अजरबैजान के बाकू में 29 वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन आज से शुरू हुआ है। यहां एक बात पहले की तरह ही नजर आ रही है। जलवायु वार्ता में ज्यादातर सीटें पुरुषों के पास हैं।
जलवायु परिवर्तन पर फ्रेमवर्क कन्वेंशन के लिए संयुक्त राष्ट्र की पहली कॉन्फ्रेंस ऑफ द् पार्टीज (कॉप) 1995 में हुई थी। तब से लेकर अब तक काफी कुछ बदल गया है। लेकिन महिला प्रतिनिधियों का अनुपात, लगभग एक तिहाई प्रतिभागियों पर स्थिर बना हुआ है।
वीमेंस एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन के आंकड़ों के अनुसार, पिछले साल कॉप 28 में महिलाओं की भागीदारी बतौर पार्टी प्रतिनिधि यानी पार्टी डेलिगेट्स के रूप में 34 फीसदी और बतौर प्रतिनिधिमंडल प्रमुख केवल 19 फीसदी रही।
इसकी तुलना में, 16 साल पहले कॉप 14 में, महिलाओं की बतौर पार्टी प्रतिनिधि यह भागीदारी 31 फीसदी रही थी। जलवायु से संबंधित विभिन्न क्रियाकलापों में जेंडर को मुख्यधारा में लाने के आह्वान के बावजूद इस दिशा में प्रगति बहुत कम है।
कॉप में महिला प्रतिनिधि क्यों गायब हैं?
इस साल जनवरी में, कॉप 29 के लिए आयोजन समिति ने 28 पुरुषों को नियुक्त किया। यहां एक भी महिला को नहीं चुना गया। इसकी काफी आलोचना हुई। इसके बाद 12 महिलाओं को जोड़ा गया। साथ ही, एक पुरुष को भी इसमें शामिल किया गया।
‘शी चेंजेस क्लाइमेट’ नाम का एक संगठन जलवायु वार्ता में समान लैंगिक प्रतिनिधित्व की वकालत करता है। यह संगठन 2020 में बना था। इसने आयोजन समिति के शुरुआती फैसले को पीछे ले जाने वाला कदम ठहराया। इसने समिति में समान प्रतिनिधित्व की मांग की। इसकी तरफ से कहा गया, “जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया को प्रभावित करता है, केवल आधे को नहीं।”
जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण और जेंडर-सेंसिटिव रिपोर्टिंग पर ध्यान केंद्रित करने वाली पत्रकार और मीडिया विकास विशेषज्ञ आफिया सलाम ने डायलॉग अर्थ को बताया कि महिलाओं की आवाज को शामिल हो, यह सुनिश्चित करने के लिए अक्सर कठोर उपायों की आवश्यकता होती है, जैसे कि पाकिस्तान में “समिति की बैठकों में बिना निमंत्रण भी मौजूद होना”।
सलाम कहती हैं, “यह पुरुषों की दुनिया है। आप अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ता में महिलाओं की तुलना में कहीं अधिक पुरुषों को देखते हैं। इसका ऐतिहासिक रूप से चली आ रही व्यवस्था या रूढ़ियों से बहुत कुछ लेना-देना है, जहां महिलाएं अक्सर प्रमुखता वाली जगहों और निर्णय लेने के स्थानों से गायब रहती हैं [उन देशों में जहां से जलवायु वार्ता के लिए प्रतिनिधि आते हैं]।”
नेतृत्व के मामले में यह वैश्विक लैंगिक असंतुलन, सीधे जलवायु वार्ता में परिलक्षित होता है। वहां राष्ट्रीय प्रतिनिधि अपनी सरकारों की लैंगिक असमानताओं की पोल खोलते हैं। दक्षिण एशिया में, केवल 16.6 फीसदी महिला सांसद हैं।
वैश्विक स्तर पर, केवल 23.3 फीसदी महिला कैबिनेट मंत्री हैं। इससे भी बदतर स्थिति यह है कि महिलाओं को पोर्टफोलियो यानी मंत्रालय देने के मामले में भेदभाव दिखता है। महिलाओं को अक्सर जेंडर, परिवार और बच्चों के मामले, सामाजिक समावेश और विकास, मूल निवासियों व अल्पसंख्यकों से जुड़े मामलों से संबंधित विभागों की जिम्मेदारी तक सीमित कर दिया जाता है। ये विभाग चाहे जितने भी महत्वपूर्ण हों लेकिन वे वित्त और ऊर्जा की तरह एजेंडा निर्धारित नहीं करते हैं।
महिलाओं की भूमिकाओं और जिम्मेदारियों से संबंधित एक बड़ी रुकावट सामाजिक बाधाएं हैं।
नई दिल्ली में चिंतन पर्यावरण अनुसंधान और कार्य समूह की संस्थापक और निदेशक भारती चतुर्वेदी बताती हैं: “सारी महिलाएं एक समान नहीं हैं। अलग-अलग महिलाओं की अलग-अलग परिस्थितियां और संदर्भ होते हैं। काम की जिम्मेदारियां अलग-अलग होती हैं। घरेलू जिम्मेदारियां अलग-अलग होती हैं।”
वह आगे कहती हैं: “जरूरी नहीं है कि वार्ताकार प्रतिष्ठित सरकारी सेवाओं की महिलाएं ही हों। इसके लिए कई रातें तैयारी में लगानी पड़ सकती हैं और एक पखवाड़े के लिए दूर रहना पड़ सकता है, जिससे वे कई हफ्तों तक घरेलू जिम्मेदारियों से दूर हो जाती हैं।”
जलवायु परिवर्तन पर चर्चा में महिलाएं क्या योगदान दे सकती हैं?
दक्षिण एशिया के लिहाज से बात करें तो महिलाएं घरेलू और देखभाल संबंधी जिम्मेदारियों में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं। इसके साथ ही वे कृषि में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। विकासशील देशों में कृषि कार्यबल में उनकी हिस्सेदारी 43 फीसदी है। यह क्षेत्र दक्षिण एशिया के सकल घरेलू उत्पाद में 18 फीसदी का योगदान देता है।
राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में लैंगिक असमानताओं के कारण, महिलाओं को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से अधिक जोखिम का सामना करना पड़ता है। इस वजह से क्लाइमेट एक्शन में उनके शामिल होने का मामला मजबूत होता है।
जलवायु परिवर्तन से जुड़ी नीतियों और अनुकूलन उपायों में व्यापक लैंगिक अंधता यानी जेंडर ब्लाइंडनेस को सलाम अपनी बातों और तथ्यों से उजागर करती हैं।
वह कहती हैं, “आपदाओं के दौरान, राहत किट तैयार करने जैसी बुनियादी चीज में महिलाओं की जरूरतों को ध्यान में नहीं रखा जाता है; इस कमी को महिलाओं द्वारा दूर किया जा रहा है।”
सलाम कहती हैं कि हमारी व्यवस्था “आमतौर पर बुनियादी स्वच्छता संबंधी आवश्यक चीजें, जैसे सैनिटरी नैपकिन, अंडरवियर, कपड़े के तौलिये, कॉटन पैड, साबुन, साथ ही गर्भवती और नई माताओं के लिए विशेष पोषण और गरिमा किट यानी डिग्निटी किट शामिल करने में विफल रहती है। महिलाओं की विशेष जरूरतों का ध्यान रखने लायक राहत किट न बन पाने की स्थिति में लोगों ने उस कमी को पूरा करने के लिए कदम उठाया है।”
सलाम का कहना है कि जलवायु चर्चाओं में अधिक महिलाओं की भागीदारी से हाशिए पर पड़े अन्य समूहों के लिए अधिक समावेशी दृष्टिकोण अपनाया जा सकेगा।
वह कहती हैं कि चूंकि महिलाएं देखभाल संबंधी जिम्मेदारियां मुख्य रूप से निभाती हैं, इसलिए वे बच्चों और बुजुर्गों के बारे में भी सोच रही हैं। जब महिलाएं समाधान तैयार करती हैं, तो उनके समावेशी होने की संभावना अधिक होती है।
जब महिलाएं जलवायु परिवर्तन वार्ता में भाग लेती हैं, तो यह संभावित रूप से उन्हें तकनीकी स्थानों तक पहुंच प्रदान कर सकता है, जहां मिटिगेशन स्ट्रैटेजीज यानी शमन रणनीतियों, अनुकूलन उपायों और किए जाने वाले पहल के लिए वित्तपोषण जैसे मुद्दों पर महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं।
चतुर्वेदी का कहना है कि इससे उन्हें निर्णय लेने में एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक भूमिका निभाने का मौका मिलेगा।
अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ता को प्रभावित करने वाली महिला वार्ताकारों के शीर्ष उदाहरणों में पाकिस्तान की पूर्व जलवायु मंत्री शेरी रहमान हैं।
शर्म अल-शेख में कॉप 27 में जी77 अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने जी77 के लिए लॉस एंड डैमेज पर वार्ता का नेतृत्व किया। वहां एक डेडिकेटेड लॉस एंड डैमेज फंड स्थापित करने की प्रतिबद्धता जताई गई।
वहीं, भारत की जानी-मानी पर्यावरण नीति शोधकर्ता सुनीता नारायण ने कॉप 28 के अध्यक्ष सुल्तान अल जाबेर के सलाहकार पैनल में काम किया।
दिल्ली में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की महानिदेशक के रूप में, नारायण, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के बारे में विचार करते समय ऐतिहासिक जिम्मेदारी को पहचानने की एक प्रमुख आवाज हैं।
सब कुछ संख्याओं में समाहित नहीं है
हालांकि, जलवायु वार्ता में महिलाओं की मौजूदगी मात्र ही इस बात की गारंटी नहीं हो सकती है कि इस दिशा में बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ेगा या संस्थागत बदलाव हो जाएंगे।
चतुर्वेदी पूरी तरह से यह बात नहीं स्वीकार कर रही हैं कि कॉप में अधिक महिलाओं की उपस्थिति महत्वपूर्ण प्रभाव पैदा करेगी, क्योंकि रणनीतिक निर्णय अक्सर मंत्रालयों के भीतर केंद्रीय रूप से होता है।
उनका कहना है, “एक बेहतर परिणाम यह है कि लैंगिक हितों को बातचीत में शामिल किया जाता है।”
सलाम इससे सहमत हैं, और सुझाव देती हैं कि महिलाओं के पास जो शक्ति और प्रभाव है, वह केवल संख्या से अधिक महत्वपूर्ण है।
वह कहती हैं, “हमारे पास अतीत में मजबूत नेतृत्व क्षमताओं वाली शक्तिशाली महिलाएं रही हैं, लेकिन ये केवल अपवाद थे, आदर्श नहीं।”
व्यापक मुद्दे कॉप की प्रकृति में निहित हैं। कई लोग सार्थक जलवायु कार्रवाई को आगे बढ़ाने में कॉप की प्रभावशीलता पर सवाल उठाते हैं, खासकर जब नागरिक समाज समूहों को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है।
चतुर्वेदी कहती हैं: “जब आप विरोध प्रदर्शनों को प्रतिबंधित करते हैं, तो आप बहुत सी महिलाओं की आवाज को भी बंद कर रहे होते हैं, क्योंकि न्याय की बातचीत में बहुत सी महिलाएं हैं।”
महिलाओं की एकजुटता की कुंजी दक्षिण एशियाई सहयोग है
क्षेत्रीय सहयोग की अनुपस्थिति में राजनीतिक संकट, जलवायु संकट को और बढ़ा देते हैं। सलाम, भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा पार सहयोग की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डालती हैं: “हम स्वतंत्र देश हैं, लेकिन हमारी साझा समस्याएं हैं। हमारे पास ट्रांस बाउंड्री नदियां हैं और इसलिए हम समान जल समस्याएं साझा करते हैं। दिल्ली और लाहौर में वायु प्रदूषण की समस्याएं समान हैं।
जटिल अंतर-सरकारी संबंधों के कारण इस तरह का सहयोग चुनौतीपूर्ण है, चतुर्वेदी का तर्क है कि महिला एकजुटता और आत्मविश्वास निर्माण में अधिक निवेश आवश्यक है। वह कहती हैं, “नागरिक समाज यानी सिविल सोसाइटी की शक्ति, एकजुटता में निहित है, और यह एकजुटता पैनल और बातचीत से आएगी।”
हालांकि, उम्मीद की कुछ किरणें भी हैं। पिछले साल, कॉप 28 प्रेसीडेंसी ने पार्टियों से लैंगिक रूप से संतुलित प्रतिनिधिमंडल लाने का आग्रह किया था। पार्टियों ने इस बात पर भी सहमति जताई कि लीमा वर्क प्रोग्राम ऑन जेंडर (एलडब्ल्यूपीजी) के कार्यान्वयन की अंतिम समीक्षा इस महीने पूरी हो जाएगी। पेरू में कॉप 20 में 2014 में स्थापित, एलडब्लयूपीजी का उद्देश्य लैंगिक संतुलन को आगे बढ़ाना और महिलाओं की समान और सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करना है।
एक खुले पत्र के माध्यम से, वुमन एंड जेंडर कन्स्टिचूयन्सी ने कॉप 29 में वार्ताकारों से आग्रह किया है कि वे जलवायु नीतियों में लैंगिक रूप से संवेदनशील उपायों को शामिल करने और जलवायु वार्ता में महिलाओं की पूर्ण भागीदारी को रोकने वाली बाधाओं को दूर करें। अब यह तो समय ही बताएगा कि जलवायु परिवर्तन को लेकर निर्णय लेने में लैंगिक समानता वास्तव में हकीकत में बदलती है या नहीं।