एक बेहद मशहूर टीवी विज्ञापन की लाइन है, “बंटी तेरा साबुन स्लो है क्या?” इसमें दिखाया गया है कि स्कूली बच्चों का एक समूह जो कि समर कैंप में गया हुआ है, उनको हाथ धोने का निर्देश दिया जाता है। इस पूरे टाइम में नल का पानी चल रहा होता है। बंटी बहुत अच्छे से अपने हाथों को धोते हुए अपने दोस्तों से दावा करता है कि उसकी मां ने कहा है कि कीटाणु मुक्त करने के लिए हमें अपने हाथों को कम से कम एक मिनट तक हर हाल में धोना चाहिए। तभी उसके दोस्त आते हैं और एक ब्रांडेड साबुन के विज्ञापन के साथ उसे चिढ़ाते हुए कहते हैं कि केवल 10 सेकेंड तक हाथ धोने की जरूरत है। भारत में हाथ धोने के लेकर ये एक प्रचलित संदेश है जिसमें तेज साबुन 10 सेकेंड में और धीमा साबुन 1 मिनट में कीटाणुओं का खात्मा करता है।
मौजूदा समय में, भारत सहित दुनिया भर में कोरोना वायरस यानी कॉविड-19 का कहर बरपा हुआ है। इस महामारी से बचने का सबसे आसान तरीका उच्च स्तर की साफ-सफाई रखना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सलाह दी है कि हाथ धोने का आदर्श समय 20 सेकेंड का है और दिन में कई बार हाथ धुले जाने चाहिए। अब ये बेहद आवश्यक है। हम सब अपने हाथ धो रहे हैं। कोरोना महामारी के इस दौर में लोग हाथ मिलाने से परहेज कर रहे हैं। लेकिन कुछ न कुछ छूने से तो नहीं बचा जा सकता है। जितनी बार आप कुछ ऐसा छूते हैं उसके बाद आपको हाथों को साफ करना होता है या साबुन से धोना होता है और इसमें पानी की जरूरत बढ़ती जाती है।
दुनिया के अन्य देशों के साथ ही भारत में भी हैंड-सैनिटाइजर्स की मांग बहुत ज्यादा बढ़ गई है। ज्यादातर बड़े शहरों में दुकानों पर से सैनिटाइजर्स खत्म हो चुके हैं। ऐसे में कोरोना महामारी के कहर से बचने के लिए शहरी और ग्रामीण इलाकों की एक बड़ी आबादी को हाथ साफ रखने के लिए साबुन और पानी पर निर्भर रहना पड़ रहा है। लेकिन पानी की कमी झेलने वाले भारत जैसे देश में हाथ धोने के इस तरह के एकतरफा संदेश के साथ, जिसका फोकस पानी के बेहतर इस्तेमाल की बात कहने के बजाय साबुनों पर ज्यादा है, बड़ा खतरा ये है कि फास्ट और स्लो साबुनों के स्टॉक खत्म होने से पहले साफ पानी का स्टॉक खत्म हो जाएगा।
जल संरक्षण की जरूरत पर एक उचित संदेश का अभाव में लोग नलों के लंबे समय तक खुला छोड़ सकते हैं। काफी लोग कॉविड-19 की तुलना विनाशकारी स्पेनिश फ्लू (1918-20) से कर रहे हैं जो नये दशक की शुरुआत में पूरी दुनिया में कहर बनकर टूट पड़ा है। विभिन्न देश अपनी सीमाओं को बंद कर रहे हैं। व्यापार में भारी गिरावट आई है। कई एयरलाइंस के दीवालिया होने का खतरा मंडरा रहा है। टूरिज्म, हॉस्पिटैलिटी और रिटेल उद्योग बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। महामारी के प्रसार को रोकने के लिए पहली पंक्ति की सुरक्षा के तहत स्वच्छता के उच्चतम मानकों के साथ ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ और ‘फ्लैटनिंग द कर्व’ की वकालत की जा रही है।
मौजूदा वक्त में अगर हम देखें तो पाएंगे कि अचानक से विकास से संबंधित मुद्दों की चर्चा से परे सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण राष्ट्रों के लिए प्रमुख महत्व के विषय बन गये हैं। हालांकि, साफ पानी व स्वच्छता (एसडीजी 6), असमानता में कमी (एसडीजी 10), समावेशी समुदाय और शहर (एसडीजी 11) और जिम्मेदार खपत और उत्पादन (एसडीजी 12) सहित अन्य सतत विकास लक्ष्यों के मुख्य पहलुओं पर राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर ध्यान देने की जरूरत है। प्रभावी और टिकाऊ हाथ धोने की प्रैक्टिस पर लक्ष्यित संदेश पर ध्यान देने की बहुत जरूरत है। इसमें न केवल ये शामिल करने की जरूरत है कि किस तरह से हाथों को रगड़ कर धुलना चाहिए बल्कि ये भी बताना चाहिए जब साबुन हाथों पर रगड़ रहे हों, उस वक्त पानी खुला नहीं छोड़ना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब हम 20 सेकेंड तक हाथों में साबुन लगाकर झाग बना रहे हों उस वक्त नल बंद रखें, उसके बाद हाथ धुलने के वक्त नल खोल लें।
दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि मौजूदा समय में जो भी विज्ञापन या संदेश हैं उनमें सेलिब्रिटीज अच्छी तरह साफ-सफाई रखने की बात तो रखते हैं लेकिन पूरे प्रक्रिया के दौरान वीडियोज में नल का पानी भी खुला दिखता है। निराशाजनक स्थिति तो यहां तक है कि यू ट्यूब पर मौजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक वीडियो संदेश में भी एक महिला हाथों को साबुन से धो रही है और नल खुला हुआ है। पानी बर्बाद हो रहा है। भारत में कुछ शहरी क्षेत्रों और राज्यों में अब तक सबसे ज्यादा मामले सामने आए हैं और इन सभी में गर्मियों के मौसम में सूखे का खतरा भी सबसे ज्यादा रहता है। इनमें महाराष्ट्र, दिल्ली, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और हरियाणा शामिल हैं। भारत का तकरीबन 50 फीसदी क्षेत्र 2019 में सूखे से प्रभावित रहा जिनमें महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु और हरियाणा शामिल हैं। चेन्नई को अब तक के सबसे बड़े सूखे के संकटों में से एक का सामना करना पड़ा, जब 2019 की शुरुआत में शहर में पानी की भारी दिक्कत रही। बंगलुरु और दिल्ली पर पहले से ही भारी जल दबाव है। इनके अलावा कई अन्य शहरी क्षेत्र हैं जहां पर पानी की काफी दिक्कत है और वहां पर कोरोना वायरस के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं। महाराष्ट्र, कोरोना महामारी से बुरी तरह प्रभावित है जबकि ये राज्य पिछले कुछ वर्षों से लगातार सूखे की मार भी झेल रहा है। कई शहर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले शहरी गरीबों के आशियाने भी हैं। इन गरीबों की संख्या बहुत ज्यादा है। ये बहुत भीड़भाड़ वाले इलाकों में विपन्नता की स्थिति में रहते हैं। यहां तक कि ज्यादातर गरीबों को पाइप के जरिये मिलने वाला पानी तक नसीब नहीं है। जहां स्थिति थोड़ी ठीक है, वहां इन लोगों को इनके घर के आसपास किसी एक जगह से रोजाना करीब 30 मिनट पाइप वाले पानी की सप्लाई मिल पाती है। इन जगहों पर ये लोग लाइन लगाकर अपने लिए पानी इकट्ठा करते हैं।
ग्रामीण इलाकों में, जरूरी मानक के हिसाब से स्वच्छता रखना ज्यादा बड़ी समस्या है क्योंकि ज्यादातर मामलों में परिवारों की महिलाएं किसी जल स्रोत से पानी भरकर लाती हैं। ग्रामीण भारत में हाथों की स्वच्छता पर 2017 की वाटरएड स्टडी (ये भारत के चार राज्यों में हाथों की स्वच्छता से संबंधित जानकारियों और तौर-तरीकों पर जानकारी रखती है) में पाया गया है कि हाथों की स्वच्छता को लेकर कम से कम 33 फीसदी लोग पानी की कमी को एक प्रमुख बाधा मानते हैं। इसके अलावा 22 फीसदी लोगों ने माना कि हाथों की स्वच्छता के मामले में सबसे बड़ी बाधा साबुन की उपलब्धता है। मौजूदा हालात में, कॉविड-19 के खिलाफ लड़ाई में हमें हर हाल में कई मोर्चों पर प्रयास करने होंगे। इसमें स्वास्थ्य संकट और जल असुरक्षा के बीच असंतुलन को दूर करते हुए हमें अपने समुदायों को जल उपयोग के संदर्भ में दीर्घकालिक बनाना है। भारत में मानसून आने में अभी दो-तीन महीने बाकी हैं। ऐसी आशंका है कि मानसून आने से पहले ही कोरोना अपने चरम पर पहुंच चुका होगा क्योंकि ये गर्मियों के साथ चल रहा है।
पहले से कमजोर और अपर्याप्त साफ-सफाई जैसी स्थितियों के बीच जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों की वजह से उत्पन्न बार-बार आने वाली बाढ़ और सूखे जैसी समस्याएं स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की स्थितियों पर और जल संबंधी दबाव डालेंगी। भारत और जल संकट झेल रहे क्षेत्र के अन्य देशों, विशेषकर, बांग्लादेश में कॉविड -19 महामारी से लड़ने की दिशा में सुरक्षित और साफ पानी की उपलब्धता एक प्रमुख आवश्यकता है। अपनी ट्रांसबाउंड्री नदियों के प्रवाह के जरिये तकरीबन पूरी तरह भारत पर निर्भर बांग्लादेश बहुत तेजी से घटते भूजल के चलते पहले से ही 2020 के शुरू में अपने उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में जल आपातकाल घोषित करने की तैयारी कर रहा था।
मौजूदा स्थिति में बदलाव न होने के दृष्टिकोण का समाज और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में व्यापक असर पड़ता है। विभिन्न मंत्रालयों विशेषकर स्वास्थ्य और जल, सेवा वितरण भागीदारों और सामाजिक क्षेत्र के बीच बेहतर समन्वय के साथ, इस तरह की किसी भी घटना की पहले से तैयारी करना समय की आवश्यकता है।
मसलन, सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा के एक बड़े उदाहरण कॉविड -19 परिदृश्य में देखें तो पिछले साल चेन्नई में एक भयानक जल संकट की स्थिति देखी गई थी।
पिछले साल चेन्नई ने भयानक जल संकट का सामना किया और इस साल हम कोरोना संकट से जूझ रहे हैं जो सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा का एक प्रमुख उदाहरण साबित हुआ है। अगर हम पूरी तरह से सामाजिक, आर्थिक, जल और स्वास्थ्य क्षेत्रों में प्रभावी साझेदारी और ठोस प्रयासों के साथ सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की मूल जरूरतों को हासिल करने में भी नाकाम साबित होते हैं, तो एसडीजी का मतलब केवल सोशल डिस्टेंसिंग गोल्स (एसडीजी) रह जाएगा जो आज के वक्त में बेहद चर्चा में है।
(अंबिका विश्वनाथ, मुंबई स्थित, जियोपॉलिटिकल एडवाइजरी, कुबेरिन इनीशिएटिव के संस्थापक निदेशक हैं। वह एक जल सुरक्षा और कूटनीति विशेषज्ञ हैं। मिर्ज़ा ज़ुल्फ़िकुर रहमान, दिल्ली में इंस्टीट्यूट ऑफ़ चाइनीज़ स्टडीज़ में एक रिसर्च एसोसिएट हैं। उन्होंने आईआईटी, गुवाहाटी से डेवलपमेंट स्टडीज में पीएचडी की है।)