नॉर्वे के जलवायु एवं पर्यावरण मंत्री स्वेनुंग रोटेविट पिछले दिनों भारत दौरे पर थे। वह यहां करीब एक सप्ताह तक रहे। यह उनकी पहली भारत यात्रा थी। नॉर्वे के दूतावास में 18 फरवरी, 2020 की शाम उनके साथ एक लंबी बैठक हुई। इस दौरान उन्होंने अपनी इस सफल यात्रा के बारे में बातचीत की। उन्होंने मैंग्रोव को लेकर अपनी सीख के बारे में बताया। उन्होंने अफरोज शाह द्वारा वर्सोवा समुद्री तट की सफाई के बारे में अपनी जानकारी के बारे में बताया। उन्होंने ये भी कहा कि किस तरह से गुजरात सरकार के लिए ये बहुत शानदार है क्योंकि इससे सरकार को बिना हाइड्रोफ्लोरोकॉर्बंस के इस्तेमाल के आग जलाने और खाना बनाने के लिए ईंधन का इंतजाम हुआ। नॉर्वे के पर्यावरण मंत्री ने ये भी बताया कि भारत के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के साथ सतत समुद्री इस्तेमाल को लेकर एक संयुक्त बयान भी जारी किया गया।
मई 1987 में जन्मे स्वेनुंग रोटेविट नॉर्वे की गठबंधन सरकार में जूनियर पार्टनर लिब्रल पार्टी के चेहरे हैं। पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर अपनी राय रखने के लिए लिब्रल पार्टी की विशेष पहचान है। स्वेनुंग रोटेविट ने इसी मंत्रालय में स्टेट सेक्रेट्री की जिम्मेदारी भी निभाई है।
उन्होंने thethirdpole.net के साथ अपने इस बेबाक इंटरव्यू में भारत यात्रा के अपने अनुभव साझा किये। अपनी उम्मीदों के बारे में बताया। क्लाइमेट डिप्लोमेसी की चुनौतियों को लेकर बात की। स्थानीय निवासियों के अधिकारों के महत्व को लेकर चर्चा की। साथ ही संकटपूर्ण शासनों के अभ्युदय को लेकर भी बातचीत की।
आपकी भारत यात्रा की सबसे खास बात क्या रही? आप इसे सफलता के रूप में कैसे बताएंगे?
भारत के पर्यावरण मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री (जो पृथ्वी विज्ञान मंत्री भी हैं) के साथ मेरी बहुत अच्छी बैठकें हुईं। मेरे और भारत के पर्यावरण मंत्री की तरफ से जारी किया गया साझा वक्तव्य बहुत शानदार रहा। ये आगे बढ़ने की दिशा में उठाया गया कदम है। इसमें समुद्री कूड़े पर अंतर्राष्ट्रीय समझौते की दिशा में आगे बढ़ने को लेकर दोनों देशों की प्रतिबद्धता की बात है जो हमारे लिए बेहद आवश्यक है।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के जरिये इंडिया–नॉर्वे कॉपरेशन को लेकर काफी उम्मीदें जताई जा रही हैं। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
बिलकुल। हमें खुशी है कि वे अपने अनुभव साझा करने के लिए तैयार हैं। नॉर्वे के पास एक इंटीग्रेटेड ओशन मैनेजमेंट प्लान है। और वह इस बात को लेकर रुचि ले रहे हैं कि ये भारत में कैसे काम कर सकता है।
ये इंटीग्रेटेड ओशन मैनेजमेंट प्लान क्या है?
यह एक तरह से समुद्र को लेकर एक मास्टर प्लान है। इसके जरिये कोई भी पर्यावरण की जरूरतों को संतुलित कर सकता है। इसके जरिये संसाधनों को लेकर संघर्ष, पेट्रोलियम इंडस्ट्री और मत्स्य उद्योग को भी संतुलित किया जा सकता है। वैसे तो समुद्र बहुत विशाल प्रतीत होता है लेकिन वहां भी वास्तविक संघर्ष की संभवनाएं हमेशा मौजूद हैं।
आकार, प्रति व्यक्ति आय और जनसंख्या की बात करें तो भारत और नॉर्वे में कोई तुलना नहीं की जा सकती, ऐसे में वहां की योजना भारत में कैसे सफलतापूर्वक लागू की जा सकेगी?
समुद्री क्षेत्र की तुलना की जा सकती है। हमारे पास बहुत बड़ी समुद्री तटरेखा है। इसके प्रबंधन को लेकर यूके और आइसलैंड जैसे देशों के साथ हमारे कुछ विवाद भी होते रहे हैं। हमारे पास मछलियों के स्टॉक में अस्थिरता थी। वहीं, भारत में गरीबी एक बड़ी चुनौती है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि जब हमारे यहां मछली पकड़ने वाले समुदायों ने ये काम शुरू किया था तो वह बहुत अमीर थे। हमें विकल्पों को पेश करने और संसाधनों को निष्पक्ष रूप से वितरित करने में सक्षम होने की जरूरत है। इन मुद्दों में से एक मछली पकड़ने के काम में लगे बड़े उद्योगों और स्थानीय मछुआरों के बीच संघर्ष भी है।
नॉर्वे ने इसका प्रबंधन कैसे किया?
हम मछलियों की प्रत्येक प्रजाति को लेकर कोटा तय कर देते हैं। साथ ही साथ, छोटे मछुआरे कितनी मछलियां पकड़ेंगे और मछली पकड़ने के काम में लगी बड़ी कंपनियां कितनी मछलियां पकड़ेंगी, इसको लेकर हम कैप भी लगा देते हैं। इसको समझने के लिए गहरी वैज्ञानिक जानकारी की जरूरत होती है। मसलन, वहां कितनी मछलियां हैं। किस प्रजाति की मछलियां हैं। मछलियां का कितना स्टॉक वहां से हट चुका है। इन सबको लेकर भारत के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने रुचि दिखाई है। इसके लिए काफी शोध की जरूरत होती है। हम अपने पर्यावरणीय एजेंसियों की संस्तुतियों को भी बेहद गंभीरता से लेते हैं।
इसको लेकर स्थानीय समुदायों की क्या भागीदारी है?
स्थानीय समुदाय और सरकार के बीच बड़े स्तर पर संघर्ष का नॉर्वे में इतिहास रहा है। पूर्व में केंद्र सरकार ने स्थानीय समुदायों के अधिकारों को लेकर गंभीर अतिक्रमण किये हैं। मसलन, स्थानीय संस्कृति को खत्म करना, उनको अपनी भाषा न पढ़ने देना इत्यादि। अब हमने मान्यता दी है कि किंगडम ऑफ नॉर्वे दो लोगों की भूमि है। वे हैं– नॉर्वेजियंस और सामी। ये दोनों हमारे मुख्य स्थानीय समुदाय हैं। हमने उनके लिए ऐसे रास्ते खोजे हैं जिससे वे भूमि और मछली पकड़ने के अधिकारों को प्रबंधित कर सकें। साथ ही हमने ये भी व्यवस्था की है कि वे बारहसिंघा पालन भी कर सकें जो उनकी जीविका का परंपरागत स्रोत है।
क्या यह अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में जारी रह सकता है?
जंगलों के सतत प्रबंधन में स्थानीय लोग सबसे अहम हैं। हम इस बात को अपनी जलवायु वार्ताओं और योजनाओं में भी लाए हैं। नॉर्वे उष्णकटिबंधीय वर्षावन संरक्षण का सबसे बड़ा समर्थक है। ब्राजील और इंडोनेशिया के साथ हमारी साझेदारी में वनों के संरक्षक के रूप में स्थानीय लोगों की भूमिका पर विशेष जोर रहा है।
ब्राजील की नई सरकार के साथ क्या यह संभव हो पाएगा?
यह काफी मुश्किल है। हम नये शासन के साथ काम करने की कोशिश की है लेकिन हमें समस्याओं का सामना करना पड़ा है। ब्राजील की नई सरकार (जैर बोल्सोनारो की अगुवाई वाली) फंड के प्रवाह को बदलना चाहती है। साथ ही वह सिविल सोसाइटी के लोगों और स्थानीय समुदायों की तुलना में केंद्रीय सरकार को ज्यादा अधिकार देना चाहती है। एमजॉन फंड के लिए नई फंडिंग को अब फ्रीज कर दिया गया है, हालांकि काम के लिए पहले से जारी की गई फंडिंग को ब्राजील सरकार जारी किये हुए है।
कई नये शासन कदम पीछे खींच रहे हैं, इसका मतलब ये तो नहीं है कि जलवायु परिवर्तन कूटनीति पीछे चली जाएगी?
इंडोनेशिया, कोलंबिया, गैबॉन, गुयाना जैसे अन्य स्थानों के साथ हमारी साझेदारी अभी भी अच्छी चल रही है। हमें ये भी उम्मीद है कि ब्राजील से साझेदारी के मामले में हम नये तरीके से रास्ता खोज सकते हैं। लेकिन इसमें थोड़ी सी प्रगति हुई है। पिछली क्लाइमेट कॉप में इस पर कोई बड़ा काम नहीं हो पाया, हालांकि ये निराश करने वाला था। हमें लगा था कि ये एक आपदा की तरफ बढ़ रहा है। अगला कॉप ग्लास्गो में है, वहां इसकी सफलता या असफलता तय हो जाएगी।
समस्या ये है कि हम गर्मी के 3 डिग्रीज सेंटीग्रेड की तरफ बढ़ रहे हैं (पूर्व औद्योगिक युग से) जो कि विनाशकारी हो जाएगा। देशों ने इस दिशा में पर्याप्त काम नहीं किया। और तो और देशों ने पर्याप्त वादे भी नहीं किये। दो सप्ताह पहले नॉर्वे ने अपने नेशनली डेटरमाइंड कॉन्ट्रीब्यूशन (एनडीसी) लक्ष्य में पेरिस एग्रीमेंट के तहत इजाफा किया है। अब नॉर्वे ने 2030 तक अपने उत्सर्जन में 50 फीसदी तक कटौती करने का वचन दिया है। इस तरह नॉर्वे ऐसा करने वाला पहला औद्योगिक देश बन गया है और यह तीसरी दुनिया का पहला ऐसा देश है जिसने उत्सर्जन में कटौती करने की अपनी वचनबद्धता को बढ़ाया है।
लेकिन हमें सबकी जरूरत है। कोई भी अपने दम पर ऐसा करने के लिए पर्याप्त नहीं है, यहां तक कि चीन भी इतना बड़ा नहीं है। पेरिस एग्रीमेंट से अमेरिका का बाहर हो जाना एक बड़ी समस्या है। किसी अन्य देश ने ऐसा नहीं किया है। ब्राजील ने ऐसा करने को कहा था लेकिन अभी तक किया नहीं है। वहीं, रशियन फेडरेशन ने इस एग्रीमेंट को स्वीकार कर लिया है।
औद्योगिक देश और विकासशील देश इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए किस तरह से सहयोग करेंगे? विकासशील देशों में प्रति व्यक्ति आय कम है, इसलिए समृद्धि की दिशा में वे अपने कदम पीछे नहीं खींच सकते?
हम चाहते हैं कि कोयले को हटाने को लेकर नॉर्वे दूसरों के साथ सहयोग करे। अक्षय ऊर्जा स्रोतों में निवेश को लेकर कोई परेशानी नहीं है लेकिन इससे तब तक कोई फायदा नहीं होगा जब तक कोयले को नहीं हटाया जाता है। ये करना बहुत मुश्किल है। उदाहरण के लिए हम वियतनाम के साथ सब्सिडी वाले अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर काम कर रहे हैं लेकिन वे कोयले से चलने वाले विद्युत संयंत्रों का भी निर्माण कर रहे हैं। इसका मतलब ये है कि आपके पास अक्षय ऊर्जा और कोयले से मिलने वाली ऊर्जा दोनों है। इससे उत्सर्जन में कटौती नहीं हो सकती। इन कोशिशों को एनडीसी के साथ अवश्य जोड़ा जाना चाहिए।
इतनी भारी मात्रा में गैस और तेल का उत्पादन करने वाले नॉर्वे के लिए क्या ये कहना इतना आसान नहीं है?
हम एक विरोधाभास की तरह हैं। हमारी घरेलू अर्थव्यवस्था जीवाश्व ईंधनों से मुक्ति पा रही है लेकिन हम अब भी जीवाश्व ईंधनों का निर्यात करते हैं। इस मामले पर ये एक मजबूत और अलग विचार है। हमारी पार्टी पर्यावरण के पक्ष में है। हमने अधिक प्रतिबंधों के पक्ष में अपनी बात रखी है। तेल की खोज के लिए लोफेटन द्वीप समूह जैसे नये और संवेदनशील क्षेत्रों पर काम न करने के लिए नॉर्वे वचनबद्ध है। हमने करों को बढ़ा दिया है लेकिन यहां तक कि पर्यावरण के पक्ष में खड़े लोगों ने भी ये नहीं कहा है कि हमें इसे पूरी तरह से मिलकर रोकना है।