wetland beside a housing development in Srinagar, to get rid of waste
श्रीनगर में एक रिहाइशी इलाके के बगल में आर्द्रभूमि के एक हिस्से में आग लगा दी गई है जिससे आसपास के घरों द्वारा आर्द्रभूमि में डाले किए गए कचरे से छुटकारा पाया जा सके। (फोटो: फुरकान लतीफ़ खान )

मोहम्मद मुस्लिम का नवीनतम शोध यह कहते हुए समाप्त होता है कि कश्मीर में वर्षा के पैटर्न में बदलाव “क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ सकता है”। लेकिन वह चिंतित हैं कि नीति निर्माता इन घटनाओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे रहे हैं। 

वह कहते हैं, “हमने जलवायु परिवर्तन कार्य समूह की स्थापना करके [हमारे शोध और नीति] के बीच की खाई को पाटने की कोशिश की। हमने शिक्षा जगत से, नौकरशाही से [एक साथ] लोगों को लाने की कोशिश की। दुर्भाग्य से अभी भी एक गैप है। नीति निर्माताओं को इस पर ध्यान देने की जरूरत है।”