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अपशिष्ट जल का दोबारा उपयोग: भारत में जल संकट से निपटने का एक स्थायी रास्ता

पानी के लिए भारत में घरों और उद्योगों की निर्भरता फिलहाल भूजल पर ही है। भूजल तेजी से घटता जा रहा है। ऐसे में अपशिष्ट जल को ठीक ढंग से शोधित करके उसके दोबारा उपयोग से यह निर्भरता खत्म की जा सकती है।
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<p>नई दिल्ली के एक खुले जल स्रोत में घरों का कचरा डाला गया है। (फोटो: अलामी)</p>

नई दिल्ली के एक खुले जल स्रोत में घरों का कचरा डाला गया है। (फोटो: अलामी)

यमुना नदी के पुनरुद्धार को लेकर, एक उच्च-स्तरीय समिति की, 21 अप्रैल को हुई बैठक के दौरान, दिल्ली के उपराज्यपाल वी. के. सक्सेना ने राजधानी के अपशिष्ट जल या सीवेज के ट्रीटमेंट यानी शोधन में तेजी लाने की अपील की थी।

बतौर उपराज्यपाल, जिससे वह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के संवैधानिक प्रमुख हैं, सक्सेना ने बताया कि किस तरह से राजधानी में, इस समय हर दिन 290.7 करोड़ लीटर सीवेज पैदा होता है। इसमें से, 75 फीसदी का ट्रीटमेंट किया जाता है। सक्सेना ने जून के अंत तक 95 फीसदी ट्रीटमेंट की बात कही।

आधिकारिक तौर पर, इस बात की कोई पुष्टि नहीं हुई है कि ये लक्ष्य हासिल किए गए हैं या नहीं, लेकिन अनौपचारिक रूप से द् थर्ड पोल को बताया गया है कि हालांकि अधिकांश निर्माण कार्य पूरा हो चुका था, लेकिन भारी मानसूनी बारिश के कारण अंतिम चरण बाधित हो गया था।

यमुना की सफाई के मामले में सरकारी तंत्र लगातार विफल रहा है। इसको लेकर अदालतों से गुहार लगाई गई। इसके बाद, भारत की प्रमुख पर्यावरण अदालत, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश पर यमुना के कायाकल्प के लिए एक समिति की स्थापना की गई थी।

भारत की चौथी सबसे लंबी नदी का 2 फीसदी से भी कम हिस्सा, दिल्ली से होकर बहता है, लेकिन यमुना का लगभग 80 फीसदी प्रदूषण, इस 22 किलोमीटर के रास्ते में इसमें आ जाता है। इस नदी में बहकर आने वाला सीवेज, घरों, वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों और उद्योगों से उत्पन्न अपशिष्ट जल का मिश्रण है। इस प्रकार, यह अनुपचारित अपशिष्ट, अपने साथ रोग पैदा करने वाले विषाक्त पदार्थों को लेकर यमुना में आ जाता है।

यमुना को दोबारा से ठीक स्थिति में लाने के लिए, अप्रैल 2016 और मार्च 2021 के बीच, दिल्ली में सीवेज ट्रीटमेंट से जुड़े बुनियादी ढांचे के विस्तार पर लगभग 8.44 अरब रुपये खर्च किए गए। लेकिन अप्रैल में जब रूटीन टेस्टिंग के दौरान डेल्ही पॉल्यूशन कंट्रोल कमेटी ने आठ जगहों पर नदी के पानी के नमूने लिए तो पाया कि सात स्थानों पर ये पीने या नहाने के योग्य नहीं था।

इसके अलावा, चार सैंपलिंग प्वाइंट्स पर बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) का स्तर, दरअसल 2016 से भी खराब हो गया था। यह स्थिति तब है जबकि यमुना नदी के पुनरुद्धार के लिए अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। इन प्रयासों में सरकार की तरफ से दो बड़े अभियान शामिल हैं। इनमें पहला प्रयास, 2014 में शुरू की गई, गंगा नदी की सफाई और संरक्षण की पहल, नमामि गंगा के तहत है। इसमें इस अभियान की कुछ धनराशि यमुना के लिए आवंटित की गई। दूसरे प्रयास के तहत, एनजीटी ने 2018 में दिल्ली सरकार को यमुना के प्रदूषित हिस्सों को ठीक करने का आदेश दिया।

बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड 

भूजल, झीलों और नदियों में जब बिना ट्रीट किया हुआ सीवेज छोड़ा जाता है तो इससे मीठे पानी के स्रोतों में कई दूषित रोगाणुओं यानी पैथोजन का भी प्रवेश हो जाता है। बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) घुलनशील ऑक्सीजन की वह मात्रा है जो एरोबिक बैक्टीरिया को पानी में कार्बनिक अपशिष्ट को विघटित करने के लिए आवश्यक होती है। उच्च बीओडी स्तर, पानी के बैक्टीरिया से उच्च ऑक्सीजन की मांग को इंगित करता है, इसलिए यह कार्बनिक प्रदूषकों के उच्च स्तर का संकेत देता है।

पानी की कमी से जूझ रहा भारत, तेजी से घट रहे भूजल पर निर्भर है

दिल्ली में सीवेज से जुड़ी चुनौती, पूरे भारत में पानी से जुड़ी चुनौतियों की झलक दिखाती है। पानी के मामले में भारत, दुनिया में सबसे अधिक दबाव झेल रहे देशों में एक है। अपशिष्ट जल के शोधन और पुन: उपयोग की प्रभावी रणनीति नहीं होने की वजह से एक अरब से अधिक की आबादी, अपनी घरेलू, कृषि और औद्योगिक जरूरतों के लिए भूजल आपूर्ति पर निर्भर होती जा रही है। वहीं, भूजल तेजी से घटता जा रहा है।  

यह निर्भरता दिल्ली सहित उत्तर भारत में अधिक है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान गांधीनगर (आईआईटीजी) के वैज्ञानिकों के एक नए अध्ययन में, इसे वैश्विक भूजल कमी के हॉटस्पॉट के रूप में चिह्नित किया गया है।

लोगों को इस बात का अहसास हो जाएगा कि एक बड़ा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट दरअसल सोने की खान है। यह पानी का सबसे सस्ता स्रोत है, जिसके बारे में आप निश्चिंत हो सकते हैं। 
अनंत कोडावसाल, इंजीनियरिंग कंसल्टेंसी इकोटेक के डायरेक्टर

आईआईटीजी के अध्ययन के अनुसार, भारत में 2021 से 2040 जो अनुमानित बारिश है, उसको अगर 2002 से 2020 के बीच देश में निकाले गए कुल भूजल से तुलना करें तो पाएंगे कि केवल आधे हिस्से की ही दोबारा प्राप्ति हो पाएगी।

काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर के एक अन्य विश्लेषण से पता चलता है कि 2025 तक, भारत की 15 प्रमुख नदी घाटियों में से 11 में पानी की कमी नजर आ सकती है। 

भारत के अव्यवस्थित सीवेज ट्रीटमेंट के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

भारत में, सीवेज का ट्रीटमेंट या तो उसके स्रोत पर किया जाता है, या बड़े म्यूनिसिपल प्लांट्स में केंद्रीय रूप से किया जाता है। अपशिष्ट जल के शोधन के बाद उसके दोबारा उपयोग के लिए, 2006 में केंद्र सरकार ने आदेश दिया कि एक निश्चित आकार से अधिक की प्रत्येक इमारत में एक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स और अपेक्षित पाइप लाइनें स्थापित की जानी चाहिए।

इंजीनियरिंग कंसल्टेंसी इकोटेक के डायरेक्टर अनंत कोडावसाल का कहना है कि ऐसा अनुमान है कि निजी क्षेत्र के 10 में से आठ ट्रीटमेंट प्लांट्स, ठीक ढंग से काम नहीं करते हैं। उनका कहना है, “हम किसी प्लांट को तब विफल ही मानते हैं, जब भले ही वह सीवेज के एक हिस्से का शोधन करता हो लेकिन बाकी को बिना शोधित किए ही डिस्चार्ज कर देता हो।” 

स्वच्छता को लेकर काम करने वाले एक एनजीओ, सीडीडी इंडिया में अपशिष्ट जल प्रबंधन प्रमुख, रोहिणी प्रदीप का कहना है कि यह बिल्डिंग के आर्किटेक्ट्स, मैकेनिकल इंजीनियरिंग, प्लंबिंग कॉन्ट्रैक्टर्स और अन्य कॉन्ट्रैक्टर्स जैसे पहलुओं के हिसाब से कमजोर हो सकता है। यह जरूरी नहीं है कि इनका सबका चयन इस आधार पर हुआ हो कि यह प्रदर्शन और लागत के मामले में उपयोगकर्ता के लिए सबसे अच्छे विकल्प हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र में हालात शायद ही इससे बेहतर हो, जहां स्थापित शोधन क्षमता का अधिकांश हिस्सा प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के निर्धारित मानकों को पूरा नहीं करता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली में, इस वर्ष फरवरी तक केवल 29 फीसदी स्थापित क्षमता ही अनुपालन में थी।

अपशिष्ट जल के शोधन और उपयोग के लाभ

जब सीवेज की बात आती है, तो भारत 72,368 मिलियन लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) का उत्पादन करता है। उसमें से केवल 20,235 एमएलडी (28 फीसदी) का शोधन किया जाता है। केवल 6 फीसदी का वास्तव में दोबारा उपयोग किया जाता है।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की प्रमुख वैज्ञानिक रविंदर कौर का कहना है, “ग्रामीण भारत में सीवेज के शोधन के लिए किफायती और उपयोग तरीके विकसित करके शोधित और उपयोग किए गए पानी की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है।” 

इसके अलावा, मार्च के सीईईडब्ल्यू के एक अध्ययन में कहा गया है कि, चूंकि शोधित पानी, पोषक तत्वों से भरपूर होता है, इसलिए अगर इसका उपयोग कृषि में किया जाता है तो यह उर्वरक बिल को 10 फीसदी तक कम कर सकता है। अध्ययन इस तथ्य पर भी प्रकाश डालता है कि सिंचाई के लिए कम भूजल निकालने से ऊर्जा की खपत भी कम होगी। नतीजतन, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा।

इसके अलावा, सीईईडब्ल्यू के अध्ययन से पता चलता है कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स के संचालक अपना पानी, खेतों और अन्य उद्योगों को, शोधित अपशिष्ट जल के मानक बाजार मूल्य से कुछ कम या कुछ ज्यादा पर बेच सकते हैं। 2021 में, यह आंकड़ा 20 रुपये प्रति किलोलीटर था। 

सच बात तो यह है कि हाल तक, भारत में बुनियादी ढांचे की प्राथमिकताओं में से एक के रूप में, अपशिष्ट जल के शोधन को शामिल नहीं किया जा रहा था। 

शोधित पानी के दोबारा सुरक्षित उपयोग को लेकर एक नए नेशनल फ्रेमवर्क के अनुसार, इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि उपयोग किए गए पानी के संग्रह और शोधन को ऐतिहासिक रूप से एक कामचलाऊ व्यवस्था के रूप में देखा जाता रहा है। 

भूजल का इस्तेमाल कैसे हो सकता है

भारत में ताजे पानी पर भारी सब्सिडी है। साथ ही, भूजल निकासी को लेकर निगरानी बहुत खराब है। शोधित जल को खरीदने के मामले में लोगों को इंसेंटिव नहीं है। इसलिए, सीवेज ट्रीटमेंट को, निजी क्षेत्र किसी भी तरह से फायदे का व्यापार नहीं मानता है। 

कोडावसाल का मानना है कि क्षेत्रफल के हिसाब से, भारत का दूसरा सबसे बड़ा शहर बेंगलुरु में कावेरी नदी से लगभग 100 किमी तक 1 किलोलीटर ताजा पानी पहुंचाने में जल प्राधिकरण को लगभग 80 से 90 रुपये खर्च आता है। शहर के बाहरी इलाके में, जहां आपूर्ति के लिए पाइप लाइनें नहीं हैं, वहां जल प्राधिकरण 100 से 120 रुपये प्रति किलो लीटर की लागत से टैंकरों के माध्यम से पानी की आपूर्ति करता है। 

इन लागतों के बावजूद घरेलू उपयोगकर्ताओं से केवल 7 से 45 रुपये के बीच का शुल्क लिया जाता है। 

अगर ताजे पानी की कीमतों का निर्धारण, इसकी कमी को ध्यान में रखते हुए किया जाए, खासकर उन इलाकों में, जहां पर पानी की कमी है, तो शोधित जल की मांग बढ़ जाएगी क्योंकि यह कम महंगा विकल्प साबित होगा। 
नितिन बस्सी, सीईईडब्ल्यू के सीनियर प्रोग्राम लीड 

ये आंकड़े रीसाइकिल किए गए पानी की तुलना में काफी अधिक हैं। कोडावसाल का अनुमान है कि एक बड़े संयंत्र- जिसकी क्षमता प्रतिदिन 1,000,000 किलोलीटर की हो- में उपयोग में लाए गए पानी के शोधन की लागत 15 से 18 रुपये प्रति किलोलीटर है। वहीं, छोटे संयंत्र में- जिसकी क्षमता 100,000 किलोलीटर प्रतिदिन की है- शोधन की लागत 30 से 35 रुपये प्रति किलोलीटर तक आती है। 

सीईईडब्ल्यू के सीनियर प्रोग्राम लीड, नितिन बस्सी ने इस पर कहा, “अगर ताजे पानी की कीमतों का निर्धारण, इसकी कमी को ध्यान में रखते हुए किया जाए, खासकर उन इलाकों में, जहां पर पानी की कमी है, तो शोधित अपशिष्ट जल की मांग बढ़ जाएगी क्योंकि यह कम महंगा विकल्प साबित होगा।”

कोडावसाल सहमत होते हुए कहते हैं कि लोगों को इस बात का अहसास होगा कि एक बड़ा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट, दरअसल सोने की खान है। यह पानी का सबसे सस्ता स्रोत है, जिसके बारे में आप निश्चिंत हो सकते हैं। 

अब तक, चेन्नई, एकमात्र प्रमुख भारतीय शहर है, जहां इस दिशा में कदम आगे बढ़े हैं। चेन्नई ने 2019 की गर्मियों में बड़े जल संकट का सामना किया था। इसके बाद, इस तरह के संकट से निपटने के लिए, चेन्नई के शहरी जल प्राधिकरण ने पानी के ट्रीटमेंट यानी शोधन और पुन: उपयोग के लिए एक प्रभावी बिजनेस मॉडल विकसित किया है। बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत के हर दूसरे बड़े शहर को इस बहुमूल्य संसाधन के पुन: उपयोग को सीखने से पहले चेन्नई की तरह के संकट को झेलना होगा?