सैंकड़ों भेड़-बकरियों के झुंड के साथ भोटिया जनजाति के पशुपालक उत्तराखंड के ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों के बुग्यालों (meadows, grassland in higher hilly region) से लेकर हिमालयी घाटियों के चारागाहों तक लंबी यात्रा करते हैं। बकरी- भेड़ और उनका मीट-ऊन इनकी आजीविका का पारंपरिक ज़रिया रहा है। लेकिन चारागाहों, पशुपालन की बढ़ती चुनौतियां और सीमित आमदनी समुदाय को अपने पारंपरिक पेशे से दूर कर रही है।
उत्तरकाशी के भटवाड़ी तहसील का बगोरी गांव भोटिया जनजाति (जाड नाम से भी प्रचलित) के पशुपालकों का गांव है। चीन सीमा के नज़दीक नेलंग-जादुंग क्षेत्र से ठीक पहले बुग्यालों में जून से अगस्त तक का समय बिताने के बाद पशुओं के साथ पशुपालक सितंबर में गांव वापस लौटे।
भागीरथी नदी के किनारे खिली धूप में भेड़ों से ऊन निकाला जा रहा था। चरान और ऊन निकालने की ज़िम्मेदारी पुरुष संभालते हैं। जबकि भेड़ों से उतारी गई ऊन की सफ़ाई, धुलाई, कार्डिंग से लेकर ऊनी वस्त्र तैयार करने का ज़िम्मा महिलाओं के हिस्से है।
चारागाह की समस्या
यहां मौजूद बगोरी गांव के भोटिया जनजाति के 60 वर्षीय पशुपालक राजेंद्र सिंह नेगी कहते हैं “ भेड़-बकरियों के साथ हमें घुमंतू जीवन जीना होता है। सर्दियों में हम ऋषिकेश के चोरपानी क्षेत्र तक जाते हैं। दीपावली तक हम घाटियों में पहुंच जाते हैं और होली के समय गर्मियां शुरू होने पर वापस ऊपर उत्तरकाशी की ओर बढ़ने लगते हैं। वर्ष 1964 से हमारे पास चोरपानी क्षेत्र के जंगलों में रहने की रसीदें हैं। हालांकि हम उससे भी पहले वहां रहते आए हैं। लेकिन अब बिना परमिट जंगल नहीं जा सकते।”
इस वर्ष नवंबर में राजेंद्र समेत 7 पशुपालक भेड़-बकरियों के साथ चोरपानी पहुंचे तो उन्हें परमिट वाले क्षेत्र में पौधरोपण किया हुआ मिला। वह कहते हैं “जंगल के जिस हिस्से का हमें परमिट दिया गया है वहीं वन विभाग ने पौधरोपण कर दिया। यहां एक समय 50 से अधिक परिवार आया करते थे अब मात्र 7 परिवार रह गए हैं। हमें फिर चरान की जगह नहीं मिल रही।”
जंगल में पशुओं के चरान के लिए पशुपालकों को हर वर्ष वन विभाग से नया परमिट लेना होता है। पुराने परमिट के आधार पर ही नया परमिट मिलता है। एक पिता के दो बेटे हैं तो परमिट एक को ही मिलेगा। परमिट के साथ ही पशुपालकों को पशु संख्या के आधार पर शुल्क देना होता है।
उत्तरकाशी के मोरी तहसील के फिताड़ी गांव के युवा पशुपालक जयमोहन सिंह राणा के पास करीब 500 भेड़-बकरियां हैं। वह कहते हैं “मसूरी फॉरेस्ट डिविजन में शीतकालीन चरान के लिए तकरीबन 8 हज़ार हेक्टेअर वन क्षेत्र दिया जाता था। वर्ष 2011-12 की कार्ययोजना में इसे मात्र 3-4 हेक्टेअर कर दिया गया। इसी क्षेत्र में विभाग पौधरोपण भी करता है। फिर पशुओं का वहां जाना प्रतिबंधित कर दिया जाता है।” वह इस बारे में तत्कालीन मुख्यमंत्री को लिखा गया एक पत्र भी दिखाते हैं।
हताश भेड़पालक!
बगोरी गांव के भोटिया जनजाति के पशुपालक 73 वर्षीय नारायण सिंह नेगी के दो बेटे पढ़ाई के बाद नौकरी कर रहे हैं। वह कहते हैं “वर्किंग प्लान के नाम पर हमें जंगल से दूर किया जा रहा है। बरसात के बाद सारा जंगल हरा-भरा हो जाता है। नवंबर-दिसंबर तक सूख चुकी घास हमारे पशु चरते हैं। जिससे जंगल से सूखी घास का सफाया होता है। जो जंगल को आग से बचाता है। वहीं भेड़-बकरियों के जंगल में छोड़े गए मल से पौधों के खाद का इंतजाम होता है। पशुओं के खुरों से मिट्टी की गुड़ाई (weeding) भी होती है।”
वह बताते हैं “प्रति पशु चरान के लिए दिये जाने वाले शुल्क को लगातार बढ़ाया जा रहा है। एक रुपये प्रति भेड़ और 2 रुपये प्रति बकरी शुल्क को बढ़ाकर दो रुपये प्रति भेड़ और 4 रुपये प्रति बकरी किया गया था। इस वर्ष 2021 में प्रति भेड़ 8 रुपये और प्रति बकरी 16 रुपये कर दिया गया है। एक पशुपालक के पास सैंकड़ों पशु होते हैं। वन विभाग वाले चाहते हैं कि भेड़पालक हताश होकर जंगल छोड़ दें।”
जंगल की क्षमता का सवाल
उत्तराखंड जैव-विविधता बोर्ड के अध्यक्ष राजीव भरतरी भी ये मानते हैं कि भोटिया समेत अन्य पशुपालकों को जंगल में चरान के लिए दिया जाने वाला वन क्षेत्र पहले की तुलना में कम हो गया है।
उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के मुख्य वन संरक्षक सुशांत कुमार पटनायक कहते हैं “भेड़-बकरियों की संख्या हमारे जंगलों की क्षमता (कैरिंग कैपिसिटी) से अधिक बढ़ गई है। अधिक चरान से जंगल की गुणवत्ता खराब हो रही है।”
वह बताते हैं कि राज्य में चरान के लिए दिये जाने वाला संरक्षित वन क्षेत्र चिन्हित है। इसी क्षेत्र से सभी फॉरेस्ट डिविजन के लिए 10 साल का वर्किंग प्लान बनाया जाता है। चरान के लिए जंगल का कौन सा हिस्सा खोलना है, ये इसी वर्किंग प्लान में तय होता है। इसमें रोटेशनल ग्रेजिंग पॉलिसी अपनायी जाती है। यानी जंगल के किसी हिस्से को एक वर्किंग प्लान में 10 साल के लिए चरान के लिए खोला गया है तो अगले वर्किंग प्लान में वो हिस्सा सामान्य तौर पर बंद रहेगा और दूसरे हिस्से को चरान के लिए खोला जाएगा।
चरान के लिए दिए जा रहे वन क्षेत्र में पहले की तुलना में कितनी कमी आई है? इस पर सुशांत कुमार पटनायक कहते हैं हमारे पास ये डाटा एक जगह उपलब्ध नहीं है।
“फॉडर रिसोर्स डेवलपमेंट प्लान फॉर उत्तराखंड” रिपोर्ट-2021 के मुताबिक देश के अन्य हिस्सों की तुलना में उत्तराखंड में पशुओं की संख्या कम हुई है। जिसकी सबसे बड़ी वजह बेहतर चारे की कमी है।
प्रकृति आधारित सेवाएं देते हैं पशुपालक
पशुपालकों और चारागाहों की समस्याओं पर संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन ने (FAO) वर्ष 2026 में अंतर्राष्ट्रीय चारागाह और चरवाहा वर्ष मनाने का प्रस्ताव दिया है। इसमें कहा गया है कि पशुपालक चरान के ज़रिये प्रकृति आधारित कई सेवाएं भी देते हैं। भारत में भेड़-बकरियों के चरान से जंगल से बायोमास कम होता है और जंगल की आग से सुरक्षा होती है। साथ ही पौष्टिक घास, कार्बन संचय (carbon sequestration), मिट्टी को रोकना, औषधीय जड़ी-बूटियों का संरक्षण कर सतत विकास के लक्ष्य 13 और 15 (SDG 13, 15) को पूरा करने में मदद करते हैं।
ऊन के धागों से टूटता मोह
चरान की समस्या से जूझ रहे भोटिया पशुपालकों की दूसरी बड़ी मुश्किल भेड़ों के ऊन का बाज़ार और उचित दाम न मिलना है।
भोटिया जनजाति की नर्मदा रावत कहती हैं कि हमारे गांव बगोरी में करीब 500 परिवार हैं और मुश्किल से 50-60 परिवार ही भेड़-बकरी पालन से जुड़े हैं। “धीरे-धीरे हम लोग ये काम छोड़ रहे हैं। ऊन की सफाई, धुलाई, धुनाई, धागे से लेकर ऊनी वस्त्र बनाने में जितनी मेहनत लगती है, आमदनी उतनी नहीं होती। मेरे दो बच्चे पढ़-लिख रहे हैं। हम नहीं चाहेंगे कि भविष्य में वे ये काम करें।”
बगोरी में कोली समुदाय के बुनकर परिवार भी रहते हैं। जो कच्चा ऊन खरीदकर ऊनी चादरें और शॉल तैयार करते हैं। इस समुदाय की लीला देवी घर के बरामदे में लगे ताने-बाने पर ऊनी चादर तैयार करती हुई मिलीं। निराशा से वह कहती हैं “कच्चा माल खरीदकर ऊन तैयार करना ही कई दिनों का काम है। एक चादर बनाने में 10 दिन लग जाते हैं। इससे जो आमदनी होती है वो दिहाड़ मज़दूरी के बराबर भी नहीं।”
डॉ नवीन आनंद ने बगोरी गांव के भोटिया लोगों के साथ यूएनडीपी की सिक्योर परियोजना के तहत वर्ष 2020 में काम किया है। वह कहते हैं कि इनोवेशन की कमी, एक्जपोज़र न होने, मशीनें-तकनीक और मार्केटिंग न होने से भोटिया को लोगों को ऊन और उससे बनी चीजों पर मेहनत और लागत अधिक लग रही है जबकि मुनाफा कम हो रहा है। अगर ऊन धुलाई की मशीनें, कार्डिंग की सुविधा उनके गांव के पास ही मिल जाए तो लागत कम होगी।
ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया जनजातीय समुदाय की आजीविका से जुड़े मुद्दों पर कार्य करती है। उत्तराखंड में इसके रीजनल मैनेजर अल्ताफ बगोरी गांव के लोगों को उनसे संपर्क करने की सलाह देते हैं। वे कहते हैं “वनधन योजना के तहत ट्राइफेड उनके उत्पाद की बिक्री में मदद कर सकता है। इसके लिए उन्हें स्वयं सहायता समूह बनाना होगा।”