जलवायु परिवर्तन की वजह से दुनिया गर्म हो रही है। इसकी वजह से लाखों लोगों की ज़िंदगी और आजीविका पर खतरा है, ऐसे में बदलती जलवायु और इसके परिणामों के बारे में चर्चा को आसान करना ज़रूरी है।
लेकिन अक्सर जलवायु परिवर्तन के इर्द-गिर्द होने वाली चर्चाएं, शब्दजाल और तकनीकी शब्दावली के कारण बोझिल हो जाती हैं। इसकी वजह से, ये चर्चा, जिसका हमारी ज़िंदगी पर सीधा प्रभाव है, उस चर्चा में उन लोगों को शामिल नहीं कर पाता जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से सबसे ज़्यादा परेशान हैं।
इस बात पर ध्यान देना भी ज़रूरी है कि हम चर्चा आसान करने के लिए सटीक तथ्यों और वैज्ञानिक गंभीरता को पीछे ना छोड़ दें। इन दोनों को साथ लेकर चलना होगा।
जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुख्य अवधारणा की ठोस समझ की मदद से लोग ये भी समझ पाएंगे कि हमारे पर्यावरण के साथ क्या हो रहा है। इससे वे गंभीरता से यह सोच सकेंगे कि सरकारें और शक्तिशाली लोग इस पर किस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं।
इसलिए द् थर्ड पोल ने यह जलवायु परिवर्तन शब्दावली तैयार की है। यह जलवायु चर्चा में प्रमुख शब्दों की एक गाइड है। हमें उम्मीद है कि इससे जलवायु परिवर्तन की समझ गहरी हो सकेगी। साथ ही, इससे सर्वाधिक प्रभावित लोगों को इस चर्चा में, अपनी आवाज़ शामिल करने का रास्ता मिलेगा।
यह गाइड अंग्रेजी, हिंदी, नेपाली, उर्दू और बंगाली में उपलब्ध है। नई शब्दावली आने पर इस क्लाइमेट चेंज ग्लॉसरी को नियमित रूप से अपडेट किया जाता रहेगा।
अ, आ, इ, उ, ऊ, ओ, औ, क, ग, ज, ट, ड, द, न, प, फ, ब, भ, म, र, ल, श, स, ह
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1.5 डिग्री सेल्सियस और 2 डिग्री सेल्सियस
मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के कारण साल 2022 में औसत वैश्विक तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले की तुलना में 1.15 डिग्री सेल्सियस अधिक था। जैसे-जैसे तापमान इस स्तर से ऊपर बढ़ता है, लोगों, वन्यजीवों और इकोसिस्टम के लिए खतरा बढ़ता जाता है। इसके कारण कई प्रभाव सामने आते हैं: लगातार अधिक और तीव्र लू, बाढ़ और सूखा, बाधित वर्षा पैटर्न और समुद्र का बढ़ता स्तर।
ऐसे हालात को क़ाबू में करने के लिए, दुनिया भर की सरकारों ने साल 2015 में पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किया और वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए ‘प्रयास जारी रखने’ का संकल्प लिया।
1.5 डिग्री सेल्सियस और 2 डिग्री सेल्सियस के बीच का अंतर समझना ज़रूरी है। 2 डिग्री सेल्सियस तापमान वाली दुनिया जलवायु परिवर्तन से कहीं अधिक हानिकारक और अपरिवर्तनीय प्रभावों का अनुभव करेगी। कई खतरनाक जलवायु टिपिंग पॉइंट पार हो सकते हैं।
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखना है तो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन साल 2025 तक अपने चरम पर होना होगा और साल 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन को 43% तक कम करना होगा।
संकल्पों के बावजूद, दुनिया इसे हासिल करने की राह पर नहीं है। मार्च 2023 में जारी आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार, अगर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम भी हो गया तो इस सदी में तापमान के 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने की आशंका है।
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अनुकूलन / एडेप्टेशन
पर्यावरण, समाज, सार्वजनिक स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर वैश्विक तापमान के हानिकारक प्रभावों को कम करने के लिए लोग और सरकारें जो कदम उठाती हैं, उन्हें ‘जलवायु परिवर्तन अनुकूलन’ कहा जाता है। अनुकूलन के लिए उठाए गए कदम परिस्थिति के अनुसार ढलने में मदद करते हैं।
इन प्रभावों के सार्थक अनुकूलन के लिए सभी देश, क्षेत्र और समुदाय को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग तरह के समाधान की ज़रूरत होती है।
दक्षिण एशिया में अनुकूलन उपायों के कुछ उदाहरण: सूखा प्रतिरोधी फसलों की नई किस्मों का विकास और उत्पादन करना; तटीय शहरों या नदी क्षेत्र के समुदायों की सुरक्षा के लिए बेहतर बाढ़ सुरक्षा व्यवस्था तैयार करना; जलवायु परिवर्तन से संबंधित आपदाओं के लिए अर्ली वार्निंग सिस्टम में सुधार करना; और मैंग्रोव जैसे प्राकृतिक इकोसिस्टम को बहाल करना, जो चरम मौसमी घटनाओं के खिलाफ बफ़र के रूप में काम कर सकता है।
जलवायु अनुकूलन पर अधिक जानकारी के लिए यहां पढ़ें।
अर्बन हीट आइलैंड इफ़ेक्ट / शहरी ताप द्वीप प्रभाव
अर्बन हीट आइलैंड इफ़ेक्ट यानी शहरी ताप द्वीप प्रभाव एक ऐसी घटना है जिसमें शहरी क्षेत्रों में तापमान आसपास के क्षेत्र की तुलना में काफ़ी अधिक होता है। इसके कारण हैं: कंक्रीट जैसी आर्टिफिशियल सतहें और गर्मी को सोखने वाली सड़कें, ईंधन जलाने और अन्य मानवीय प्रक्रियाओं के दौरान उत्पन्न गर्मी और वनस्पति का अभाव।
अर्बन हीट आइलैंड इफ़ेक्ट शहरी क्षेत्रों में लू की गंभीरता को बढ़ा सकता है।
अल नीनो
अल नीनो एक जलवायु पैटर्न है। इसमें पूर्व-मध्य ट्रॉपिकल प्रशांत महासागर का सतही पानी औसत से काफ़ी ज़्यादा गर्म हो जाता है। यह दुनिया भर में बारिश के पैटर्न और मौसम को प्रभावित करता है। इससे इसकी अवधि के दौरान वैश्विक स्तर पर तापमान बढ़ जाता है। अल नीनो, अल नीनो-सदर्न ओशिलेशन (ईएनएसओ) नामक घटना का हिस्सा है। इसके विपरीत ठंडे चरण को ला नीना कहा जाता है। अल नीनो घटनाएं नियमित अंतराल पर नहीं होती हैं। ये औसतन हर दो से सात साल में अल नीनो की घटनाएं होती हैं।
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आकस्मिक बाढ़ / फ्लैश फ्लड
आकस्मिक बाढ़ तीव्र और अचानक आने वाली बाढ़ है, जो कम समय में भारी बारिश या बर्फ़ या हिमखंडों के तेज़ी से पिघलने जैसी घटनाओं से उत्पन्न होती है। अचानक आने वाली बाढ़ से गंभीर क्षति हो सकती है, क्योंकि यह बहुत कम चेतावनी या बिना किसी चेतावनी के हो सकती है, जिससे लोग उस इलाके को खाली करने या ज़रूरी सावधानी बरतने में असमर्थ हो जाते हैं।
भारतीय हिमालय क्षेत्र में 1986 के बाद से 17 बड़ी आकस्मिक बाढ़ें आई हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले 20 वर्षों में हिमालय में अचानक बाढ़ में बढ़ोतरी का एक प्रमुख कारण अधिक तेज़ी से जंगल की आग लगने की घटना है।
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इकोसिस्टम / पारिस्थितिकी तंत्र
इकोसिस्टम जीवित जीवों का एक जैविक समुदाय है, जिसमें जानवर, पौधे और सूक्ष्म जीव के साथ-साथ पानी और मिट्टी जैसे भौतिक वातावरण भी शामिल है। इस वातावरण में वे एक-दूसरे के साथ संपर्क में रहते है। इकोसिस्टम पूरे जंगल की तरह विशाल हो सकते हैं और कई छोटे इकोसिस्टम को अपने अंदर शामिल कर सकते हैं।
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी)
आईपीसीसी यानी जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा 1988 में बनाई गई एक वैज्ञानिक संस्था है। इसका लक्ष्य सरकारों को नए और हाल ही में आए जलवायु विज्ञान के बारे में सूचित करना है और यह बताना है कि आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन का दुनिया पर क्या असर पड़ने की संभावना है।
फ़िलहाल, आईपीसीसी में 195 सदस्य देश हैं और यह दुनिया भर से वैज्ञानिकों को एक साथ लाता है जो स्वेच्छा से इसके काम में योगदान देते हैं। आईपीसीसी कोई ख़ुद की रिसर्च प्रस्तुत नहीं करता है। इसके बजाय, इससे जुड़े सैकड़ों वैज्ञानिक उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य की जांच करते हैं और इसे एक मूल्यांकन रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इसमें इस पर व्याख्या होती है कि जलवायु परिवर्तन कैसे हो रहा है, धरातल पर इसके परिणाम क्या हो सकते हैं और कैसे शमन (जलवायु परिवर्तन को सीमित करना) और अनुकूलन, लोगों को सबसे बुरे प्रभावों से बचाने में मदद कर सकते हैं।
आईपीसीसी के बारे में अधिक जानकारी के लिए हमारा विश्लेषण पढ़ें।
उ
उत्सर्जन / एमिशंज़
उत्सर्जन का मतलब उन गैसों और अन्य पदार्थों से है जो मैन्यूफ़ैक्चरिंग, ऊर्जा उत्पादन और परिवहन जैसी मानवीय गतिविधियों की वजह से वायुमंडल में छोड़े जाते हैं। 1800 के दशक से मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण ग्लोबल वार्मिंग हुई है।
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ऊर्जा संक्रमण / एनर्जी ट्रांज़िशन
पारंपरिक रूप से ऊर्जा क्षेत्र जीवाश्म ईंधन पर बहुत अधिक निर्भर रहा है और यही जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण है। कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस से, सौर और पवन जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर बदलाव को ऊर्जा संक्रमण कहा जाता है। सौर और पवन जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से कार्बन उत्सर्जन नहीं होता है।
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ओज़ोन परत
ओज़ोन एक गैस मॉलिक्यूल है जो तीन ऑक्सीजन एटम से बना है। ओज़ोन परत पृथ्वी के समताप मंडल यानी स्ट्रैटोस्फेर का एक हिस्सा है, जहां वायुमंडल में 90% ओज़ोन पाया जाता है। यह ओज़ोन परत पृथ्वी पर जीवन के लिए ज़रूरी है क्योंकि यह सूर्य की कुछ हानिकारक अल्ट्रावायलेट रेडिएशन को सोख लेती है।
1970 के दशक में रिसर्च में पाया गया कि ओज़ोन परत खत्म हो रही थी, जिससे पृथ्वी पर जीवन के लिए संभावित गंभीर खतरे थे। सीएफसी और एचसीएफसी सहित ओज़ोन परत की कमी के लिए ज़िम्मेदार गैसों को वैश्विक पर्यावरण समझौते मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जा रहा है। इन रसायनों के उपयोग को सीमित करने में इस समझौते की सफलता के कारण ओज़ोन परत अब ठीक होने की राह पर है।
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औद्योगिक क्रांति / इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन
18वीं सदी की शुरुआत में, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में औद्योगिक क्रांति एक महत्वपूर्ण समय रहा। पहले अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर थी। फिर अर्थव्यवस्था में बदलाव आया और उसमें तकनीकी प्रगति और औद्योगिक विनिर्माण की विशेषता बढ़ गई।
इन नई प्रक्रियाओं में उपयोग की जाने वाली ज़्यादातर ऊर्जा जीवाश्म ईंधन का उपयोग करके उत्पन्न की गई थी: शुरू में कोयला, और फिर तेल और गैस। इससे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बहुत बढ़ गया, जो मानव-जनित जलवायु परिवर्तन की शुरुआत का प्रतीक है।
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कार्बन कैप्चर और स्टोरेज के साथ जैव ऊर्जा
जब जैव ऊर्जा के उत्पादन के दौरान उत्पन्न कार्बन को नियंत्रित और संग्रहीत किया जाता है जिससे वो वायुमंडल में प्रवेश नहीं करता, उसे कार्बन कैप्चर और स्टोरेज के साथ जैव ऊर्जा (बीईसीसीएस) कहा जाता है।
इसका मतलब यह है कि ये ऊर्जा एक नकारात्मक फुटप्रिंट के साथ उत्पन्न होती है। इस समय दुनिया भर में केवल कुछ ही बीईसीसीएस परियोजनाएं चालू हैं और आलोचक ज़मीन के बड़े क्षेत्र को जैव ऊर्जा उत्पादन के लिए उपयोग किए जाने की लागत को लेकर सवाल उठा रहे हैं। इनका मानना है कि इसका खाद्य उत्पादन या जैव विविधता के लिए किया जा सकता है।
कार्बन कैप्चर, यूटिलाइज़ेशन और स्टोरेज (सीसीएस और सीसीयूएस)
कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (या सीसीएस) एक ऐसी प्रक्रिया है, जो औद्योगिक प्रक्रियाओं के माध्यम से उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड को क़ैद करती है और इसे वायुमंडल तक पहुंचने से रोकने के लिए ज़मीन के भीतर दफ़न करती है।
कार्बन कैप्चर, यूटिलाइज़ेशन और स्टोरेज (सीसीयूएस) एक कदम आगे बढ़ते हुए अल्कोहल, जैव ईंधन, प्लास्टिक या कंक्रीट जैसे सामानों के उत्पादन में कैप्चर किए गए कार्बन का उपयोग करता है।
कुछ टिप्पणीकारों का तर्क है कि कार्बन कैप्चर तकनीकों की जलवायु परिवर्तन शमन में महत्वपूर्ण भूमिका है। यह उन उद्योगों के जलवायु प्रभाव को कम करती है जो प्रदूषणकारी ईंधन या सामग्रियों के उपयोग को आसानी से नहीं रोक सकते हैं।
आईपीसीसी का मानना है कि सीसीएस तकनीकों की उन स्थितियों में महत्वपूर्ण भूमिका होगी जिनमें जलवायु परिवर्तन को 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखा जाना है। लेकिन दूसरों का तर्क ये है कि सीसीएस और सीसीयूएस तकनीक जीवाश्म ईंधन से अलग ऊर्जा विकल्पों में बदलाव में देरी करवा सकती हैं। और अधिकांश तकनीक लाभकारी भी नहीं है और बड़े पैमाने पर प्रयोग के मामले में इनका टेस्ट नहीं हुआ है।
जुलाई 2023 में, यूरोपीय संघ, जर्मनी, फ्रांस और न्यूजीलैंड सहित 17 देशों ने कहा कि कार्बन कैप्चर तकनीक पर निर्भरता सीमित होनी चाहिए, क्योंकि यह जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने का विकल्प नहीं है।
कार्बन क्रेडिट और कार्बन ऑफ़सेट
कार्बन क्रेडिट और कार्बन ऑफ़सेट कार्बन ट्रेडिंग के दो मुख्य प्रकार हैं।
कार्बन क्रेडिट सरकारों द्वारा कंपनियों को जारी किए गए टोकन हैं जो भविष्य में होने वाले कार्बन उत्सर्जन को दर्शाता है। जो कंपनियां अपनी ‘स्वीकृत सीमा’ (एलाउंस) से कम उत्सर्जन करती हैं, उनके पास अतिरिक्त कार्बन क्रेडिट होता है। ऐसी कंपनी कार्बन बाज़ार में उनका व्यापार कर सकती हैं। ऐसा माना जाता है कि इससे कंपनियों को अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।
कार्बन ऑफ़सेट कंपनियों द्वारा बनाए जाते हैं। अगर कोई कंपनी ऐसा कुछ करती है, जो वायुमंडल से कार्बन को हटाता हो, जैसे पेड़ लगाना, तो वह इसे कार्बन ऑफ़सेट के रूप में गिन सकती है, और इसका उन दूसरे संगठनों के साथ व्यापार कर सकती है, जो अपनी प्रक्रियाओं के प्रदूषणकारी प्रभाव को ‘निष्प्रभावी’ करना चाहते हैं।
हम जैसे आम लोग भी वानिकी कार्यक्रमों या नवीकरणीय ऊर्जा विकास जैसी कार्बन हटाने वाली परियोजनाओं में दान देकर हवाई जहाज़ में उड़ानों जैसी उच्च-कार्बन गतिविधियों से उत्पन्न अपने हिस्से के कार्बन उत्सर्जन की भरपाई कर सकते हैं।
कार्बन ट्रेडिंग को लेकर काफ़ी विवाद है। आलोचकों का तर्क है कि एक तरह से कार्बन बाज़ार अमीर देशों, कंपनियों और व्यक्तियों को वास्तव में अपने उत्सर्जन को कम न करने का एक रास्ता दे देते हैं, क्योंकि वे प्रदूषण जारी रखने के लिए आसानी से खर्च कर सकते हैं। कार्बन ट्रेडिंग का प्रतिबंधन करना मुश्किल है। इस बात को लेकर भी सवाल उठाए गए हैं कि कार्बन ऑफ़सेट परियोजनाओं के ज़रिए कार्बन हटने से वास्तव में कितना फायदा होता है। कुछ टिप्पणीकारों का तर्क है कि जलवायु पर इसके सकारात्मक प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है।
कार्बन डाइऑक्साइड इक्विवलेंट (CO2e)
कार्बन डाइऑक्साइड इक्विवलेंट यानी कार्बन डाइऑक्साइड समतुल्य का इस्तेमाल एक सिंगल मेट्रिक के रूप में होता है जिसका इस्तेमाल विभिन्न ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को एक ही तरीक़े से समझने के लिए किया जाता है। उदाहरण के तौर पर मीथेन को ले सकते हैं। मीथेन जैसी गैस की एक छोटी मात्रा ग्रीनहाउस प्रभाव में बहुत ज़्यादा योगदान करती है। उसमें कार्बन डाइऑक्साइड की समान मात्रा की तुलना में कई गुना अधिक कार्बन डाइऑक्साइड हो सकती है।
कार्बन डाइऑक्साइड रिमूवल (सीडीआर) एंड सिक्वेस्ट्रेशन
कार्बन डाइऑक्साइड रिमूवल यानी कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन (सीडीआर) उन प्रक्रियाओं को कहा जाता है जिनके माध्यम से कार्बन डाइऑक्साइड को हवा से बाहर निकाला जाता है। ऐसा करने से यह ग्रीनहाउस गैस के रूप में काम नहीं कर पाता है।
जब यह कार्बन लंबे समय तक इकट्ठा रहता है, तो इसे कार्बन सिक्वेस्ट्रेशन कहा जाता है यानी कार्बन की ज़ब्ती।
कार्बन सिक्वेस्ट्रेशन या कार्बन की ज़ब्ती स्वाभाविक रूप से होता है: जैविक प्रक्रियाओं के साथ मिट्टी, समुद्र, जंगलों, घास के मैदानों और अन्य प्राकृतिक इकोसिस्टम में भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड जमा होता है। इसे मानव-निर्मित प्रक्रियाओं, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज तकनीकों के माध्यम से भी प्राप्त किया जा सकता है।
सीडीआर और कार्बन सिक्वेस्ट्रेशन को जलवायु परिवर्तन शमन में आवश्यक साधन माना जाता है। आईपीसीसी का कहना है कि “तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए सीडीआर की आवश्यकता है। इसकी ज़रूरत ख़ास तौर पर उन उद्योगों में है, जिनको डिकार्बोनाइज करना मुश्किल है: जैसे कि इंडस्ट्रीज़, लंबी दूरी के परिवहन और कृषि।” अधिकांश राष्ट्रों के नेट ज़ीरो उत्सर्जन योजनाओं में सीडीआर की प्रमुख विशेषता है।
कार्बन फुटप्रिंट
किसी इंसान या वस्तु का कार्बन फुटप्रिंट प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनके द्वारा किए गए कार्यों से उत्पन्न ग्रीन हाउस गैस की मात्रा है। इसमें वे क्या खाते हैं, वे कैसे यात्रा करते हैं, वे क्या खरीदते हैं और उनकी बिजली और हीट कैसे उत्पन्न होती है, यह सब शामिल हो सकता है।
कार्बन बाज़ार
कार्बन बाज़ार को उत्सर्जन व्यापार योजनाओं के रूप में भी जाना जाता है। ये ऐसे समझौते हैं, जिनके माध्यम से, देश या व्यवसाय कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करने के लिए परमिट खरीदते और बेचते हैं। इन्हें अक्सर कार्बन क्रेडिट के रूप में जाना जाता है।
कार्बन व्यापार बाज़ार के तहत, एक देश या कंपनी, जो अपने कार्बन उत्सर्जन को एक निश्चित सहमत स्तर से कम कर देती है, वह बचे हुए उत्सर्जन ‘सीमा’ को कार्बन क्रेडिट के रूप में अन्य देशों या कंपनियों को बेच सकती है। ये वे कंपनियां होती हैं जो अब भी इन सीमाओं से ज़्यादा प्रदूषण कर रही हैं। सैद्धांतिक रूप से, यह उत्सर्जन को कम करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करता है।
कार्बन सिंक
कार्बन सिंक प्राकृतिक और आर्टिफिशियल भंडार स्थल हैं जो कार्बन डाइऑक्साइड को इकट्ठा करते हैं। कार्बन सिंक वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों को क़ाबू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। घने जंगल, महासागर, मिट्टी, पीटलैंड और आर्द्रभूमि- ये सभी प्राकृतिक कार्बन सिंक हैं। कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) तकनीक आर्टिफिशियल कार्बन सिंक के रूप में काम कर सकती हैं।
किगाली संशोधन
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में ओज़ोन परत की रक्षा के लिए 1987 में एक वैश्विक समझौता में हस्ताक्षर किया गया था। 2016 में रवांडा की राजधानी किगाली में एक बैठक के दौरान मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को संशोधित किया गया था। किगाली संशोधन का उद्देश्य हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (जो शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस हैं) के उत्पादन और उपयोग को चरणबद्ध तरीके से कम करना है। हाइड्रोफ्लोरोकार्बन का उपयोग क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) और हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (एचसीएफसी) जैसे ओज़ोन-क्षयकारी पदार्थों के विकल्प के रूप में किया जाता है।
कॉप (सीओपी)
जलवायु परिवर्तन की दुनिया में ‘कॉप’ जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के साझेदारों के सम्मेलन को कहा जाता है। इसकी वार्षिक बैठक होती है जिसमें 198 सदस्य जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक कार्रवाई पर चर्चा करते हैं।
साल 1992 में पहली बार संधि में शामिल सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ यह पहल शुरू हुई।
जलवायु कॉप में देश के प्रतिनिधि विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करते हैं जैसे कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कैसे कम किया जाए; जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कैसे अपनाया जाए; और विकासशील देशों को फॉसिल फ़्यूल से दूर जाने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक रेज़िलीएंस के लिए वित्तीय सहायता कैसे की जाए।
पिछला कॉप यानी कॉप27, नवंबर 2022 में शर्म अल-शेख, मिस्र में आयोजित किया गया था। कॉप-28 दुबई में 30 नवंबर से 12 दिसंबर, 2023 तक आयोजित किया जाएगा।
क्योटो प्रोटोकोल
क्योटो प्रोटोकॉल एक अंतरराष्ट्रीय समझौता था जिसे 1997 में अपनाया गया था। इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना था। यह समझौता 2005 में लागू हुआ और इस पर 192 देशों ने हस्ताक्षर किए (हालांकि अमेरिका ने इस संधि की कभी पुष्टि नहीं की)। क्योटो प्रोटोकॉल ने ऐतिहासिक उत्सर्जन और अन्य परिस्थितियों के आधार पर औद्योगिक देशों के लिए बाध्यकारी उत्सर्जन-कटौती लक्ष्य निर्धारित किए थे।
साल 2015 में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक कार्रवाई के लिए मुख्य अंतरराष्ट्रीय संधि के रूप में क्योटो प्रोटोकॉल की जगह पेरिस समझौते को दे दी गई थी।
क्रायोस्फ़ेर
क्रायोस्फ़ेर शब्द इस पृथ्वी के उन क्षेत्रों को कहा जाता है जहां अधिकांश पानी जमे हुए रूप में है: जैसे कि पोलर यानी ध्रुवीय क्षेत्र और ऊंचे पहाड़।
दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला हिंदू कुश हिमालय में जमा हुआ पानी ग्लेशियरों, बर्फ़ की चोटियों, स्नो, पर्माफ्रॉस्ट और नदियों व झीलों पर बर्फ़ के रूप में मौजूद हैं।
क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी)
सीएफसी या क्लोरोफ्लोरोकार्बन कार्बन, क्लोरीन और फ्लोरीन तत्वों से बनी गैसें हैं। इनका उपयोग सॉल्वैंट्स, रेफ्रिजरेंट और एरोसोल स्प्रे में किया जाता है। 20वीं सदी में, सीएफसी को ओज़ोन परत के क्षय के लिए ज़िम्मेदार माना गया था।ओज़ोन परत पृथ्वी के वायुमंडल का एक क्षेत्र है जो सूर्य से अल्ट्रावायलेट रेडिएशन को रोकता है, और जीवित प्राणियों को इसके हानिकारक प्रभावों से बचाता है।
साल 1987 में ऐतिहासिक मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर सहमति की वजह से दुनिया भर में सीएफसी का उपयोग चरणबद्ध तरीके से बंद कर दिया गया है।
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ग्रीन एनर्जी / हरित ऊर्जा
हरित ऊर्जा वो ऊर्जा है जो पवन या सौर जैसे नवीकरणीय स्रोतों से आती है। जीवाश्म ईंधन के विपरीत, हरित ऊर्जा के उत्पादन से बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन नहीं होता है। इस बात पर बहस चल रही है कि नदियों और संबंधित इकोसिस्टम पर पर्याप्त प्रभाव को देखते हुए किस हद तक कुछ नवीकरणीय ऊर्जा (ख़ास तौर पर हाइड्रोपॉवर) को वास्तव में ‘हरित’ कहा जा सकता है।
ग्रीन हाइड्रोजन और ग्रे हाइड्रोजन
हाइड्रोजन इस्तेमाल करने के लायक मात्रा में गैस की सूरत में प्राकृतिक रूप से मौजूद नहीं है। इसलिए इलेक्ट्रोलिसिस जैसी विधियों के माध्यम से शुद्ध हाइड्रोजन आर्टिफिशियल तरीक़े से बनाया जाता है।
इलेक्ट्रोलिसिस एक ऐसी प्रक्रिया है जो पानी से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को अलग-अलग कर देता है। जब इन प्रक्रियाओं को सौर या पवन ऊर्जा जैसे स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की मदद से पावर दिया जाता है तो इसे हरित हाइड्रोजन कहा जाता है। जीवाश्म ईंधन से उत्पन्न ऊर्जा का उपयोग करके बनाए गए हाइड्रोजन को ग्रे हाइड्रोजन कहा जाता है।
इसके बारे में अधिक जानकारी के लिए, हमारा एक्सप्लेनर पढ़ें।
ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) और ग्रीनहाउस प्रभाव
कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सीएफसी, एचसीएफसी और एचएफसी, सभी को ग्रीनहाउस गैसों के रूप में जाना जाता है क्योंकि वायुमंडल में उनकी उपस्थिति सूर्य की गर्मी को क़ैद करती है। इससे ग्रीनहाउस की कांच की दीवारों और छत की तरह पृथ्वी के चारों ओर हवा गर्म हो जाती है। यह ग्रीनहाउस प्रभाव है।
जीवाश्म ईंधन जलाने जैसी मानवीय गतिविधियां वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को बढ़ा रही हैं। इससे ग्रीनहाउस प्रभाव मजबूत हो रहा है, अधिक गर्मी रुक रही है और पृथ्वी गर्म हो रही है।
ग्रीनवाशिंग
ग्रीनवाशिंग पर्यावरणविद जे वेस्टरवेल्ड द्वारा 1986 में लाया गया एक टर्म है। यह एक ऐसी प्रैक्टिस है जिसमें कंपनियां एवं संगठन यह भ्रम पैदा करते हैं कि उनके उत्पाद या सेवाएं पर्यावरण के लिए अच्छी हैं, जबकि वास्तव में वे पर्यावरण के लिए हानिकारक हो सकते हैं।
ग्रीनवाशिंग करने वाली एक कंपनी पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों को खरीदने वाले ग्राहकों की इच्छाओं का फायदा उठाने की कोशिश करती है। या अपने कार्यों में महत्वपूर्ण बदलाव किए बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली प्रथाओं पर नकारात्मक सार्वजनिक और राजनीतिक दबाव को दूर करने की कोशिश करती है।
ग्लेशियर
ग्लेशियर धीरे-धीरे बहने वाली बर्फ़ की चट्टानें हैं (जैसे जमी हुई नदियां) जो पोलर यानी ध्रुवीय क्षेत्रों और ऊंचे पहाड़ों में पाई जाती हैं। इनके निर्माण में सदियां लगे हैं। बर्फ़ ज़मीन पर गिरती है और बर्फ़ के मोटे समूहों में संकुचित हो जाती है। उनकी गति मुख्य रूप से बर्फ़ के भार पर कार्य करने वाले गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा संचालित होती है। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन से दुनिया गर्म हो रही है, ग्लेशियर अब बर्फ़बारी की तुलना में तेज़ी से पिघल रहे हैं (बर्फ़बारी ग्लेशियर के बनने में मदद करती है लेकिन अब दोनों की गति अलग है)। ग्लेशियरों के पिघलने का प्रभाव ग्लेशियरों से दूर समुद्र के स्तर, जल चक्र और मौसम प्रणालियों में देखा जा सकता है।
ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (ग्लोफ़)
जब पहाड़ी ग्लेशियर पिघलते हैं तो उस पिघले हुए पानी से पहाड़ों की बीच एक झील बन जाता है। कुछ पत्थर, चट्टान और तलछट इस झील के पानी को पहाड़ से नीचे गिरने से रोकते है क्योंकि इनकी वजह से झील के पास एक रुकावट बन जाता है। जब ये झील फट जाती है यानी रुकावट कमज़ोर पड़ जाती है तो झील का पानी नीचे बह जाता है। इसे समझने के लिए आप ये वीडियो देख सकते हैं।
ये बाढ़ भूकंप, हिमस्खलन या बहुत अधिक पिघले पानी के जमा होने से उत्पन्न हो सकती है। ग्लोफ़ अक्सर बेहद विनाशकारी होते हैं। यह हिमालय जलक्षेत्र के लिए एक बढ़ता खतरा हैं।
ग्लोबल वार्मिंग
कई लोग जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का मतलब एक समझते हैं। लेकिन इनका मतलब अलग हैं। ग्लोबल वार्मिंग का मतलब है पृथ्वी की सतह का बढ़ता तापमान। जलवायु परिवर्तन में इसके साथ-साथ हवा और बारिश के पैटर्न में अन्य बदलाव भी शामिल होते हैं। मानवीय गतिविधियों के कारण वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों का स्तर बढ़ा है, जो ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण है।
कुछ मीडिया आउटलेट संकट की गंभीरता को दर्शाने के लिए ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के बदले ‘ग्लोबल हीटिंग’ जैसे शब्द के इस्तेमाल को बेहतर समझते हैं।
ज
जलवायु आप्रवासन / क्लाइमेट माइग्रेशन
क्योंकि जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्र का स्तर बढ़ रहा है और बाढ़, लू एवं सूखे जैसी चरम मौसम की घटनाएं लगातार और तीव्र हो रही हैं, इस वजह से दुनिया भर में, कई लोग रहने के बेहतर माहौल की तलाश में अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं।
इसे अक्सर जलवायु आप्रवासन या क्लाइमेट माइग्रेशन कहा जाता है। जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव बढ़ते हैं, ऐसे में, आने वाले दशकों में जलवायु आप्रवासन में उल्लेखनीय वृद्धि होने की उम्मीद है।
जलवायु न्याय
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को असमान रूप से अनुभव किया जा रहा है। कई देश और समुदाय जिन्होंने वैश्विक उत्सर्जन में सबसे कम योगदान दिया है, वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति सबसे अधिक नाज़ुक हैं और अनुकूलन के लिहाज़ से सबसे कम सक्षम हैं।
जलवायु न्याय आंदोलन का तर्क है कि जिन लोगों, कंपनियों और देशों को कार्बन-ईंधन वाले विकास से आर्थिक रूप से सबसे अधिक लाभ हुआ है, उन पर उस विकास के प्रभावों की कीमत चुकाने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से सबसे अधिक प्रभावित लोगों की मदद करने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है।
जलवायु परिवर्तन
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन को तापमान और मौसम के पैटर्न में दीर्घकालिक बदलाव के रूप में परिभाषित करता है। जीवाश्म ईंधन जलाने और जंगलों की कटाई जैसी मानवीय गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैसें उत्पन्न हुई हैं, जिससे वैश्विक औसत तापमान बढ़ गया है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव बहुत अधिक हैं। इनमें अधिक बार और तीव्र चरम मौसमी घटनाएं, समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी, वर्षा पैटर्न में गड़बड़ी और ध्रुपोलर और पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ़ का पिघलना शामिल है।
जलवायु शरणार्थी
जलवायु शरणार्थी का इस्तेमाल कुछ पर्यावरण कार्यकर्ताओं और टिप्पणीकारों द्वारा उन लोगों के लिए किया जाता है जो बाढ़ या समुद्र के स्तर में वृद्धि जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होते हैं।
जलवायु शरणार्थी की कोई औपचारिक परिभाषा नहीं है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शरणार्थी की परिभाषा ये है: “वे लोग जो युद्ध, हिंसा, संघर्ष या उत्पीड़न से दूसरे देश में सुरक्षा पाने के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा पार कर गए हैं।” इस परिभाषा में वो लोग शामिल नहीं हैं जिन्होंने चक्रवात या बढ़ते समुद्र स्तर के कारण अपना आशियाना खो दिया हो।
जस्ट ट्रांज़िशन / न्यायपूर्ण बदलाव
उत्सर्जन को नियंत्रण में रखने और जलवायु परिवर्तन को सीमित करने के लिए एक लो-कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ना ज़रूरी है। लेकिन डिकरबोनाइज़िंग का मतलब है उद्योगों में बड़े बदलाव: जैसे जीवाश्म ईंधन के उद्योग में बदलाव जो लाखों लोगों को रोज़गार देता है।
जस्ट ट्रांज़िशन यानी न्यायपूर्ण बदलाव वह है जिसमें इस परिवर्तन के सामाजिक और आर्थिक निहितार्थों को पर्याप्त रूप से संबोधित किया जाता है। इसमें यह सुनिश्चित करना शामिल है कि श्रमिकों के अधिकारों और समुदायों की ज़रूरतों की रक्षा की जाए और उन लोगों के लिए समर्थन और अवसर प्रदान किए जाएं, जिन्हें नौकरियां बदलनी ही होंगी।
जैव ऊर्जा और जैव ईंधन / बायोएनर्जी और बायोफ़्यूल्स
जैव ईंधन लिक्विड, सॉलिड या गैसीय ईंधन हैं। ये पौधों के हिस्सों और पशु अपशिष्ट से उत्पन्न होते हैं। गन्ना, मक्का और सोयाबीन वर्तमान में जैव ईंधन के उत्पादन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले प्रमुख स्रोतों में से हैं। इन ईंधनों से या सीधे बायोमास जलाने से उत्पन्न ऊर्जा को जैव ऊर्जा कहा जाता है।
इसके पैरोकारों का कहना है कि बायोएथेनॉल और बायोडीज़ल जैसे जैव ईंधन,
परिवहन क्षेत्र को डीकार्बोनाइज़ करने में मदद कर सकते हैं क्योंकि ये जीवाश्म ईंधन की तुलना में लो-कार्बन विकल्प हैं। साल 2022 से 2027 के बीच जैव ईंधन की कुल वैश्विक मांग 22% बढ़ने वाली है।
हालांकि, विशेषज्ञों ने जैव ईंधन के लिए ज़मीन को समर्पित करने के प्रभावों के बारे में चेतावनी दी है क्योंकि इससे खाद्य उत्पादन और जैव विविधता को लेकर दिक्कत पैदा हो सकती है। आलोचकों का तर्क है कि जैव ईंधन को जलाना, वास्तव में लो-कार्बन ऊर्जा जैसा कुछ नहीं है। और जो आंकड़े जीवाश्म ईंधन की तुलना में जैव ईंधन में कम कार्बन फुटप्रिंट दिखाते हैं, उनमें रिलीज़ हुए सभी कार्बन की भागीदारी शामिल नहीं है।
जैव विविधता
किसी क्षेत्र में पाई जाने वाली जीवन की विविधता को जैव विविधता कहा जाता है। इसमें जानवर, पौधे और सूक्ष्म जीव शामिल हैं, जो एक इकोसिस्टम में एक-दूसरे के साथ संपर्क करते हैं। इससे जीवन का एक नेटवर्क बनता है।
इंसानों के साथ-साथ पृथ्वी पर सभी के जीवन के अस्तित्व के लिए जैव विविधता की रक्षा करना ज़रूरी है, क्योंकि जिस इकोसिस्टम पर हम भोजन, पानी और स्वच्छ हवा के लिए निर्भर हैं, वह केवल तभी सही से काम कर सकता है, जब विविध प्रकार की प्रजातियां पर्याप्त संख्या में मौजूद हों।
लेकिन मानवीय गतिविधियों के कारण वर्तमान में जैव विविधता खतरे में है, अनुमान है कि 10 लाख से अधिक पौधों और जानवरों की प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरे है।
जैव विविधता के नुकसान के कुछ मुख्य कारण भूमि उपयोग में परिवर्तन हैं: जैसे जंगलों की कटाई और कृषि या खनन के लिए प्राकृतिक आवासों में परिवर्तन; अन्य कारणों में शिकार और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन; आक्रामक प्रजातियां; और जलवायु परिवर्तन शामिल हैं।
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टिपिंग पॉइंट / निर्णायक बिंदु
जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में टिपिंग पॉइंट वह सीमा है जिसके एक बार पार हो जाने पर जलवायु में एक बड़ा, अपरिवर्तनीय और स्व-स्थायी परिवर्तन होता है।
शोधकर्ताओं ने अब तक 16 ऐसे जलवायु परिवर्तन के टिपिंग पॉइंट्स की पहचान की है और कहा है कि उनमें से कुछ को पहले ही पार कर लिया जा चुका है। इनमें से कुछ पॉइंट्स के पार होने का मतलब है कि ग्रीनलैंड की बर्फ़ीली चोटी का ढहना और पर्माफ्रॉस्ट का पिघलना जैसे बड़े बदलाव अब होकर रहेंगे।
एक प्रमुख उदाहरण दक्षिण अमेरिका में अमेज़न जंगल है जो दुनिया का सबसे बड़ा रेनफ़ॉरेस्ट है और दुनिया के सबसे जैव विविधता वाले इकोसिस्टम में से एक है। अमेज़न का जलवायु पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। ये अपने क्षेत्र में वर्षा पैदा करने और तापमान स्थिर करने के ज़िम्मेदार हैं। लेकिन अमेज़न जंगल का लगभग 20% हिस्सा काट दिया गया है या बर्बाद हो गया है। इसका मतलब है कि जंगल जिस बारिश पर निर्भर है, उसे पैदा करने के लिए बहुत कम पेड़ बचे हैं। इससे एक दुश्चक्र के पैदा होने का खतरा है, जिसमें कम वर्षा होने से बचे हुए जंगल पर खतरा मंडरा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, जब वनों की कटाई 20-25 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी, तो टिपिंग पॉइंट, जिस पर जंगल का चक्र निर्भर करता है, वह नष्ट हो जाएगा। इसके बाद कुछ ही दशकों में जंगल के बड़े इलाके घास के मैदान में तब्दील हो जाएंगे।
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डिज़र्टिफ़िकेशन / मरुस्थलीकरण
मरुस्थलीकरण भूमि क्षरण की एक प्रक्रिया है जिसमें शुष्क या अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उपजाऊ और जैव विविधता वाली भूमि अपनी उत्पादकता खो देती है और वह ज़मीन रेगिस्तान में बदल जाती है। यह जंगलों की कटाई और ज़रूरत से ज़्यादा चराई जैसी मानवीय गतिविधियों के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से प्रेरित हो सकता है
डिफ़ॉरेस्टेशन / जंगलों की कटाई
इंसानों ने लकड़ी की ज़रूरत पूरी करने के साथ-साथ कृषि एवं खनन जैसी गतिविधियों के लिए जंगलों को काटा है और अब भी काट रहे हैं। यह जैव विविधता और हमारी जलवायु, दोनों के लिए एक बड़ा खतरा है। जंगलों की कटाई से वायुमंडल में भारी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं।
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द थर्ड पोल / तीसरा ध्रुव
हिंदू कुश हिमालय पर्वत श्रृंखला और तिब्बती पठार से घिरा क्षेत्र अक्सर ‘तीसरा ध्रुव’ के रूप में जाना जाता है, क्योंकि इसके बर्फ़ीले इलाक़ों में ध्रुवीय क्षेत्रों के बाहर जमे हुए पानी की सबसे बड़ी मात्रा होती है। यह क्षेत्र 10 प्रमुख नदी प्रणालियों का स्रोत है जो लगभग 2 अरब लोगों (दुनिया की 24% से अधिक आबादी) को सिंचाई, बिजली और पीने का पानी प्रदान करता है।
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नवीकरणीय ऊर्जा
नवीकरणीय ऊर्जा का मतलब पवन ऊर्जा, पानी, सौर विकिरण और पृथ्वी की प्राकृतिक गर्मी जैसे स्रोतों का उपयोग करके उत्पादित ऊर्जा से है। जीवाश्म ईंधन के मुक़ाबले नवीकरणीय स्रोतों का उपयोग करके ऊर्जा का उत्पादन आम तौर पर वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसें नहीं छोड़ता है। उन्हें नवीकरणीय ऊर्जा इसलिए कहा जाता है क्योंकि ज़मीन से खोदे गए जीवाश्म ईंधन के विपरीत वे सीमित संसाधन नहीं हैं।
ऊर्जा उत्पादन में जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय स्रोतों की ओर संक्रमण जलवायु परिवर्तन को सीमित करने के प्रयासों का एक अनिवार्य हिस्सा है। वर्ष 2020 में वैश्विक बिजली उत्पादन में नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी 29% तक पहुंच गई।
भले ही हाइड्रोपॉवर यानी जलविद्युत नवीकरणीय ऊर्जा का एक रूप है, लेकिन बांधों के निर्माण से नदी प्रणालियों, उनकी इकॉलॉजी और उन पर निर्भर लोगों के जीवन पर इसका काफ़ी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए इस तरह के ऊर्जा उत्पादन को पर्यावरण के लिए अच्छा नहीं माना जाता है।
नेट ज़ीरो
नेट ज़ीरो वह स्थिति है जिसमें पर्यावरण में प्रवेश करने वाला कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन वायुमंडल से निकाले जा रहे कार्बन के बराबर है। इसे क्लाइमेट न्यूट्रैलिटी या जलवायु तटस्थता भी कहा जाता है। साल 2018 में आईपीसीसी ने साल 2050 को उस समय सीमा के रूप में घोषित किया था जब दुनिया को नेट ज़ीरो की स्थिति तक पहुंचना होगा। ऐसा करने से ही पेरिस समझौते के अनुसार वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का लक्ष्य संभव है।
लंदन में स्थित नॉन-प्रॉफिट और रिसर्च संस्थाओं से बनी एक संस्था नेट ज़ीरो ट्रैकर की एक रिपोर्ट के अनुसार, ब्रिटेन, अमेरिका, भारत और चीन सहित लगभग 128 देशों और क्षेत्रों ने नेट ज़ीरो लक्ष्य निर्धारित किए हैं। दुनिया की एक-तिहाई से अधिक सबसे बड़ी सार्वजनिक व्यापारिक कंपनियों ने भी नेट ज़ीरो लक्ष्य निर्धारित किए हैं।
नेट ज़ीरो लक्ष्य वाली कई सरकारों और कंपनियों की इन लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए स्पष्ट और समयबद्ध रास्ता निर्धारित नहीं करने के लिए आलोचना की गई है।
प
पर्माफ्रॉस्ट
कोई भी ज़मीन जो लगातार कम से कम दो सालों तक पूरी तरह से जमी रहती है, उसे पर्माफ्रॉस्ट कहा जाता है। बर्फ़ द्वारा एक साथ बंधी मिट्टी, रेत, चट्टान और कार्बनिक पदार्थों से बना पर्माफ्रॉस्ट पोलर यानी ध्रुवीय क्षेत्रों में पाया जाता है।
हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र के सतह क्षेत्र के लगभग 40% हिस्से को भी कवर करता है। जलवायु परिवर्तन के कारण पर्माफ्रॉस्ट पिघल रहा है। अगर वैश्विक औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है, तो अनुमान है कि पर्माफ्रॉस्ट की सीमा 40% से अधिक कम हो जाएगी।
पर्माफ्रॉस्ट के नष्ट होने से ध्रुवीय और पर्वतीय क्षेत्रों में जल विज्ञान चक्र और इकोसिस्टम में भयानक परिवर्तन आएगा। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से भारी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसें भी निकल सकती हैं, जिसके कारण गर्मी में तेज़ी आएगी और बर्फ़ पिघलने की गति बढ़ेगी।
पार्टिकुलेट मैटर और पीएम 2.5
पार्टिकुलेट मैटर हवा में पाए जाने वाले ठोस कणों और तरल बूंदों का मिश्रण है। कुछ कण प्राकृतिक प्रक्रियाओं से आते हैं और कुछ ईंधन जलाने और निर्माण जैसी मानवीय गतिविधियों से भी उत्पन्न होते हैं।
कुछ पार्टिकुलेट मैटर लोगों के लिए महत्वपूर्ण स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर सकते हैं, विशेष रूप से वे कण, जो इतने छोटे होते हैं कि सांस लेने पर शरीर में गहराई तक प्रवेश कर सकते हैं। सबसे खतरनाक 2.5 माइक्रोमीटर से कम डायमीटर वाले कण होते हैं जिन्हें ‘पीएम 2.5’ के रूप में जाना जाता है।
पेरिस समझौता
पेरिस समझौता एक ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय समझौता है जिसका उद्देश्य वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को “पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस से काफ़ी नीचे” तक सीमित करना और तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए ‘प्रयास करना’ है।
इस समझौते को 2015 में आख़िरी रूप दिया गया था और दुनिया के लगभग हर देश ने इस पर हस्ताक्षर और अनुमोदन किया है।
पेरिस समझौते के तहत देश उत्सर्जन कम करने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को अनुकूलित करने की योजना पेश करते हैं (जिसे राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान या एनडीसी के रूप में जाना जाता है), और हर पांच साल में इन प्रतिबद्धताओं की समीक्षा की जाती है। इस समझौते में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए विकासशील देशों को वित्तीय सहायता का प्रावधान और वैश्विक कार्बन बाजारों का प्रबंधन भी शामिल है।
प्रकृति-आधारित समाधान / नेचर बेस्ड सोल्यूशंज़
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर (आईयूसीएन) प्रकृति-आधारित समाधानों को “प्राकृतिक या संशोधित इकोसिस्टम की रक्षा, प्रबंधन और पुनर्स्थापित करने की कोशिशों के रूप में परिभाषित करता है, जो सामाजिक चुनौतियों को प्रभावी ढंग से और अनुकूल रूप से संबोधित करते हैं, साथ ही मानव कल्याण और जैव विविधता का लाभ प्रदान करते हैं।”
जलवायु के संदर्भ में, प्रकृति-आधारित समाधानों में, इकोसिस्टम की सुरक्षा और बहाली शामिल हो सकती है, जो कार्बन सिंक के रूप में काम करते हैं। मैंग्रोव जंगल इसका एक अच्छा उदाहरण हैं कि कैसे प्रकृति-आधारित समाधान, जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन, दोनों में मदद कर सकते हैं। मैंग्रोव जंगल लोगों और समुदायों को तटीय तूफानों और बाढ़ से बचा सकते हैं और साथ ही कार्बन का भंडारण भी कर सकते हैं।
प्राकृतिक गैस / नैचुरल गैस
प्राकृतिक गैस एक जीवाश्म ईंधन है। इसका उपयोग बिजली उत्पादन, इमारतों को गर्म करने, खाना पकाने और इंडस्ट्रियल कामों में होता है। यह अधिकतर मीथेन से बना है, साथ ही, इसमें ईथेन और प्रोपेन जैसे अन्य हाइड्रोकार्बन की भी थोड़ी मात्रा होती है। इसे कुओं की ड्रिलिंग के माध्यम से ज़मीन के अंदर जलाशयों से निकाला जाता है।
जलाए जाने पर, कोयले और तेल की तुलना में, प्राकृतिक गैस कम कार्बन डाइऑक्साइड और वायु प्रदूषक छोड़ती है। कुछ लोगों ने जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा में परिवर्तन में मदद करने के लिए नैचुरल गैस को ‘पुल’ या ‘संक्रमण ईंधन’ कहा है। लेकिन कई विशेषज्ञ कहते है कि यह तर्क ग़लत है, और सस्ती व कम प्रदूषणकारी नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
फ
फॉसिल फ़्यूल / जीवाश्म ईंधन
फॉसिल फ़्यूल यानी जीवाश्म ईंधन में कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस शामिल हैं, जो लाखों साल पहले मरे हुए पौधों और जानवरों के अवशेषों से बने हैं। इसलिए वे मानव कालावधि में नवीकरणीय नहीं हैं।
मुख्य रूप से ऊर्जा उत्पादन के लिए जीवाश्म ईंधन के उपयोग से वायुमंडल में भारी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं और यह जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है।
ब
बायोमास
बायोमास एक कार्बनिक पदार्थ है, जो पौधों, जानवरों और सूक्ष्मजीवों से आता है, जिसमें कृषि, वानिकी और अन्य उद्योगों से निकलने वाले जैविक अपशिष्ट भी शामिल होते हैं। ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए बायोमास को सीधे जलाया जा सकता है या जैव ईंधन में परिवर्तित किया जा सकता है।
भ
भेद्यता
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव विभिन्न समुदायों द्वारा असमान रूप से महसूस किए जाते हैं। जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता, भौगोलिक स्थिति, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और सामाजिक हाशिए पर रहने जैसे कारकों के आधार पर अलग-अलग होते हैं।
म
महासागरीय अम्लीकरण / ओशन एसिडिफिकेशन
वायुमंडल में उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड का लगभग 30% महासागर द्वारा सोख लिया जाता है। जैसे-जैसे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ता है, वैसे-वैसे समुद्री जल में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर भी बढ़ता है। इससे महासागरों की रासायनिक संरचना बदल जाती है, जिससे समुद्री जल अधिक एसिडिक हो जाता है, इस प्रक्रिया को महासागरीय अम्लीकरण के रूप में जाना जाता है।
महासागर का एसिडिक होना समुद्री जैव विविधता को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। समुद्र एसिडिक होने से सीप और अन्य शेलफिश जैसे जानवर अपने खोल यानी शेल का ठीक से निर्माण नहीं कर पाते।
अधिक अम्लीय महासागरों से कोरल रीफ़्स को भी गंभीर खतरा है। इसके चलते उस आबादी और अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है, जो आय और आहार के स्रोत के लिए समुद्र पर निर्भर हैं।
मानव-जनित
मानव-जनित का मतलब है इंसानों द्वारा उत्पन्न कोई चीज़। ऐतिहासिक रूप से पृथ्वी की जलवायु हजारों सालों में धीरे-धीरे बदली है। लेकिन 1800 के दशक से जीवाश्म ईंधन यानी फॉसिल फ़्यूल जलाने और जंगलों को काटने जैसी मानवीय गतिविधियों ने वायुमंडल में गैसों के संतुलन को बदल दिया है, जिससे वैश्विक तापमान में भारी बढ़ोतरी हुई है। ये जलवायु परिवर्तन के मानव-जनित कारणों के उदाहरण हैं।
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल
1987 में साइन किया गया मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ओज़ोन परत को नष्ट करने वाले पदार्थों पर एक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण समझौता है जिसका उद्देश्य क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) और हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (एचसीएफसी) सहित ओज़ोन-घटाने वाले पदार्थों (ओडीएस) के उत्पादन और उपयोग को चरणबद्ध तरीके से खत्म करके ओज़ोन परत की रक्षा करना है।
आमतौर पर रेफ़्रीजरेशन और एयर कंडीशनिंग में इस्तेमाल किए जाने वाले ये रसायन ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाते हैं जो पृथ्वी पर जीवन को सूर्य के रेडिएशन के खतरनाक प्रभावों से बचाते हैं।
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को अक्सर दुनिया का सबसे सफल अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण समझौता माना जाता है। अध्ययनों का अनुमान है कि इस संधि के बिना, ओज़ोन परत 2050 तक नष्ट हो सकती थी।
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राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी)
साल 2015 के पेरिस समझौते के तहत देशों को राष्ट्रीय उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल होने के अपने प्रयासों की रूपरेखा तैयार करने के लिए कहा गया।
इन प्रतिबद्धताओं को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) कहा जाता है। एनडीसी हर पांच साल में पेश किए जाते हैं, और नए एनडीसी को पिछले एनडीसी (तथाकथित ‘रैचेट तंत्र’) की तुलना में अधिक महत्वाकांक्षी माना जाता है। संयुक्त रूप से, इन राष्ट्रीय लक्ष्यों को जलवायु परिवर्तन की गंभीरता और प्रभाव को कम करने के लिए साथ मिलकर वैश्विक प्रयास के बराबर होना चाहिए।
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लचीलापन / रेज़िलिएंस
जलवायु लचीलापन वे तरीके हैं जिनके ज़रिए लोग और समुदाय जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में सक्षम होते हैं। साथ ही वे जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चरम मौसमी घटनाओं से उबरना भी शामिल है।
जलवायु अनुकूलन और जलवायु लचीलेपन में फ़र्क़ है। ‘अनुकूलन’ जलवायु परिवर्तन की प्रतिक्रिया में सिस्टम में स्थायी परिवर्तन करने को कहा जाता है, वहीं ‘लचीलापन’ जलवायु परिवर्तन से संबंधित आपदा के बाद ‘सामान्य’ स्थिति में वापस आने का संकेत देता है।
ला नीना
ला नीना अल नीनो-साउदर्न ओशिलेशन (ईएनएसओ) में अल नीनो का विपरीत चरण है। ला नीना के दौरान मध्य और पूर्वी इक्वेटोरियल प्रशांत क्षेत्र में समुद्र का तापमान औसत से कम दर्ज किया जाता है। अल नीनो की तरह, यह दुनिया भर में बारिश और वायुमंडलीय दबाव के पैटर्न को प्रभावित करता है।
लॉस एंड डैमेज / नुकसान और क्षति
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों में तीव्र और अधिक बार आने वाले बाढ़, लू और समुद्र का बढ़ता स्तर शामिल हैं। कई मामलों में इन परिवर्तनों को अनुकूलन असंभव है: जीवन बर्बाद हो जाता है, भूमि बंजर हो जाती है, और आवास स्थायी रूप से बदल जाते हैं। जलवायु परिवर्तन के सामाजिक और वित्तीय प्रभाव, जिन्हें टाला नहीं जा सकता या जिनका अनुकूलन नहीं किया जा सकता, उन्हें लॉस एंड डैमेज कहा जाता है।
नुकसान और क्षति आर्थिक हो सकती है, जैसे अप्रत्याशित मौसम पैटर्न के कारण आजीविका की हानि या कृषि उपज में कमी। यह गैर-आर्थिक भी हो सकती है, जैसे सांस्कृतिक परंपराओं, स्वदेशी ज्ञान और जैव विविधता का नुकसान। इन्हें मापना अक्सर मुश्किल होता है।
जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान और क्षति का भुगतान कौन करेगा, यह जलवायु परिवर्तन से निपटने वाले वैश्विक वार्ता में एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद मुद्दा है।
श
शमन/ मिटिगेशन
वायुमंडल में जलवायु परिवर्तन का कारण बनने वाली ग्रीनहाउस गैसों के अनुपात को कम करने के लिए की गई कार्रवाइयों को जलवायु परिवर्तन शमन कहा जाता है। शमन उपायों में ये सब शामिल हैं: नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को अपनाते हुए उत्सर्जन कम करना; औद्योगिक प्रक्रियाओं से उत्सर्जन को पकड़ना और संग्रहीत करना; और जंगलों और समुद्री इकोसिस्टम जैसे प्राकृतिक कार्बन सिंक में सुधार करना।
स
सतत विकास लक्ष्य
सतत विकास लक्ष्य साल 2015 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित 17 लक्ष्यों का एक समूह है जो आपस में जुड़े हुए हैं और जिन्हें 2030 तक हासिल किया जाना है। वे दुनिया की सबसे गंभीर सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों के समाधान के लिए एक विस्तृत रूपरेखा प्रदान करते हैं।
जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक जुड़े सतत विकास लक्ष्यों हैं: ‘सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा‘ जिसमें दुनिया भर में नवीकरणीय ऊर्जा में वृद्धि शामिल है; जलवायु परिवर्तन की सीमा और प्रभावों को सीमित करने के लिए तत्काल ‘जलवायु कार्रवाई‘ करना; और भूमि और महासागरों पर जीवन की रक्षा करना।
सर्कुलर इकोनॉमी
सर्कुलर इकोनॉमी यानी एक चक्रीय अर्थव्यवस्था में, संसाधनों का वापस इस्तेमाल और रीसाइक्लिंग इस तरह से किया जाता है कि बर्बादी कम हो और संसाधन दक्षता अधिकतम हो। दरअसल, लीनियर इकोनॉमी मॉडल में तो संसाधनों को निकाला जाता है, उपयोग किया जाता है और फिर छोड़ दिया जाता है, लेकिन इसके विपरीत सर्कुलर इकोनॉमी यह सुनिश्चित करती है कि प्रयुक्त सामग्री को प्रोडक्शन चेन में वापस डाल दिया जाए। इससे संसाधनों के उपयोग का एक ‘लूप’ बनता है।
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हाइड्रोकार्बन
हाइड्रोकार्बन कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन का मूल हिस्सा है। रासायनिक रूप से, कार्बन और हाइड्रोजन एटम्स को मिलाकर हाइड्रोकार्बन बना है। ऊर्जा उत्पादन के लिए या परिवहन में ईंधन के रूप में हाइड्रोकार्बन जलाने से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसें निकलती हैं, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान करती हैं।
हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (एचसीएफसी)
हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (एचसीएफसी) केमिकल कंपाउंड हैं जिनमें हाइड्रोजन, क्लोरीन, फ्लोरीन और कार्बन एटम होते हैं। इन्हें रेफ़्रीजरेशन, एयर कंडीशनिंग, फोम-ब्लोइंग और एरोसोल में उपयोग के लिए बनाया गया था। ये शक्तिशाली ग्रीन हाउस गैसें हैं, और इन्हें मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जा रहा है, क्योंकि ये ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाते हैं।
हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी)
हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (एचएफसी) गैसें हैं जिनका उपयोग एयर कंडीशनिंग, रेफ़्रीजरेशन और अन्य उद्योगों में किया जाता है। इनका उपयोग सीएफसी और एचसीएफसी को हटाने के लिए किया गया था, क्योंकि ये ओज़ोन परत को नष्ट नहीं करती हैं। हालांकि, ये शक्तिशाली ग्रीन हाउस गैसें हैं और जब इनका उपयोग किया जाता है, तो ये जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं।
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में साल 2016 में किए गए किगाली संशोधन के तहत, दुनिया भर की सरकारें एचएफसी के उत्पादन और उपयोग को चरणबद्ध तरीके से कम करने पर सहमत हुई हैं।
हिंदू कुश हिमालय
हिंदू कुश हिमालय (या एचकेएच) एक शब्द है, जिसका इस्तेमाल दक्षिण और मध्य एशिया के पहाड़ी क्षेत्र को वर्णित करने के लिए किया जाता है, जो हिंदू कुश पर्वत श्रृंखला (अफगानिस्तान से ताजिकिस्तान तक) और स्वयं हिमालय (पाकिस्तान से म्यांमार तक) दोनों तक फैला हुआ है।
इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) द्वारा हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र के 2023 के आकलन में जलवायु परिवर्तन के कारण क्षेत्र में हो रहे व्यापक बदलावों का वर्णन किया गया है: ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, बर्फबारी के दिन कम हो रहे हैं और पर्माफ्रॉस्ट पिघल रहा है। इसका असर दक्षिण एशिया और उसके बाहर के देशों, समाजों और जैव विविधता पर बहुत अधिक होगा।
एरन वाइट ने इस टेक्स्ट में अपना सहयोग दिया है।
इस क्लाइमेट चेंज ग्लॉसरी का हिन्दी अनुवाद अमरदीप तिवारी द्वारा किया गया है।