जब हिमाचल प्रदेश में गर्मी अपने शिखर पर होती है, तो शिरार गांव के आसपास के सेबों के बागान जीवन से भर उठते हैं। पेड़ फूलों और फलों से लदे होते हैं और बाग़ों में रौनक लौट आती है। लेकिन इस बार मौसमी चहल-पहल के बीच भी किसानों के चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही है। बीती सर्दियों में बर्फबारी बेहद कम हुई और तापमान भी सामान्य से ज्यादा रहा। इस वजह से किसानों के बीच आने वाली फसल को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है। कई किसानों को डर है कि इस बार भी पैदावार उम्मीद से काफी कम रह सकती है।
सेब हिमाचल प्रदेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आधारशिला हैं। राज्य के नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, बागवानी की कुल ज़मीन का आधा हिस्सा सेब के बागानों के तहत आता है। वजन के लिहाज से कुल फल उत्पादन का करीब 84% हिस्सा सिर्फ सेब का है। सेब उद्योग का अनुमानित आर्थिक मूल्य 5,000 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा है, और करीब 2.5 लाख परिवार इस फसल पर सीधे या परोक्ष रूप से निर्भर हैं। लेकिन बीते एक दशक में सेब की पैदावार में तेज गिरावट आई है। 2015 में जहां राज्य में सेब की पैदावार 7.77 लाख मीट्रिक टन थी, वहीं 2023 तक यह घटकर सिर्फ 5.07 लाख टन रह गई। पिछले साल भी यह गिरावट जारी रही और फसल 4.97 लाख टन ही रही।
किसान और कृषि विशेषज्ञ इस गिरावट के मुख्य कारणों में जलवायु परिवर्तन को प्रमुख रूप से जिम्मेदार मानते हैं। सर्दियों के महीनों में बर्फबारी में आई कमी ने सालभर जल उपलब्धता को प्रभावित किया है। वहीं बढ़ते तापमान से सेब के पेड़ों के लिए जरूरी “चिलिंग आवर्स” पर भी असर पड़ा है। इन ठंडे घंटों, जिन्हें आमतौर पर 7 डिग्री सेल्सियस से नीचे के तापमान में बिताए गए समय के रूप में परिभाषित किया जाता है, की आवश्यकता कली बनने और फल के विकास के लिए बेहद जरूरी होती है। पारंपरिक किस्मों, जैसे कि शिरार क्षेत्र में उगाई जाने वाली ‘रेड डिलीशियस,’ को एक मौसम में लगभग 1,400 चिलिंग आवर्स की ज़रूरत होती है। लेकिन हाल के वर्षों में सर्दियों में इतनी ठंड नहीं पड़ी कि ये घंटे पूरे हो सकें, जिससे फसल की पैदावार ही नहीं, बल्कि गुणवत्ता पर भी असर हुआ है।
बर्फबारी की कमी और बढ़ते तापमान ने कीटों और फफूंदजनित बीमारियों, जैसे कि सेब की स्कैब बीमारी के प्रकोप को भी बढ़ा दिया है। इसके चलते किसानों को कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों का अधिक इस्तेमाल करना पड़ रहा है, जिससे उनकी लागत लगातार बढ़ रही है, जबकि सेब की बिक्री से होने वाली आमदनी घटती जा रही है।
अचानक बदलते और तेज़ होते मौसम ने किसानों की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। हर साल होने वाली ओलावृष्टि से फूल और अधपके फल खराब हो रहे हैं, इसलिए कई किसान अब अपने बागानों में जाल लगवा रहे हैं ताकि फसल को बचाया जा सके। तेज़ और भारी मानसूनी बारिश भी काफ़ी नुकसान पहुंचा रही है, जिससे कटाई के बाद फसल को बाज़ार तक ले जाना और भी मुश्किल हो गया है। 2023 की गर्मियों में हिमाचल प्रदेश को भयावह तबाही का सामना करना पड़ा था। भूस्खलन और आकस्मिक बाढ़ की घटनाओं ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली थी, और 10,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का नुकसान भी पहुंचाया था।
हिमाचल प्रदेश के प्रमुख सेब उत्पादक इलाकों में से एक, शिरार गांव (कुल्लू घाटी) में पैदावार में आई गिरावट का असर साफ दिख रहा है। यहां के 360 परिवारों में से ज़्यादातर की रोज़ी-रोटी सेब व्यापार पर टिकी है, और लगभग हर परिवार किसी न किसी रूप में इस काम से जुड़ा हुआ है।
पिछली फसल के समय जब डायलॉग अर्थ ने शिरार का दौरा किया, तो गांव के लगभग सभी वयस्क बागानों में काम करते दिखे। बाग़ों में फल तो खूब नजर आ रहे थे, लेकिन किसान श्यामसुंदर ठाकुर ने बताया कि उनकी पैदावार करीब 50% कम हो गई। इस बार उन्हें सिर्फ 5 लाख रुपए की कमाई हुई जो आमतौर पर होने वाली उनकी आमदनी का आधा है।
किसानों की मदद के लिए राज्य और केंद्र सरकार की कई योजनाएं और सब्सिडी उपलब्ध हैं। लेकिन शिरार के किसानों का कहना है कि इनका ज़मीनी असर बहुत कम है। ऐसे में किसान हालात से निपटने के लिए खुद ही बदलाव की कोशिश कर रहे हैं। श्यामसुंदर ठाकुर जैसे कुछ किसान, सेब की ऐसी नई किस्मों के साथ प्रयोग कर रहे हैं जिन्हें कम ठंड की ज़रूरत होती है। वहीं कुछ किसान अब आलूबुखारा और पर्सिमन जैसे वैकल्पिक फलों की खेती की ओर बढ़ रहे हैं। इसके बावजूद, ज़्यादातर किसान आशान्वित नहीं हैं। कई तो अपने बच्चों को इस पेशे में आने से मना कर रहे हैं। उन्हें डर है कि जिस तरह से आसपास के गांवों से सेब के बागान धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं, वैसा ही कुछ जल्द शिरार में भी हो सकता है।
निर्माण क्रेडिट:
निर्देशक एवं संपादक: कबीर नाइक, सनी साइड साउथ
स्थानीय सहायक (फिक्सर): हरी ठाकुर
सहायक सिनेमैटोग्राफर: ललित जोरवाल
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