आश्चर्य की बात है कि जलवायु से जुड़ी एक ज़रूरी पहल की घोषणा मिस्र में COP27 के दौरान नहीं की गई, बल्कि, जी 20 समिट के दौरान की गई। 15 नवंबर को बाली में जी 20 लीडर्स समिट ने इंडोनेशिया के साथ 20 अरब डॉलर की जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन पार्टनरशिप (जेईटीपी) की शुरुआत की। आबादी के लिहाज से इंडोनेशिया दुनिया का चौथा सबसे बड़े देश है। इंडोनेशिया अपनी बिजली का लगभग 60 फीसदी अपेक्षाकृत नए कोयला बिजली संयंत्रों से उत्पन्न करता है। इंडोनेशिया के क्लीन एनर्जी ट्रांज़िशन के वैश्विक प्रभाव हैं। एक अमेरिकी अधिकारी द्वारा इसे “शायद अब तक के सबसे बड़े जलवायु वित्त लेनदेन या साझेदारी” के रूप में वर्णित किया गया।
इंडोनेशिया का जेईटीपी, कॉप 26 में लॉन्च किए गए दक्षिण अफ्रीका के साथ 8.5 अरब डॉलर जेईटीपी का अनुसरण करता है। इस प्रक्रिया में शामिल होने के लिए भारत और वियतनाम पर भी दबाव डाला गया है। इन स्थितियों में, भारत, इनके लिए एक बड़ी उपलब्धि हो सकता है क्योंकि यहां की आबादी बहुत ज्यादा है और इसका कार्बन उत्सर्जन भी बहुत अधिक है। भारत या तो सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले देशों में तीसरे स्थान पर है, या चौथी राजनीतिक यूनिट है। (यह इस बात पर निर्भर करता है कि कोई यूरोपीय संघ का मापन कैसे करता है)। भारत सरकार ने अब तक इसका विरोध किया है। और कॉप 27 में प्रस्तुत भारत की लॉन्ग-टर्म लो-कार्बन डेवलपमेंट स्ट्रेटेजी (एलटी-एलईडीएस) यह दिखाने का एक तरीका है कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
एलटी-एलईडीएस को मूल रूप से तीन वर्गों में बांटा जा सकता है: (i) अधिक नवीकरणीय-आधारित ऊर्जा उत्पादन की रणनीति, जिससे उत्पादित ऊर्जा की प्रति यूनिट कार्बन उत्सर्जन तीव्रता कम हो; (ii) इलेक्ट्रिक वाहन, जैव-ईंधन, हरित हाइड्रोजन और (विवादास्पद) कार्बन कैप्चर और स्टोरेज जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों को अपनाना और (iii) एक सामाजिक आंदोलन जो “पारंपरिक”, कम खपत वाली जीवन शैली के प्रचार के माध्यम से कम खपत को बढ़ावा देगा।
इनमें से आखिरी का कोई वास्तविक मापन नहीं हो सकता। और कुछ हद तक यह पहले दो के ऊर्जा उत्पादन पर फोकस करने से अलग है। फिर भी, इन तीनों से एक बात पता चलती है कि यह कोयला आधारित बिजली उत्पादन को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने से पूरी तरह बचना है।
भारत में कोयला बरकरार है
यहां कोई एनर्जी ट्रांज़िशन नहीं है, केवल नवीकरणीय ऊर्जा का प्रचार है और अधिक कोयला आधारित बिजली उत्पादन के साथ इसका अधिक कुशल उपयोग है। वास्तव में, पिछले एक साल में भारत ने अपने कोयला आधारित बिजली उत्पादन में 10 फीसदी की वृद्धि (नवीकरणीय ऊर्जा में 21 फीसदी की वृद्धि के साथ) की है। भारत की ऊर्जा का लगभग तीन-चौथाई, कोयला संयंत्रों द्वारा उत्पादित किया जाता है। अक्षय ऊर्जा को आक्रामक रूप से अपनाने के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था में इसका समग्र योगदान कम हो सकता है, लेकिन कुल उत्सर्जन नीचे की ओर नहीं है।
सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक नौकरी है। कुछ महीने पहले, भारत के ऊर्जा रूपांतरण पर एक वरिष्ठ भारतीय राजनेता के साथ क्लोज्ड-डोर सेशन में जलवायु और पर्यावरण के क्षेत्र से जुड़े पत्रकारों के समूह में मैं भी एक आमंत्रित सदस्य था। राजनीतिज्ञ द्वारा पूछे गए प्रमुख प्रश्नों में से एक यह था कि ऊर्जा रूपांतरण को कैसे बेचा जाए। उनका कहना था कि, एक निर्वाचित प्रतिनिधि के रूप में, उनकी मुख्य जिम्मेदारी अपने मतदाताओं के प्रति है। और उनकी मुख्य मांग नौकरी है।
यह एक प्रमुख मुद्दा है, जिस पर सब कुछ अटक जाता है। कोल इंडिया लिमिटेड दुनिया की सबसे बड़ी सरकारी स्वामित्व वाली कोयला उत्पादन कंपनी है, और भारत में तीसरी सबसे बड़ी नियोक्ता है। यह सीधे तौर पर करीब 300,000 लोगों को रोजगार देती है। साथ ही, निजी क्षेत्र और सहायक उद्यमों से लगभग 10 लाख नौकरियां आती हैं। अनौपचारिक क्षेत्र को जोड़ दिया जाए तो यह उद्योग अपेक्षाकृत गरीब छह भारतीय राज्यों में काम करने वाले लाखों लोगों को प्रभावित करता है। इनमें रेल द्वारा कोयला ट्रांसशिपमेंट में सृजित नौकरियों को नहीं जोड़ा गया है। यह एक अन्य सरकारी स्वामित्व वाला उद्यम है जो अपने क्षेत्र में दुनिया में सबसे बड़ा उद्यम है। वास्तव में, रेल यात्रा को सब्सिडी देने के लिए रेलवे, कोयले की ढुलाई के लिए भारी शुल्क लेता है।
इनमें से कई नौकरियां न तो सम्मानजनक हैं और न ही अच्छा भुगतान करने वाली हैं, लेकिन एक बड़ी और बढ़ती आबादी वाले देश में, किसी भी स्थिर नौकरी का स्वागत होता है।
इसके अलावा, भारत और इंडोनेशिया के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है। इंडोनेशियाई क्षेत्र दुनिया की भू-तापीय ऊर्जा का लगभग 40 फीसदी हिस्सा है, जिसमें से शायद 5 फीसदी का ही दोहन किया गया है। इंडोनेशिया के पास अभी भी ऊर्जा आपूर्ति का विस्तार करते हुए और उच्च गुणवत्ता वाली नौकरियां पैदा करते हुए, खुद को कोयले से दूर करने के विकल्प हैं। वैसे तो, भारत तेजी से अपनी नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता का विस्तार कर रहा है। लेकिन इस दिशा में भारत को लंबे समय तक काम करना होगा। इसके साथ ही बेस पावर- जब सूरज न चमक रहा हो या हवाएं न चल रही हों, तो उस समय एक संभावित त्वरित बदलाव के बजाय – के मुद्दों को भी हल करना होगा
जस्ट ट्रांज़िशन के लिए कोई राजनीतिक सहमति नहीं
दक्षिण अफ्रीका और भारत के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर यह भी है कि दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने अपने अतीत से दूर जाने के लिए एनर्जी ट्रांज़िशन पर ध्यान केंद्रित किया है। जेईटीपी इसका एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा है। और एक प्रेसिडेंशियल क्लाइमेट फाइनेंस टास्क टीम का निर्माण, एक ऐसे देश में राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है जो “वर्तमान और ऐतिहासिक असमानता को ध्यान में रखते हुए हल निकालना चाहता है, नौकरियां पैदा करना चाहता है, गरीबी से राहत देना चाहता है, जलवायु प्रभावों और ऊर्जा अस्थिरता के प्रति रिजिलियंस को लेकर सक्षम बनाना चाहता है और सस्ती बिजली तक पहुंच प्रदान करता है, और किसी को पीछे नहीं छूटने देता है।”
वैसे, दक्षिण अफ्रीकी जेईपीटी इन उद्देश्यों में से, कुछ में असफल होने और सार्वजनिक उपक्रम की कीमत पर, जो इन मुद्दों में से कुछ से निपट सकता है, निजी क्षेत्र को सशक्त बनाने के लिए, तीखी आलोचना के दायरे में आया है। ये आलोचनाएं राजनीतिक दावों के इर्द-गिर्द ही हैं।
भारत में, ऐसी कोई राजनीतिक सहमति मौजूद नहीं है। वास्तव में, वही कंपनियां जो नवीकरणीय ऊर्जा जैसे सौर ऊर्जा में निवेश करने में अग्रणी हैं, अक्सर कोयला खनन के लिए जोरदार भिड़ंत में शामिल होती हैं।
इसके अलावा, दक्षिण अफ्रीका के अनुभव से निकली आलोचना के आधार पर एक चिंता यह भी है कि जेईटीपी वास्तव में “न्यायसंगत” कैसे हैं?
हालांकि सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन रिपोर्टिंग से पता चलता है कि 650 अरब रुपए का केवल 4 फीसदी ही अनुदान के रूप में होगा, बाकी मुख्य रूप से ऋण के रूप में होगा, जो देश के कर्ज के बोझ को बढ़ा देगा। दक्षिण अफ्रीका को अपने ऊर्जा रूपांतरण के लिए अगले पांच वर्षों में 1.5 ट्रिलियन दक्षिण अफ्रीकी रेंड यानी 8,000 अरब रुपए की आवश्यकता होगी, लेकिन उसकी तुलना में यहां 650 अरब रुपए ही है।
इसी तरह, इंडोनेशिया को अपने कोयले के बेड़े को बंद करने के लिए अनुमानित 3025 अरब रुपए की आवश्यकता है। इसके अलावा, ऊर्जा के नए बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए कितना पैसा लगेगा, उसकी अभी तक कोई गणना नहीं हो पाई है।
दक्षिण अफ्रीका के अनुभव से निकली आलोचना के आधार पर एक चिंता यह है कि जेईटीपी वास्तव में “न्यायसंगत” कैसे हैं?
जब भारत के जेईटीपी की बात आती है तो यह आंकड़ा 6542 बिलियन रुपए का है, लेकिन एक बार फिर यह स्पष्ट नहीं है कि यह अनुदान या ऋण में कितना है। यह समझा जा सकता है कि एक बड़े कर्ज के बोझ को उठाने के लिए भारत क्यों तैयार नहीं हो रहा है। इसके अलावा, जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि जिस समस्या में उसका कोई योगदान नहीं रहा है, उसके समाधान के भुगतान के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं।
फिर भी, यह पूछने योग्य है कि क्या भारतीय निवेश की करेंट ट्रजेक्टरी, बदलते परिवेश की चुनौतियों से निपटने के लिहाज से तैयार की गई है। भारत ने केवल पिछले पांच वर्षों में ही 10,060 अरब रुपए से अधिक के खराब ऋण (बैड डेट) को बट्टे खाते (राइट ऑफ करना) में डाल दिया है, इनमें से अधिकांश बैड डेट सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का है। इसका मतलब यह है कि टैक्स मनी से इनके बैड डेट को राइट ऑफ किया गया है।
वैसे तो, यह पता नहीं है कि कोयला क्षेत्र का कितना बैड डेट, राइट ऑफ हुआ। लेकिन इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस की दिसंबर 2019 की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि भारत में थर्मल प्लांट में 3271-4906 अरब रुपये लगे थे, जो “फंसी हुई संपत्ति” थी।
एक उद्धरण में उल्लेख किया गया है, “वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के अनुसार, भारत की वर्तमान थर्मल क्षमता का 40 फीसदी, पानी की कमी वाले क्षेत्रों में स्थित है। पानी की कमी के कारण बिजली उत्पादन में नुकसान होता है और बिजली उत्पादकों के लिए भारी राजस्व का नुकसान होता है।”
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की असमानता पर अब अधिक वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध है। भारत जैसे देशों के लिए यह मांग करना पूरी तरह से उचित है कि इस संकट के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार देश, केवल बोझ बढ़ाने के बजाय भुगतान करें। कहा गया है कि एक ऊर्जा रूपांतरण बस, घरेलू परिप्रेक्ष्य से और विशुद्ध रूप से अच्छे निवेश कारणों से सही साबित हो सकता है।
भारत में नीचे से ऊपर तक बदलाव की उम्मीद है
एक स्पष्ट सरकारी कार्य योजना, नौकरियों या ऊर्जा उत्पादन के विकल्प, या एक राजनीतिक सहमति के बिना, भारत में एक उचित ऊर्जा रूपांतरण की राह अविश्वसनीय रूप से कठिन दिखती है। फिर भी, केवल अपने ऊर्जा विस्तार को जारी रखने के अपने वर्तमान दृष्टिकोण के बावजूद, भारत नीचे से ऊपर तक परिवर्तन के लिए परिस्थितियों का निर्माण कर सकता है। जनवरी 2022 में, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर, द् नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल और स्किल काउंसिल फॉर ग्रीन जॉब्स की एक संयुक्त रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि सौर और पवन क्षेत्रों ने 111,400 लोगों को काम में शामिल किया। आगे यह भी अनुमान लगाया गया कि अगर भारत 2030 तक 101 गीगावाट पवन और 238 गीगावाट सौर ऊर्जा का लक्ष्य हासिल करता है, तो यह लगभग 34 लाख लघु और दीर्घकालिक रोजगार सृजित करेगा। इसके साथ ही, नवीकरणीय क्षेत्र में एक लाख स्थिर नौकरियां होंगी।
वह संख्या कोयला क्षेत्र द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नियोजित संख्या को टक्कर देगी, जिससे एक बड़ी राजनीतिक मांग पैदा होगी जो वर्तमान यथास्थिति को चुनौती देगी। अधिक दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कई नौकरियां कहां स्थित हैं। पॉवर फॉर ऑल द्वारा सितंबर 2022 में जारी एक रिपोर्ट में भारत में विकेंद्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र द्वारा सृजित लगभग 80,000 नौकरियों की पहचान की गई है।
विकेंद्रीकृत ऊर्जा के लिए विशेष रूप से, नौकरियां अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में होती हैं जहां मांग अधिक होती है, क्योंकि ग्रिड इलेक्ट्रिसिटी या तो उपलब्ध नहीं है या अविश्वसनीय है। इसके अलावा, उप-सहारा अफ्रीका में कम परिपक्व बाजारों के विपरीत, भारत में बेसिक सोलर होम सिस्टम्स के बजाय मिनी ग्रिड्स या स्टैंडअलोन कॉमर्शियल या इंडस्ट्रियल सोलर सिस्टम की मांग है।
इसका मतलब यह है कि नियोजित लोग अक्सर बहुत अधिक कुशल (कार्यबल का 71 फीसदी) हैं, और इन प्रणालियों का ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योग और आजीविका को बढ़ावा देने के सकारात्मक प्रभाव होंगे। इसके आकार, विविधता और प्रतिस्पर्धात्मक राजनीतिक दावों को देखते हुए, अक्सर यह कहा जाता है कि भारत में इन सब वजहों से रूपांतरण होता है सरकार के कारण नहीं। वैश्विक मंच पर भारत, जिस तरह का गहन संरक्षणवादी दृष्टिकोण को अपनाता है, वह निराशाजनक है, लेकिन वह पूरी कहानी नहीं है। जमीनी स्तर पर हो रहे छोटे, कैस्केडिंग बदलाव इस बात का बेहतर पैमाना हो सकते हैं कि देश कैसे बदल रहा है।